मोदी की लगातार गुजरात चुनाव में तीसरी जीत से तो ऐसा ही लगता है कि मानो मोदी कह रहे हों कि ‘हम तो ऐसे हैं भइया’ और चुनावों के परिणामों में ‘ये होना ही था’,,,,,,,,,,,, साथ ही यह जीत मोदी का उन लोगों को करारा जवाब भी है जिन्होने मोदी को गुजरात चुनाव से पहले ‘मौत का सौदागर’ बताया था।
किसी राज्य का लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनना कोइ हास्य का विषय नही है साथ ही ये इस बात का पुख्ता सबूत भी है कि राज्य की जनता उस व्यक्ति पर कितना विश्वास करती है।एक बार को जनता का यकीन जीतना तो कदाचित सरल हो सकता है पर सबसे अधिक मुश्किल कार्य होता है उस यकीन को कायम करना। पर नरेन्द्र मोदी ने इस नामुमकिन काम को भी संभव कर दिखाया है।
राज्य की बागडोर तीसरी बार मोदी के हवाले करके वहां की जनता ने यह जता दिया है कि मोदी पर चुनावों से ठीक पहले लगे बेबुनियाद इल्जाम भी उनके मोदी के प्रति विश्वास को नहीं डगमगा सके। गुजरात की जनता अपने राज्य में विकास चाहती है। देश का सबसे विकसित राज्य बने रहना चाहती है और वह यह भी जानती है कि यह स्वप्न केवल मोदी ही पूरा कर सकते हैं।
गुजरात की जनता को बेवकूफ बनाना इतना आसान नहीं है। अगर उसने मोदी को जिताया है तो इसके पीछे वजह है गुजरात में हुआ विकास कार्य, जो कि मोदी की छत्रछाया मे हुआ है। आज का युवा पढ़ा लिखा और समझदार है। वह जानता है कि उसके लिये क्या सही है और क्या गलत है। यदि कोई व्यक्ति उसके राज्य में विकास को प्रोत्साहन दे रहा है और यह विकास केवल कागजों पर नहीं बल्कि हकीकत में उसके सामने हो रहा है तो वह अपनी आंखों पर यकीन करेगा या फिर उन बातों पर जो कि मीडिया उन्हे दिखा रहा है। यकीनन इस जीत ने यह साबित कर दिया है कि मोदी पर उनका विश्वास अटल है और वह किसी बाहरी व्यक्ति के बहकावे में आकर इसे नहीं डिगायेगें।
बुधवार, 26 दिसंबर 2007
शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007
कैसे करते हैं आप दान?
क्या आपने कभी दान किया है। हम में से बहुत लोगों ने किया होगा। किसी चैरिटी के नाम दान किया होगा और देते समय यह सोचा होगा कि आज हमने बहुत अच्छा काम किया है और दिल को बहुत सुकून मिला होगा। पर आपको विश्वास है कि आपका यह दान सही हाथों में पहुंचा होगा। क्या दान करके ही आप अपने कत्वर्य से मुक्त हो गये? नहीं। अगर आप सही में किसी जरूरत मंद की मदद करना चाहते हैं तो जाइये रात को और देखिये फुटपाथ पर कितने ही गरीब आपको ठंड में कम्बल और रजाई के बिना ठिठुरते हुऐ सोते मिल जाऐगें। जाइये उन्हें चुपके से कम्बल उढ़ा आइये। और बिन बताऐं वापस आ जायें। देखिये आपको कितना सुकून मिलेगा। मेरे विचार से तो वह ही सही मायनो में दान है।
कभी सोचा है आपने इन अनाथलयों के लिये इतने बड़े बड़े लोग दान करते हैं पर फिर भी वहां की स्थिति में कोई सुधार नहीं आता। कारण पैसा सही हाथों में ना पहुचंना है। अगर आप सच में अनाथ बच्चों की मदद करना चाहते हैं तो खुद जाइये और अपने हाथों से उन्हें उनकी जरूरत का सामान बांट कर आइये।
दरअसल असली बात यह है कि हम में से इतना वक्त किसी के पास नहीं है कि स्वंय जाकर किसी की जरूरतों को जाने। इसलिये चेक या रूपये देकर इतिश्री कर लेते हैं। तो अगली बार अगर आप दान करने के बारे में सोचें तो एक बार मेरी बात पर अवश्य गौर कर लीजियेगा।
कभी सोचा है आपने इन अनाथलयों के लिये इतने बड़े बड़े लोग दान करते हैं पर फिर भी वहां की स्थिति में कोई सुधार नहीं आता। कारण पैसा सही हाथों में ना पहुचंना है। अगर आप सच में अनाथ बच्चों की मदद करना चाहते हैं तो खुद जाइये और अपने हाथों से उन्हें उनकी जरूरत का सामान बांट कर आइये।
दरअसल असली बात यह है कि हम में से इतना वक्त किसी के पास नहीं है कि स्वंय जाकर किसी की जरूरतों को जाने। इसलिये चेक या रूपये देकर इतिश्री कर लेते हैं। तो अगली बार अगर आप दान करने के बारे में सोचें तो एक बार मेरी बात पर अवश्य गौर कर लीजियेगा।
गुरुवार, 13 दिसंबर 2007
लंबा जीवन यानि कि ज्यादा बुढ़ापा
अच्छा नहीं लगा ना यह जानकर कि ज्यादा जीने का मतलब बुढ़ापे को ज्यादा झेलना है। मगर यह सच है। हम में से शायद ही कोई ऐसा होगा जो कम जीना चाहता होगा। हम सभी लंबी उमर की कामना तो करते हैं पर बुढापे की कल्पना कोई नहीं करना चाहता।
हाल ही में किये गये सर्वक्षेण के अनुसार स्वास्थय जागरूकता अभियान के बदौलत आने वाले कुछ सालों में भारतीयों की आयु उतनी लंबी हो सकेगी जितनी अमेरिका के लोगों की होती है। वर्तमान में जीवन दर 64 वर्ष है। यह बात उत्साहवर्धक है कि औसत भारतीय के 75 वर्ष तक जीने की संभावना रहती है। पर हमारे देश में वृद्धों दशा देखते हुऐ यह बात उतनी ही चिन्ता जनक भी है।
हमारे समाज में वृद्धों को उतना सम्मान नहीं मिलता, जितना कि मिलना चाहिये। देश में बने ओल्ड ऐज होम हमारे लिये शर्मनाक हैं और वैसे भी यह वृद्ध आश्रम हमारी संस्कृति नहीं है। यह तो पश्चिमी देशों की रीति है। हमारे यहां बढे-बूढों की सलाह से ही घर चलाने की परम्परा है। पर अंग्रेजीकरण ने हमारी परम्पराओं को नष्ट कर दिया है।
वैसे हमारी सरकार ने वृद्धों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये कुछ उपाय किये हैं। इस वर्ष नागरिक कल्याण विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा स्वास्थय बीमा, पेंशन लाभ और कर रियाअतें द्वारा उन्हे लाभान्वित कराया जा रहा है।
पर मुख्य बात यह है कि कानून का पालन तो मजबूरी में किया जाता है। क्या अपने माता पिता का ख्याल क्या किसी कानून के कारण बाध्य होकर करेगें? उनके ऊपर तो कोई बंदिश नहीं थी जब उन्होने अपने सपनों और इच्छाओं को दबाकर आपकी इच्छाओं को पूरा किया और आपके सपनों को जिया। फिर उन्हीं माता पिता को उनके इतने त्याग के बदले क्या हम उन्हें सम्मान और स्नेह भी नहीं दे सकते? वह भी तब जब उन्हें आपकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
हाल ही में किये गये सर्वक्षेण के अनुसार स्वास्थय जागरूकता अभियान के बदौलत आने वाले कुछ सालों में भारतीयों की आयु उतनी लंबी हो सकेगी जितनी अमेरिका के लोगों की होती है। वर्तमान में जीवन दर 64 वर्ष है। यह बात उत्साहवर्धक है कि औसत भारतीय के 75 वर्ष तक जीने की संभावना रहती है। पर हमारे देश में वृद्धों दशा देखते हुऐ यह बात उतनी ही चिन्ता जनक भी है।
हमारे समाज में वृद्धों को उतना सम्मान नहीं मिलता, जितना कि मिलना चाहिये। देश में बने ओल्ड ऐज होम हमारे लिये शर्मनाक हैं और वैसे भी यह वृद्ध आश्रम हमारी संस्कृति नहीं है। यह तो पश्चिमी देशों की रीति है। हमारे यहां बढे-बूढों की सलाह से ही घर चलाने की परम्परा है। पर अंग्रेजीकरण ने हमारी परम्पराओं को नष्ट कर दिया है।
वैसे हमारी सरकार ने वृद्धों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये कुछ उपाय किये हैं। इस वर्ष नागरिक कल्याण विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा स्वास्थय बीमा, पेंशन लाभ और कर रियाअतें द्वारा उन्हे लाभान्वित कराया जा रहा है।
पर मुख्य बात यह है कि कानून का पालन तो मजबूरी में किया जाता है। क्या अपने माता पिता का ख्याल क्या किसी कानून के कारण बाध्य होकर करेगें? उनके ऊपर तो कोई बंदिश नहीं थी जब उन्होने अपने सपनों और इच्छाओं को दबाकर आपकी इच्छाओं को पूरा किया और आपके सपनों को जिया। फिर उन्हीं माता पिता को उनके इतने त्याग के बदले क्या हम उन्हें सम्मान और स्नेह भी नहीं दे सकते? वह भी तब जब उन्हें आपकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
बुधवार, 12 दिसंबर 2007
क्या हैं आप- इंडियन या भारतीय या फिर हिन्दुस्तानी
आप कहेगें तीनों में क्या अंतर है?पर अंतर है और बहुत गहरा है। क्या कभी आपने यह जानने की कोशिश की है कि अमेरिका ,जापान और फ्रांस आदि देशों का नाम हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में एक ही रहता है तो हमारा भारत क्यों अंग्रेजी में इण्डिया हो जाता है? क्यों हम उसे अंग्रेजी में भी भारत नहीं लिख या बोल पाते। सच तो यह है कि इण्डिया नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है और यह उस बड़ी साजिश की नींव थी जिसके तहत अंग्रेजों ने संस्कृति, सभ्यता, और हमारी पहचान स्वयं हमारे ही हाथों नष्ट करने की चाल चली थी और उसमें पूर्ण रूप से सफल भी रहे। हमारे पूर्वज देश को आजाद कराने में तो सफल रहे पर जाते जाते अंग्रेज भारत को इण्डिया बना गये और हमारे पतन का बीज बो गये। और दुख और शरम की बात तो यह है कि आज हमारे देश के लोग इस चाल को समझ नहीं पाये और स्वयं ही इसे खाद पानी देते रहे। जिन अंग्रजों ने हमें 200 साल गुलाम बना कर रखा, आज उन्हीं की भाषा को हम सर माथे पर रख रहे हैं और अपनी राष्ट्रीय भाषा को हीन दृष्टि से देखते हैं। हाल तो यह है कि आज हमारी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी केवल अनपढ़ों और गरीबों की भाषा बन गयी है और अंग्रेजी सभ्य और पढ़े लिखे होने का प्रमाण बन गयी है। मैं पूछती हूं कि क्या खराबी है हमारी हिन्दी में। क्यों हम इसे अपनाने में शरम महसूस करते हैं। वैसे एक बात मै और बताना चाहूंगी कि पूरे विश्व में सिर्फ भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां के लोग अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी के पीछे भाग रहे हैं। जबकि बाकी सारे देशों केवल अपनी राष्ट्रीय भाषा में सारे कार्य किये जाते हैं।
आज जो हिन्दी की अवस्था है,350 साल पहले अंग्रेजी भी इसी तरह अपने अस्तित्व को पाने के लिये तड़प रही थी। तब किसी अंग्रेज ने यह पीड़ा को महसूस किया होगा और अपनी भाषा के लिये संघर्ष किया होगा और यह उसी संघर्ष और कड़ी मेहनत का फल है कि आज अंग्रेजी को अंर्तराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिल चुका है। और अंर्तराष्ट्रीय भाषा की बात करें तो हिन्दी भाषा विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है और विश्व की लगभग 7 अरब की आबादी में डेढ़ सौ करोड़ की आबादी हमारी है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर हमारी राष्ट्रीय भाषा को अंतराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिलना चाहिये।
पर भारत में कुछ इंडियन इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं और स्वयं को भारतवासी कहलाने के बजाए इंडियन कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। वैसे हम भारतीयों का अपना कोई अस्तित्व शुरू से नहीं रहा है। जब जिसने हम पर राज किया उसने हमारा नामकरण कर दिया और हमने उसे खुशी खुशी स्वीकार भी कर लिया बिना यह जाने कि क्यों कोई बाहर वाला हमारे देश का नाम बदले वह भी बिना हमारी इच्छा जाने। अंग्रेजो ने गुलाम बनाया और देश को इण्डिया बना दिया। मुगलों ने राज किया तो बदल के भारत से बदल कर हिन्दुस्तान हो गया था। जबकि कुरान में हिन्दु का अर्थ होता है काफिर। पर हमने बिना कुछ सोचे समझे इसे भी अपना लिया।
सवाल यह है कि हमारी अपनी पहचान क्यों धूमिल होती जा रही है। क्यों हम दूसरों की दी हुई पहचान पर जीने को मजबूर हैं। क्यों हम अपनी राष्ट्रीय भाषा को अपनाने में कतरा रहे हैं। जवाब शायद एक ही है कि हमारे अंदर अपने देश के लिये देशभक्ति का जज्बा दम तोड़ चुका है जो हर देशवासी में होना चाहिये।जरूरत है उसे फिर से जाग्रत करने की ताकि हम अपने देश को और अपनी भाषा को खोया हुआ सम्मान वापस दिला सकें।
आज जो हिन्दी की अवस्था है,350 साल पहले अंग्रेजी भी इसी तरह अपने अस्तित्व को पाने के लिये तड़प रही थी। तब किसी अंग्रेज ने यह पीड़ा को महसूस किया होगा और अपनी भाषा के लिये संघर्ष किया होगा और यह उसी संघर्ष और कड़ी मेहनत का फल है कि आज अंग्रेजी को अंर्तराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिल चुका है। और अंर्तराष्ट्रीय भाषा की बात करें तो हिन्दी भाषा विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है और विश्व की लगभग 7 अरब की आबादी में डेढ़ सौ करोड़ की आबादी हमारी है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर हमारी राष्ट्रीय भाषा को अंतराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिलना चाहिये।
पर भारत में कुछ इंडियन इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं और स्वयं को भारतवासी कहलाने के बजाए इंडियन कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। वैसे हम भारतीयों का अपना कोई अस्तित्व शुरू से नहीं रहा है। जब जिसने हम पर राज किया उसने हमारा नामकरण कर दिया और हमने उसे खुशी खुशी स्वीकार भी कर लिया बिना यह जाने कि क्यों कोई बाहर वाला हमारे देश का नाम बदले वह भी बिना हमारी इच्छा जाने। अंग्रेजो ने गुलाम बनाया और देश को इण्डिया बना दिया। मुगलों ने राज किया तो बदल के भारत से बदल कर हिन्दुस्तान हो गया था। जबकि कुरान में हिन्दु का अर्थ होता है काफिर। पर हमने बिना कुछ सोचे समझे इसे भी अपना लिया।
सवाल यह है कि हमारी अपनी पहचान क्यों धूमिल होती जा रही है। क्यों हम दूसरों की दी हुई पहचान पर जीने को मजबूर हैं। क्यों हम अपनी राष्ट्रीय भाषा को अपनाने में कतरा रहे हैं। जवाब शायद एक ही है कि हमारे अंदर अपने देश के लिये देशभक्ति का जज्बा दम तोड़ चुका है जो हर देशवासी में होना चाहिये।जरूरत है उसे फिर से जाग्रत करने की ताकि हम अपने देश को और अपनी भाषा को खोया हुआ सम्मान वापस दिला सकें।
मंगलवार, 11 दिसंबर 2007
एक दिन यात्रा में,,,,,,,,,,,,,,,,,
परसों सुबह उत्तरांचल से दिल्ली के लिये जाने वाली ‘सम्पर्क क्रान्ति’ रेलगाड़ी से मैं रूद्रपुर स्टेशन से चढ़ी। शादियों के सीजन के कारण यात्रियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। मेरी आरक्षित सीट पर हमेशा की तरह कोई यात्री बैठे हुऐ थे। उठाना बुरा लगा क्योकि उनके साथ एक छोटा बच्चा भी था पर मेरी भी मजबूरी थी। 5 घण्टे का सफर खड़े होकर काटना असम्भव था। खैर जैसे तैसे सीट मिली। बैठी ही थी कि एक अधेड़ उम्र के सज्जन आये और खिड़की वाली सीट पर हक जमाने लगे, जबकि उनकी सीट मेरे बगल मे थी। वैसे मुझे कोई परेशानी नहीं थी कि वह कहीं भी बैठें क्योंकि मेरी सीट बीच में थी पर उनका इस तरह से खिड़की वाली सीट के लिये रौब दिखाना अच्छा नहीं लगा। इसलिये उन्हें समझाया कि उनकी सीट वहां नहीं है पर वह सज्जन समझने को तैयार ही नहीं थे। मैं भी कहां हार मानने वाली थी उन्हें विस्तार से समझाया तब जाकर वह महाशय मेरे बगल में चुपचाप बैठ गये और अखबार पढ़ने में लीन हो गये। खिड़की वाली सीट खाली थी क्योंकि उसमें रामपुर से किसी का आरक्षण था। तब तक उसमें मुझे बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पर वह सौभाग्य क्षणिक था क्योकि लगभग 1 घण्टे बाद ही रामपुर स्टेशन आ गया और हमारी सीट का आखिरी यात्री भी आ गया और मुझे बीच में बैठना पड़ा। तब तक पूरी रेलगाड़ी खचाखच भर चुकी थी। यहां तक कि हमारी सीट के आसपास लोग खड़े होकर यात्र्रा कर रहे थे। खडें हुऐ यात्रियों मे सें किसी एक के पास रेडियो था जिस पर भारत – पाकिस्तान के टेस्ट मैच का सीधा प्रसारण सुनाया जा रहा था। वैसे हिन्दुस्तान में क्रिकेट मैच की खासियत यह है कि यह लोगों को आपस में बात करने पर मजबूर कर देता है। लोग अजनबियों से भी मैच का स्कोर पूछने लग जाते हैं। खैर फिलहाल यहां बात हो रही है रेलगाड़ी के सफर की। मैच का प्रसारण शुरू होते ही अधिकतर लोगों के आकर्षण का केन्द्र वह छोटा का रेडियो बन गया। पर मुझे मैच मे कोई दिलचस्पी नहीं थी इसलिये मै प्रेमचन्द जी का उपन्यास पढ़ने लगी। जो कि मैं आधा पहले पढ़ चुकी थी। इसी तरह मेरी यात्रा पूर्ण हुई और दिल्ली का स्टेशन आ गया। अब यहां से घर जाने के लिये भी तो बस पकड़नी थी जो कि इस समय इतने सारे सामान के साथ थोड़ा कष्टदायी था। घर वालों ने सख्त हिदायत दी थी कि स्टेशन से आटो कर लेना पर भारतीय नारी हमेशा पैसे बचाने के ही बारे में सोचती है। इसलिये घर वालों की हिदायत को ताक पर रखकर बस में चढ़ गयी। बस थोड़ी दूर चलते ही इस तरह खचाखच भर गयी। मुझे सीट तो मिल गयी पर मेरा स्टाप आने तक बस में इतनी भीड़ हो चुकी थी कि मै उतर ही नहीं पायी। बस में पांव रखने की भी जगह भी नहीं थी।सोचती हूं कि दिल्ली में मेट्रो, बस ,आटों और कारों के होते हुऐ भी बसों में इतनी भीड़ कैसे हो जाती है। दो स्टाप आगे आने पर मैने थोडी हिम्मत जुटायी और कंडक्टर से कहा मुझे उतरना है और अपने सहयात्रियों से विनती की कि वह मेरा सामान खिड़की से मुझे पकड़ा दें। तब जाकर कहीं मै बस से उतर पायी। उतरने के बाद मुझे आटो करके घर तक आना पड़ा। इस प्रकार मेरी रोचक सफर समाप्त हुआ।
मंगलवार, 27 नवंबर 2007
‘एस एम एस’ तेरे बिन जीना नहीं...
एसएमएस यानी शॉर्ट मैसेज सर्विस युवाओं के बीच खासी पापुलर है और यही अब रोमांस का कारगर मंत्र भी बनता जा रहा है। चाहे देर-सवेर ही सही, ये माडर्न लव लेटर तो पहुंचेगा ही। ये छोटे-छोटे मैसेज बड़े प्रेमपत्र का काम करते हैं। रोमांस के इस अंदाज पर वेदिका त्रिपाठी की नजर।
फिल्म `हसीना मान जाएगी` का गीत `व्हाट इज मोबाइल नम्बर, करुं क्या डायल नम्बर...` युवाओं के लिये काफी फायदेमन्द साबित हुआ है, क्योंकि युवाओं के रोमांस की बात हो और इजहारे मुहब्बत न हो, यह तो हो नहीं सकता। पहले जहां इजहारे मुहब्बत के लिये डरते-डरते चिट्ठी लिखने जैसे काम किये जाते थे, वहीं अब किसी को प्रपोज करने के लिये ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ती। बस इतना पता चल जाए कि उसका मोबाइल नंबर क्या है। फिर क्या है, एक अच्छे से मैसेज से कर दिया हाले दिल बयां, अब भला गर्लफ्रेण्ड कैसे न इंप्रेस होगी। दरअसल सेलफोन की दिन-पर-दिन कम होती कीमतें और घटते काल रेट्स के कारण अब मोबाइल रखना मुश्किल नहीं है। लेकिन फोन काल्स के बजाए इसका एसएमएस युवाओं के बीच ज्यादा पापुवर है और यही रोमांस का कारगर माध्यम बन गया है।
लेटर पहुंचाने से छुटकारा
ज्यादातर युवाओं का मानना है कि एसएमएस ही आज का लवलेटर है। लव लेटर सुनने और पढने में तो अच्छा है, पर उसके साथ दिक्कतें बहुत थीं। एक तो छिपकर लिखना पड़ता था कि कहीं कोई देख न ले और दूसरे, लव लेटर जिसे भेजना है, उस तक कैसे पहुंचाया जाए, यह सबसे बड़ी प्राब्लम हुआ करती थी। लेकिन अब एसएमएस से ऐसी कोई प्राब्लम नहीं होती। हालांकि मैसेज ट्रेफिक जाम में फंस भी जाता है, लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि मैसेज देर-सवेर जिसके लिये भेजा गया है उसे ही मिलेगा। फिर आज की फास्ट लाइफ में लंबे-लंबे लेटर लिखकर भेजने का वक्त किसके पास है, जबकि मोबाइल की स्क्रीन पर तो आफिस में काम करते-करते भी मैसेज टाइप करके अपने दिल की बात बता सकते हैं।
कल्पना का सहारा ले सकते हैं
जब आप एक मैसेज क्रिएट करते हैं तो उसमें कल्पना का भी सहारा लेते हैं। जैसे अगर आप अंग्रेजी में लिखना चाहते हैं `आय लव यू` तो आपको पूरा लिखने की जरूरत नहीं है बल्कि सिर्फ `आई एल यू` लिखने से भी काम चल जाएगा। वैसे भी कहते है न कि दिल की बातें बताने के लिये जज्बात लिखने चाहिए, जिसे कहने में शायद आपको झिझक हो। इसके साथ ही पिक्चर मैसेज में आप अपने मेहबूब की तस्वीर भी उकेर सकते हैं। अब तो पिक्चर मैसेज भी भेजे जा सकते हैं। इसलिये शब्दों ओर चित्रों से सजा मैसेज भेजकर किसी का भी दिल जीता जा सकता है। इन मैसेज के जरिये युवा रात भर चैटिंग करते हैं, इसमें किसी को कोई भी परेशानी महसूस नहीं होती। उन्हें बिना मिले ही लगता है कि वो एक-दूसरे से मिलकर बातें कर रहे हैं।
नेट रोमांस से सस्ता ऑप्शन
आजकल तो कई कम्पनियां सेम मोबाइल टू मोबाइल मैसेज फ्री दे रही हैं। अगर किसी में चार्ज भी किया जाता है तो पचास पैसे से एक रुपये तक। यह नेट सर्फिंग को देखते हुए बहुत सस्ता है, क्योंकि उसमें 1 घण्टे तक चैटिंग करने के 20 से 30 रुपये तक भी लिये जाते हैं। दूसरी परेशानी यह है कि आपको जो भी जवाब देना है, उसी वक्त देना होगा वरना आपका वह एक घण्टा खत्म हो जाएगा। इन मैसेज के जरिये युवक-युवतियां बातें कर सकते हैं। मैसेज का एक फायदा यह भी है कि कहीं अच्छा सा मैसेज आया हो तो उसे थोड़ा बहुत बदलकर अपने फ्रेण्ड तक भेज दो। प्यारे से मैसेज से वह खुश हो गई तो यकीन मानिये अगले दिन आपको डेटिंग को प्रोग्राम बन जाएगा।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि एस एम एस हमारे आधुनिक जीवन शैली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। जिसके बिना हमारे युवा एक दिन भी नहीं रह सकते। ये एस एम एस हमारे जिन्दगी में हवा पानी के बाद सबसे बड़ी जरूरत हो गये हैं।
फिल्म `हसीना मान जाएगी` का गीत `व्हाट इज मोबाइल नम्बर, करुं क्या डायल नम्बर...` युवाओं के लिये काफी फायदेमन्द साबित हुआ है, क्योंकि युवाओं के रोमांस की बात हो और इजहारे मुहब्बत न हो, यह तो हो नहीं सकता। पहले जहां इजहारे मुहब्बत के लिये डरते-डरते चिट्ठी लिखने जैसे काम किये जाते थे, वहीं अब किसी को प्रपोज करने के लिये ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ती। बस इतना पता चल जाए कि उसका मोबाइल नंबर क्या है। फिर क्या है, एक अच्छे से मैसेज से कर दिया हाले दिल बयां, अब भला गर्लफ्रेण्ड कैसे न इंप्रेस होगी। दरअसल सेलफोन की दिन-पर-दिन कम होती कीमतें और घटते काल रेट्स के कारण अब मोबाइल रखना मुश्किल नहीं है। लेकिन फोन काल्स के बजाए इसका एसएमएस युवाओं के बीच ज्यादा पापुवर है और यही रोमांस का कारगर माध्यम बन गया है।
लेटर पहुंचाने से छुटकारा
ज्यादातर युवाओं का मानना है कि एसएमएस ही आज का लवलेटर है। लव लेटर सुनने और पढने में तो अच्छा है, पर उसके साथ दिक्कतें बहुत थीं। एक तो छिपकर लिखना पड़ता था कि कहीं कोई देख न ले और दूसरे, लव लेटर जिसे भेजना है, उस तक कैसे पहुंचाया जाए, यह सबसे बड़ी प्राब्लम हुआ करती थी। लेकिन अब एसएमएस से ऐसी कोई प्राब्लम नहीं होती। हालांकि मैसेज ट्रेफिक जाम में फंस भी जाता है, लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि मैसेज देर-सवेर जिसके लिये भेजा गया है उसे ही मिलेगा। फिर आज की फास्ट लाइफ में लंबे-लंबे लेटर लिखकर भेजने का वक्त किसके पास है, जबकि मोबाइल की स्क्रीन पर तो आफिस में काम करते-करते भी मैसेज टाइप करके अपने दिल की बात बता सकते हैं।
कल्पना का सहारा ले सकते हैं
जब आप एक मैसेज क्रिएट करते हैं तो उसमें कल्पना का भी सहारा लेते हैं। जैसे अगर आप अंग्रेजी में लिखना चाहते हैं `आय लव यू` तो आपको पूरा लिखने की जरूरत नहीं है बल्कि सिर्फ `आई एल यू` लिखने से भी काम चल जाएगा। वैसे भी कहते है न कि दिल की बातें बताने के लिये जज्बात लिखने चाहिए, जिसे कहने में शायद आपको झिझक हो। इसके साथ ही पिक्चर मैसेज में आप अपने मेहबूब की तस्वीर भी उकेर सकते हैं। अब तो पिक्चर मैसेज भी भेजे जा सकते हैं। इसलिये शब्दों ओर चित्रों से सजा मैसेज भेजकर किसी का भी दिल जीता जा सकता है। इन मैसेज के जरिये युवा रात भर चैटिंग करते हैं, इसमें किसी को कोई भी परेशानी महसूस नहीं होती। उन्हें बिना मिले ही लगता है कि वो एक-दूसरे से मिलकर बातें कर रहे हैं।
नेट रोमांस से सस्ता ऑप्शन
आजकल तो कई कम्पनियां सेम मोबाइल टू मोबाइल मैसेज फ्री दे रही हैं। अगर किसी में चार्ज भी किया जाता है तो पचास पैसे से एक रुपये तक। यह नेट सर्फिंग को देखते हुए बहुत सस्ता है, क्योंकि उसमें 1 घण्टे तक चैटिंग करने के 20 से 30 रुपये तक भी लिये जाते हैं। दूसरी परेशानी यह है कि आपको जो भी जवाब देना है, उसी वक्त देना होगा वरना आपका वह एक घण्टा खत्म हो जाएगा। इन मैसेज के जरिये युवक-युवतियां बातें कर सकते हैं। मैसेज का एक फायदा यह भी है कि कहीं अच्छा सा मैसेज आया हो तो उसे थोड़ा बहुत बदलकर अपने फ्रेण्ड तक भेज दो। प्यारे से मैसेज से वह खुश हो गई तो यकीन मानिये अगले दिन आपको डेटिंग को प्रोग्राम बन जाएगा।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि एस एम एस हमारे आधुनिक जीवन शैली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। जिसके बिना हमारे युवा एक दिन भी नहीं रह सकते। ये एस एम एस हमारे जिन्दगी में हवा पानी के बाद सबसे बड़ी जरूरत हो गये हैं।
कश्मीर:खूबसूरती ही बनी अभिशाप-3
कल की चर्चा से यह तो साफ हो गया था कि पाकिस्तान का मकसद क्या है और उसे पूरा करने के लिये उसने क्या क्या नहीं किया। अब इतनी बार विफल होने के बाद वह अब कभी कश्मीर में स्वशासन की मांग करता है तो कभी कश्मीर से भारतीय सेना को हटाने की मांग करता है। जहां तक कश्मीर से भारतीय सैनिकों का हटाने का सवाल है उन्हें तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक कि हमलावरों को खदेड़ा नहीं जाता।जों कि अभी तक चल रहा है।
पाकिस्तान कश्मीर की जनता के लिये आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करता है। आत्मनिर्णय का अध्रिकार केवल साम्राज्यवाद से पीडित देशों को पराधीनता से मुक्त करने के लिये दिया गया था जबकि कश्मीर तो भारतीय संघ में शामिल होने के लिये विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद से ही भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है।
पाकिस्तान का मूर्खता पूर्ण तर्क यह है कि कश्मीर घाटी और डोडा क्षेत्र में मुस्लिम बहुल होने के कारण इन्हे पाकिस्तान में शामिल कर देना चाहिये। भारत धार्मिक आधार पर लोगों को बांटने का विरोधी है।वैसे भी भारत एक बहुजातीय, बहुधार्मिक और बहुभाषाई देश है।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुर्शरफ का कहना है कि कश्मीर समस्या को सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका है कि जम्मू कश्मीर को निम्नलिखित पांच क्षेत्रों मे बांट दिया जाये- पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर, उत्तरी क्षेत्र कश्मीर घाटी, लदृदाख और जम्मू। इन सभी क्षेत्रों को पूर्ण स्वायत्ता प्रदान की जाये। पर योजना के विश्लेषण से पता चलता है कि धार्मिक आधार पर विभाजन के अलावा और कुछ नहीं है।
भारत जैसा धार्मिक आधार पर बंटवारे का विरोधी देश इस बात को कैसे स्वीकार कर सकता है। भारत कश्मीर में कुछ क्षेत्र के लिये नहीं लड़ रहा है। वह कश्मीर में उन सिद्धान्तों के लिये लड़ रहा है जो हमारे देश के संविधान और जीवनाशैली का महत्वपूर्ण अंग हैं।
पाकिस्तान कश्मीर की जनता के लिये आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करता है। आत्मनिर्णय का अध्रिकार केवल साम्राज्यवाद से पीडित देशों को पराधीनता से मुक्त करने के लिये दिया गया था जबकि कश्मीर तो भारतीय संघ में शामिल होने के लिये विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद से ही भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है।
पाकिस्तान का मूर्खता पूर्ण तर्क यह है कि कश्मीर घाटी और डोडा क्षेत्र में मुस्लिम बहुल होने के कारण इन्हे पाकिस्तान में शामिल कर देना चाहिये। भारत धार्मिक आधार पर लोगों को बांटने का विरोधी है।वैसे भी भारत एक बहुजातीय, बहुधार्मिक और बहुभाषाई देश है।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुर्शरफ का कहना है कि कश्मीर समस्या को सुलझाने का सबसे अच्छा तरीका है कि जम्मू कश्मीर को निम्नलिखित पांच क्षेत्रों मे बांट दिया जाये- पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर, उत्तरी क्षेत्र कश्मीर घाटी, लदृदाख और जम्मू। इन सभी क्षेत्रों को पूर्ण स्वायत्ता प्रदान की जाये। पर योजना के विश्लेषण से पता चलता है कि धार्मिक आधार पर विभाजन के अलावा और कुछ नहीं है।
भारत जैसा धार्मिक आधार पर बंटवारे का विरोधी देश इस बात को कैसे स्वीकार कर सकता है। भारत कश्मीर में कुछ क्षेत्र के लिये नहीं लड़ रहा है। वह कश्मीर में उन सिद्धान्तों के लिये लड़ रहा है जो हमारे देश के संविधान और जीवनाशैली का महत्वपूर्ण अंग हैं।
सोमवार, 26 नवंबर 2007
कोई नहीं रहेगा कुंआरा
शायद यही कह रहा आजकल शादियों का सीजन। हाल के कुछ दिनों में देश में जिस तरह से थोक के भाव से शादियां हो रही हैं, उसे देखते हुऐ तो ऐसा ही लग रहा है। बाजार वाले तो खुश हैं क्योकि उनकी तो चांदी ही चांदी है पर इन शादियों से सबसे ज्यादा परेशानी किसी को हो रही है तो वह है ट्रैफिक जाम मे फंसे हुऐ लोगों को। आफिस से शाम को घर आते हुऐ कर्मचारियों को जो सड़कों पर बारात की वजह से घण्टों जाम में फंसे रहते हैं। जिस भी सड़क से गुजरो,एक ना एक बारात से सामना तो हो ही जाता है। परेशानी तो केवल ट्रैफिक मे फंसे लोगों को है पर व्यापारी लोग तो इस सीजन का साल भर इंतजार करते हैं। भारत में अन्य त्यौहारों की तरह शादियां में सीजन में आती हैं। शादी कराने वाले पंडित जी भी तो काफी व्यस्त हैं। आखिर उन्हे भी तो एक दिन में ना जाने कई कितनी शादियां निपटानी होती हैं। अरे भाई उन्हे भी तो अपनी रोजी रोटी कमाने का अधिकार है। दूसरों के घर बसेगें तभी तो उनके घर में चूल्हे जलेगें। यही कहानी बैंड बाजे वालो की है। आखिर उनके सब्र का फल भी तो इसी सीजन में मिलता है। दिल्ली में सीलिंग के बावजूद भी कई वेंकट हाल दुबारा खोले जा चुके हैं।क्या करें भई शादियों का सीजन है। पहले लोग एक दिन में एक आदा विवाह समारोह में शामिल हो जाया करते थे पर अब तो एक दिन में ही इतनी शादियों के निमंत्रण आते हैं कि आदमी यह तय ही नहीं कर पाता कि किस शादी में जाया जाऐ और किसमें नहीं।
और अगर शादियों अगर सबसे ज्यादा किसी चीज की बर्बादी होती है वह है खाना। लोग खाते कम हैं और फेंकते ज्यादा हैं।अगर भारत जैसी जनसंख्या वाले देश में जहां अब भी कई लाख लोग गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं, जिन्हें कई बार रात को भूखा सोना पड़ता है, में अन्न को ऐसा अपमान होगा तो शायद हमसे अधिक मूर्ख और कोई नहीं है इस धरती पर।
विवाह हमारे जीवनकाल का एक महत्पूर्ण कार्य है पर इसके लिये धन की ऐसी बर्बादी करना कहां की बुद्धिमानी है?
और अगर शादियों अगर सबसे ज्यादा किसी चीज की बर्बादी होती है वह है खाना। लोग खाते कम हैं और फेंकते ज्यादा हैं।अगर भारत जैसी जनसंख्या वाले देश में जहां अब भी कई लाख लोग गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं, जिन्हें कई बार रात को भूखा सोना पड़ता है, में अन्न को ऐसा अपमान होगा तो शायद हमसे अधिक मूर्ख और कोई नहीं है इस धरती पर।
विवाह हमारे जीवनकाल का एक महत्पूर्ण कार्य है पर इसके लिये धन की ऐसी बर्बादी करना कहां की बुद्धिमानी है?
कश्मीर:खूबसूरती ही बनी अभिशाप भाग-2
कल की कहानी को आगे बढ़ाते हुऐ हम अगर कश्मीर के उत्तरी क्षेत्र की बात करें तो इसके अंतगर्त गिलकिट, हूंजा, बलिस्तां और सक्सगाम आते हैं। 1901 में इन क्षेत्रों को रूसी हमले के खतरे की आड़ में अपने अधिकार में ले लिया था। 1935 में केन्द्र सरकार के अनुरोध करने पर कश्मीर के महाराजा ने गिलकित एजेन्सी ब्रिटिश सरकार को लीज में दे दी। 1947 में लीज समझौते की अवधि समाप्त होने पर एजेन्सी पुन: महाराजा को सौंप दी गयी। लेकिन यह बात गिलकित स्काउट्स के प्रमुख अधिकारी को नागवार गुजरी। उसने धोखे से कश्मीर के राजा के विरूद्ध विरोध करा दिया, डोगरा सैनिकों और सेनाध्यक्ष कर्नल नारायण सिहं को मौत के घाट उतार दिया और बलिस्तां पर कब्जा करके इस क्षेत्र का अधिकार पाकिस्तान के पालिटिकल एजेंट सरदार मोहम्मद आलम को सौपं दिया।
इस प्रकार युद्ध विराम के समय तक कश्मीर का 86,023वर्ग किलोमीटर हिस्सा पाकिस्तान के अधिकार में जा चुका था। 1963 में पाकिस्तान ने सक्सगाम का 2060 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र चीन को सौंप दिया।
पाकिस्तान का कहना है कि कश्मीर को दोष देता है और कहता है कि यह एक विवादाग्रस्त क्षेत्र है। पर सच्चाई तो यह है कि विवाद की जड़ कश्मीर नहीं बल्कि पाकिस्तान का कश्मीर पर अकारण हमला है। शुरूआत में तो पाकिस्तान ने यह मानने से इंकार कर दिया कि उसके सैनिक कश्मीर में हैं परन्तु बाद में उसने सहमति जताई। संयुक्त राष्ट्र संघ आयोग ने उसे सैनिक हटाने को कहा है पर अभी तक उसने अपने सैनिक नहीं हटाऐ हैं।
पाकिस्तान ने 1965 और 1971 में कश्मीर में हमले की विफलता के पश्चात उसने नयी चाल चली। उसने पंजाब में आतंकवाद के तार बिछाने शुरू किये। पूरे पंजाब में आतंकवाद की ज्वाला धधकाई और जम्मू-कश्मीर में भारत के विरूद्ध छद्म युद्ध आरम्भ कर दिया। उसने पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में जगह जगह आतंकवादी प्रशिक्षण संस्थान स्थापित किये। और इसका सबूत है वहां पुलिस द्वारा बरामद किये गये भारी मात्रा में अत्याधुनिक हथियार।
हर बार हमले में मुंह की खाने के बाद अब पाकिस्तान क्या चाहता है। यह भी महत्वपूर्ण प्रश्न है।पाकिस्तान के पास कश्मीर को अपने अधिकार में रखने के क्या कारण हैं? इस बहस को सुलझाने के लिये परवेज मुशर्रफ ने भारत के सामने एक और प्रस्ताव रखा है। क्या है वह प्रस्ताव,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
इस बारे मे हम कल की मुलाकात मे चर्चा करेगें। आशा है हम कल फिर मिलेगें।
इस प्रकार युद्ध विराम के समय तक कश्मीर का 86,023वर्ग किलोमीटर हिस्सा पाकिस्तान के अधिकार में जा चुका था। 1963 में पाकिस्तान ने सक्सगाम का 2060 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र चीन को सौंप दिया।
पाकिस्तान का कहना है कि कश्मीर को दोष देता है और कहता है कि यह एक विवादाग्रस्त क्षेत्र है। पर सच्चाई तो यह है कि विवाद की जड़ कश्मीर नहीं बल्कि पाकिस्तान का कश्मीर पर अकारण हमला है। शुरूआत में तो पाकिस्तान ने यह मानने से इंकार कर दिया कि उसके सैनिक कश्मीर में हैं परन्तु बाद में उसने सहमति जताई। संयुक्त राष्ट्र संघ आयोग ने उसे सैनिक हटाने को कहा है पर अभी तक उसने अपने सैनिक नहीं हटाऐ हैं।
पाकिस्तान ने 1965 और 1971 में कश्मीर में हमले की विफलता के पश्चात उसने नयी चाल चली। उसने पंजाब में आतंकवाद के तार बिछाने शुरू किये। पूरे पंजाब में आतंकवाद की ज्वाला धधकाई और जम्मू-कश्मीर में भारत के विरूद्ध छद्म युद्ध आरम्भ कर दिया। उसने पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में जगह जगह आतंकवादी प्रशिक्षण संस्थान स्थापित किये। और इसका सबूत है वहां पुलिस द्वारा बरामद किये गये भारी मात्रा में अत्याधुनिक हथियार।
हर बार हमले में मुंह की खाने के बाद अब पाकिस्तान क्या चाहता है। यह भी महत्वपूर्ण प्रश्न है।पाकिस्तान के पास कश्मीर को अपने अधिकार में रखने के क्या कारण हैं? इस बहस को सुलझाने के लिये परवेज मुशर्रफ ने भारत के सामने एक और प्रस्ताव रखा है। क्या है वह प्रस्ताव,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
इस बारे मे हम कल की मुलाकात मे चर्चा करेगें। आशा है हम कल फिर मिलेगें।
रविवार, 25 नवंबर 2007
कश्मीर: खूबसूरती ही बनी अभिशाप
सुना था कि कभी कभी किसी की सुन्दरता ही उसके पतन का कारण बन जाती है। कश्मीर की किस्मत भी शायद कुछ ऐसी ही रही है। आज मैं आपको कश्मीर की कहानी सुनाने जा रही हूं। कैसे कश्मीर दो देशों के बीच दुश्मनी का कारण बन गया और वह कौन लोग हैं जो इस विवाद को जन्मदाता थे? मेरी इस कहानी में शायद आपको आपके बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाऐ।
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे के तुरन्त बाद से पाकिस्तान किसी भी तरह जम्मू-कश्मीर पर अपना कब्जा चाहता था। इस उद्वेश्य को पूरा करने के लिये वह कश्मीर पर तीन बार 1947, 1965, 1971 और 1999 हमला भी कर चुका है।परन्तु हर बार हमले में विफल होने पर वह कश्मीर को अधिकार में लेने के लिये नई युक्तियों और तिकड़मों का सहारा ले रहा है।
बंटवारे के समय भारत के अंतिम गर्वनर जनरल और वाइसराय लार्ड लुई माउन्टबेन ने कश्मीर के तत्कालीन महाराजा को सलाह दी थी कि वह 15 अगस्त 1947 से पहले भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल हो जाऐं। पर कश्मीर के राजा निर्धारित समय पर कोई फैसला नहीं ले सके। उन्होनें भारत और पाकिस्तान दोनो के साथ व्यापार, संचार और अन्य सेवाओं को पहले की तरह बनाऐ रखने के लिये यथास्थिति बनाऐ रखने का प्रस्ताव किया। पाकिस्तान ने प्रस्ताव को स्वीकार करते हुऐ उनके साथ यथास्थिति बनाऐ रखी। पर पाकिस्तान के इस समझौते को स्वीकार करने के पीछे भी बहुत बड़ा उदृदेश्य था। वह किसी भी तरह जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करना चाहता था। इसके लिये उसने सबसे पहले समझौते का उल्लघंन करते हुऐ कश्मीर को आवश्यक वस्तुओं- खाद्यान्न, पेट्रोल, दवाई आदि की आपूर्ति रोकी और फिर उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त के अफरीदी कबाइलियों को जिहाद के नाम पर भड़का कर कश्मीर में रक्तपात, लूटपाट और आगजनी का सूत्र बनाकर भेजा। इन कबाइलियों को हथियार, गोलाबारूद और परिवहन की सुविधा के लिये पाकिस्तान ने उनके साथ अपनी सेना के कुछ अफसरों को कबाइली वेश-भूषा मे भेजा। इन कबाइलियों ने सियालकोट, श्रीनगर मार्ग मे बढ़ते हुऐ कश्मीर में रक्तपात और बलात्कार और आगजनी का ताण्डव नृत्य शुरू कर दिया। 23 अक्टूबर तक ये लोग श्रीनगर से केवल 30 मील दूर रह गये थे। रियासत की सेना और पुलिस पग पग पर उनका सामना कर रही थी। लेकिल कबाइलियों की विशाल संख्या के सामने वह कमजोर पड़ रही थी।
इस स्थिति में कश्मीर की जनता के जान माल की रक्षा के लिये कश्मीर के राजा हरि सिहं ने 26 अक्टूबर 1942 को भारतीय संघ मे विलय होने के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। 27 अक्टूबर को भारतीय सेना श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरना और पाकिस्तानी हमलावरों को पीछे धकेलना शुरू कर दिया।
कश्मीर पर पाकिस्तान के इस अचानक और अकारण हमले के विरूद्ध भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद मे शिकायत की। तब सुरक्षा परिषद ने दोनों पक्षों से 31 दिसम्बर 1948 से युद्ध विराम करने को कहा। इसी के साथ भारत-पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र आयोग ने अपने 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव के अंतर्गत पाकिस्तान से जम्मू कश्मीर से अपनी सेनाऐं, अनियमित लड़ाकों और बाहरी लोगों को वापिस बुलाने को कहा। साथ ही भारत को शांति बनाऐ रखने के लिये सेना रखने की अनुमति भी दी गयी।
क्या इसके बाद कश्मीर में सचमुच शांति बहाल हो गयी और कैसे कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे मे चला गया? इस रहस्य से हम कल पर्दा उठायेगें।आशा करती हूं कि आप मेरे साथ बने रहेंगें,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे के तुरन्त बाद से पाकिस्तान किसी भी तरह जम्मू-कश्मीर पर अपना कब्जा चाहता था। इस उद्वेश्य को पूरा करने के लिये वह कश्मीर पर तीन बार 1947, 1965, 1971 और 1999 हमला भी कर चुका है।परन्तु हर बार हमले में विफल होने पर वह कश्मीर को अधिकार में लेने के लिये नई युक्तियों और तिकड़मों का सहारा ले रहा है।
बंटवारे के समय भारत के अंतिम गर्वनर जनरल और वाइसराय लार्ड लुई माउन्टबेन ने कश्मीर के तत्कालीन महाराजा को सलाह दी थी कि वह 15 अगस्त 1947 से पहले भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल हो जाऐं। पर कश्मीर के राजा निर्धारित समय पर कोई फैसला नहीं ले सके। उन्होनें भारत और पाकिस्तान दोनो के साथ व्यापार, संचार और अन्य सेवाओं को पहले की तरह बनाऐ रखने के लिये यथास्थिति बनाऐ रखने का प्रस्ताव किया। पाकिस्तान ने प्रस्ताव को स्वीकार करते हुऐ उनके साथ यथास्थिति बनाऐ रखी। पर पाकिस्तान के इस समझौते को स्वीकार करने के पीछे भी बहुत बड़ा उदृदेश्य था। वह किसी भी तरह जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करना चाहता था। इसके लिये उसने सबसे पहले समझौते का उल्लघंन करते हुऐ कश्मीर को आवश्यक वस्तुओं- खाद्यान्न, पेट्रोल, दवाई आदि की आपूर्ति रोकी और फिर उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त के अफरीदी कबाइलियों को जिहाद के नाम पर भड़का कर कश्मीर में रक्तपात, लूटपाट और आगजनी का सूत्र बनाकर भेजा। इन कबाइलियों को हथियार, गोलाबारूद और परिवहन की सुविधा के लिये पाकिस्तान ने उनके साथ अपनी सेना के कुछ अफसरों को कबाइली वेश-भूषा मे भेजा। इन कबाइलियों ने सियालकोट, श्रीनगर मार्ग मे बढ़ते हुऐ कश्मीर में रक्तपात और बलात्कार और आगजनी का ताण्डव नृत्य शुरू कर दिया। 23 अक्टूबर तक ये लोग श्रीनगर से केवल 30 मील दूर रह गये थे। रियासत की सेना और पुलिस पग पग पर उनका सामना कर रही थी। लेकिल कबाइलियों की विशाल संख्या के सामने वह कमजोर पड़ रही थी।
इस स्थिति में कश्मीर की जनता के जान माल की रक्षा के लिये कश्मीर के राजा हरि सिहं ने 26 अक्टूबर 1942 को भारतीय संघ मे विलय होने के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। 27 अक्टूबर को भारतीय सेना श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरना और पाकिस्तानी हमलावरों को पीछे धकेलना शुरू कर दिया।
कश्मीर पर पाकिस्तान के इस अचानक और अकारण हमले के विरूद्ध भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद मे शिकायत की। तब सुरक्षा परिषद ने दोनों पक्षों से 31 दिसम्बर 1948 से युद्ध विराम करने को कहा। इसी के साथ भारत-पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र आयोग ने अपने 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव के अंतर्गत पाकिस्तान से जम्मू कश्मीर से अपनी सेनाऐं, अनियमित लड़ाकों और बाहरी लोगों को वापिस बुलाने को कहा। साथ ही भारत को शांति बनाऐ रखने के लिये सेना रखने की अनुमति भी दी गयी।
क्या इसके बाद कश्मीर में सचमुच शांति बहाल हो गयी और कैसे कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे मे चला गया? इस रहस्य से हम कल पर्दा उठायेगें।आशा करती हूं कि आप मेरे साथ बने रहेंगें,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
शनिवार, 24 नवंबर 2007
हरे मोदी हरे गुजरात
आजकल भारतीय जनता पार्टी यह राग अलापते नजर आ रही है। और इस नवीन रचना के रचियता है नरेन्द्र मोदी। भाजपा यह अच्छी तरह से जानती है कि आने वाले गुजरात के विधानसभा चुनावों मे अगर कोई उन्हे जीत का सेहरा बंधा सकता है तो वह नरेन्द्र मोदी ही हैं। यह कहना गलत ना होगा कि आज नरेन्द्र मोदी का कद गुजरात से ऊंचा हो गया है। इस समय भाजपा मोदी के बगैर जीतना तो दूर चुनाव के मैदान में उतरने की भी नहीं सोच सकती।
गुजरात में अगले माह होने जा रहे विधान सभा चुनावों में स्थिति कुछ ऐसी बनी हुई है कि मैदान में एक तरफ नरेन्द्र मोदी हैं और दूसरी ओर बाकी सभी पार्टियां। और मोदी हर तरह से सब पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। और इन सब के पीछे है गुजरात की जनता का वह विश्वास जो उन्होने अपने मुख्यमंत्री पर जताया है। वैसे गुजरात की जनता के मोदी पर भरोसा जताने के कारण भी हैं। वह मोदी ही हैं जिन्होनें गुजरात को देश का सबसे श्रेष्ठ राज्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
जब 2001 में नरेन्द्र मोदी ने कार्यभार संभाला था तो उस समय पूरा प्रदेश जनवरी में आये भूकम्प की मार से ग्रस्त था। सूखे का प्रकोप कुछ ऐसा था कि सारा राज्य रेगिस्तान बनता जा रहा था। पर मोदी ने माली बनकर अपने इस उजड़े हुऐ बाग को फिर से सजाया संवारा। उन्होने राज्य में कई कुऐं खुदवाऐ, तालाबों का पुन:निमार्ण कराया। और उनकी मेहनत रंग लायी। आज मोदी का बगीचा फिर से हरा-भरा हो गया है। इतना कि देश के शेष सभी राज्यों के लिये वह मॉडल प्रदेश बन गया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि नरेन्द्र मोदी एक सफल मुख्यमंत्री रहे हैं और अपने लक्ष्यों के प्रति उनमें अर्जुन जैसी निष्ठा भी है। उन्होनें गुजरात को आर्थिक रूप से काफी मजबूत किया है। उन्होने राज्य में बिजली, पानी, और बालिका शिक्षा जैसी समस्याओं को दूर करने के लिये बहुत मेहनत भी की है।
यहां तक कि भाजपा भी पूरी तरह से मोदी पर ही आस लगाये है। यह भी सच है कि मोदी के पार्टी से हटते ही भाजपा रेत के टीले की तरह ढ़ह जाऐगी।एक कड़वा सच यह भी है कि नरेन्द्र मोदी के शत्रुओं की गिनती दूसरे दलों के साथ साथ स्वयं भाजपा में भी है।परन्तु वह एक सफल रणनीतिकार हैं और अपने शत्रुओं के फन को कुचलना वह अच्छी तरह जानते हैं। ठीक चुनाव से पहले उनके लिये उनके शत्रुओं ने उनके लिये कई तरह की समस्याऐं पैदा करने को तमाम कोशिशें भी की पर नरेन्द मोदी के जादू के सामने सब कुछ व्यर्थ रहा। वह सचमुच किसी जादूगर से कम नहीं हैं।
वर्तमान परिदृश्य से तो यही संकेत मिल रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी मजबूत स्थिति में है और कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मोदी अपने दम पर गुजरात में चुनाव जीतने की हिम्मत रखते हैं। अपनी पार्टी से ना ही वह कोई उम्मीद रखते है और ना ही कोई आशा। और यदि वह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं तो इसका श्रेय भी उनके द्वारा किये गये विकास कार्यों को जाता है।
गुजरात में अगले माह होने जा रहे विधान सभा चुनावों में स्थिति कुछ ऐसी बनी हुई है कि मैदान में एक तरफ नरेन्द्र मोदी हैं और दूसरी ओर बाकी सभी पार्टियां। और मोदी हर तरह से सब पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। और इन सब के पीछे है गुजरात की जनता का वह विश्वास जो उन्होने अपने मुख्यमंत्री पर जताया है। वैसे गुजरात की जनता के मोदी पर भरोसा जताने के कारण भी हैं। वह मोदी ही हैं जिन्होनें गुजरात को देश का सबसे श्रेष्ठ राज्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
जब 2001 में नरेन्द्र मोदी ने कार्यभार संभाला था तो उस समय पूरा प्रदेश जनवरी में आये भूकम्प की मार से ग्रस्त था। सूखे का प्रकोप कुछ ऐसा था कि सारा राज्य रेगिस्तान बनता जा रहा था। पर मोदी ने माली बनकर अपने इस उजड़े हुऐ बाग को फिर से सजाया संवारा। उन्होने राज्य में कई कुऐं खुदवाऐ, तालाबों का पुन:निमार्ण कराया। और उनकी मेहनत रंग लायी। आज मोदी का बगीचा फिर से हरा-भरा हो गया है। इतना कि देश के शेष सभी राज्यों के लिये वह मॉडल प्रदेश बन गया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि नरेन्द्र मोदी एक सफल मुख्यमंत्री रहे हैं और अपने लक्ष्यों के प्रति उनमें अर्जुन जैसी निष्ठा भी है। उन्होनें गुजरात को आर्थिक रूप से काफी मजबूत किया है। उन्होने राज्य में बिजली, पानी, और बालिका शिक्षा जैसी समस्याओं को दूर करने के लिये बहुत मेहनत भी की है।
यहां तक कि भाजपा भी पूरी तरह से मोदी पर ही आस लगाये है। यह भी सच है कि मोदी के पार्टी से हटते ही भाजपा रेत के टीले की तरह ढ़ह जाऐगी।एक कड़वा सच यह भी है कि नरेन्द्र मोदी के शत्रुओं की गिनती दूसरे दलों के साथ साथ स्वयं भाजपा में भी है।परन्तु वह एक सफल रणनीतिकार हैं और अपने शत्रुओं के फन को कुचलना वह अच्छी तरह जानते हैं। ठीक चुनाव से पहले उनके लिये उनके शत्रुओं ने उनके लिये कई तरह की समस्याऐं पैदा करने को तमाम कोशिशें भी की पर नरेन्द मोदी के जादू के सामने सब कुछ व्यर्थ रहा। वह सचमुच किसी जादूगर से कम नहीं हैं।
वर्तमान परिदृश्य से तो यही संकेत मिल रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी मजबूत स्थिति में है और कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मोदी अपने दम पर गुजरात में चुनाव जीतने की हिम्मत रखते हैं। अपनी पार्टी से ना ही वह कोई उम्मीद रखते है और ना ही कोई आशा। और यदि वह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हैं तो इसका श्रेय भी उनके द्वारा किये गये विकास कार्यों को जाता है।
गुरुवार, 22 नवंबर 2007
एक बार फिर हुई मानवता शर्मसार
अभी कुछ दिनों पहले एक ऐसी खबर पढ़ने में आयी जिसे पढ़कर मेरी पलकों ने कुछ सेकेण्ड के लिये झपकना बंद कर दिया।मानव जाति का इतना घिनौना रूप मैनें आज से पहले कभी नहीं देखा था। खबर थी कि पश्चिम बंगाल के एक छोटे से राज्य किसयझियौरा में एक अफजुद्वीन नामक एक आदमी ने दूसरी शादी कर ली।और वह भी अपनी ही सगी बेटी के साथ। इस बात का राज सबके सामने तब खुला जब लोगों को पता चला कि उसकी लड़की पांच माह की गर्भवती है। मानवीय रिश्तों का इससे बड़ा अपमान तो हो ही नहीं सकता। और उससे भी शर्मनाक बात यह है कि उसकी पहली पत्नी और उस लड़की की मां अभी तक जिन्दा है और उसे इस बात में कोई बुराई नजर नहीं आती। उसका कहना है कि उसका पति एक धार्मिक आदमी है और वह ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जो अल्लाह की मर्जी के खिलाफ हो। परन्तु उसके गांव वाले उसे खासे नाराज हैं और उन्होने उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कर दी है।
कहने को तो हम एक आधुनिक युग में जी रहे हैं और एक सभ्य समाज के सदस्य होने का दावा भी करते हैं। पर जब इस तरह की घटनाऐं सामने आती हैं तो हमारे सारे दावे खोखले और बनावटी नजर आते हैं। इसका एक सबसे बड़ा कारण जो मुझे नजर आता है वह यह कि हम आगे तो बढ़ रहे हैं पर एक जुट होकर नहीं। अर्थात हमारे देश में समाज का एक वर्ग जो कि शिक्षित है आगे बढ़ रहा है उसकी सोच भी बदल रही है परन्तु दूसरा वर्ग जो कि अभी भी शिक्षा से कोसों दूर है,वहीं खड़ा हुआ है जहां आज से 50-100 साल पहले खड़ा था। उसकी पुरानी मान्यताऐं और रूढ़ीवादी सोच ज्यों कि त्यों है। उसकी नजरों में स्त्री आज भी केवल उपभोग की वस्तु है।
हमारा आधुनिक समाज और इसके सभ्य लोग सुनीता विलियम्स के भारतीय स्त्री होने पर गर्व तो करता है और उसके सम्मान में ताली भी बजा सकता है परन्तु देश में हो रही कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अंगुली उठाने में कतराता है। और अपने ही घर में कन्या पैदा होने पर भी उसे कोई खास खुशी नहीं होती।
हमारा पढ़ा-लिखा समाज में कहीं ना कहीं आज भी पुरानी मान्यताऐं जीवित हैं। इसे हम एक छोटे से उदाहरण से समझ सकते हैं। हमारे समाज में यदि कोई व्यक्ति जब अपने बच्चों के भविष्य के लिये धन बचत सम्बन्धी कोई योजना अपनाता है तो वह योजना सदैव बेटी के लिये उसके विवाह से और बेटे के लिये सदैव उसकी पढ़ाई से जुड़ी होती है।क्या बेटियों की शिक्षा के लिये धन नहीं जोडा जा सकता।
इसी तरह और भी कई मसले हैं जो सुलझाये जाने बहुत आवश्यक हैं।यदि हम सही मायनों मे उन्नित करना चाहते हैं तो इस तरह की घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाना अतिआवश्यक है। लोगों की इस तरह की गलत और रूढ़ीवादी विचार धारा को बदले जाने के लिये हमारे समाज के हर तबके को जागरूक करना बहुत जरूरी है जिसके लिये सर्व जन शिक्षा को प्राथमिकता दिया जाना आवश्यक है। ताकि हमें भविष्य में इस तरह की अमानवीय घटनाओं से पुन: रूवरू ना होना पड़े।
कहने को तो हम एक आधुनिक युग में जी रहे हैं और एक सभ्य समाज के सदस्य होने का दावा भी करते हैं। पर जब इस तरह की घटनाऐं सामने आती हैं तो हमारे सारे दावे खोखले और बनावटी नजर आते हैं। इसका एक सबसे बड़ा कारण जो मुझे नजर आता है वह यह कि हम आगे तो बढ़ रहे हैं पर एक जुट होकर नहीं। अर्थात हमारे देश में समाज का एक वर्ग जो कि शिक्षित है आगे बढ़ रहा है उसकी सोच भी बदल रही है परन्तु दूसरा वर्ग जो कि अभी भी शिक्षा से कोसों दूर है,वहीं खड़ा हुआ है जहां आज से 50-100 साल पहले खड़ा था। उसकी पुरानी मान्यताऐं और रूढ़ीवादी सोच ज्यों कि त्यों है। उसकी नजरों में स्त्री आज भी केवल उपभोग की वस्तु है।
हमारा आधुनिक समाज और इसके सभ्य लोग सुनीता विलियम्स के भारतीय स्त्री होने पर गर्व तो करता है और उसके सम्मान में ताली भी बजा सकता है परन्तु देश में हो रही कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अंगुली उठाने में कतराता है। और अपने ही घर में कन्या पैदा होने पर भी उसे कोई खास खुशी नहीं होती।
हमारा पढ़ा-लिखा समाज में कहीं ना कहीं आज भी पुरानी मान्यताऐं जीवित हैं। इसे हम एक छोटे से उदाहरण से समझ सकते हैं। हमारे समाज में यदि कोई व्यक्ति जब अपने बच्चों के भविष्य के लिये धन बचत सम्बन्धी कोई योजना अपनाता है तो वह योजना सदैव बेटी के लिये उसके विवाह से और बेटे के लिये सदैव उसकी पढ़ाई से जुड़ी होती है।क्या बेटियों की शिक्षा के लिये धन नहीं जोडा जा सकता।
इसी तरह और भी कई मसले हैं जो सुलझाये जाने बहुत आवश्यक हैं।यदि हम सही मायनों मे उन्नित करना चाहते हैं तो इस तरह की घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाना अतिआवश्यक है। लोगों की इस तरह की गलत और रूढ़ीवादी विचार धारा को बदले जाने के लिये हमारे समाज के हर तबके को जागरूक करना बहुत जरूरी है जिसके लिये सर्व जन शिक्षा को प्राथमिकता दिया जाना आवश्यक है। ताकि हमें भविष्य में इस तरह की अमानवीय घटनाओं से पुन: रूवरू ना होना पड़े।
बुधवार, 21 नवंबर 2007
छोटे शहरों की आंखों मे पल रहे हैं बड़े सपने
कहीं पढ़ा था कि शहर वह जगह है, जहां बिल्डर पहले तो पेड़ गिराते हैं और उनके नाम पर शहर की सड़कों का नाम करण करते हैं। और इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आगे आने वाला समय शहरों का है। खासकर भारत जैसे विकासशील देश में तो आंकड़े भी इस बात की गवाही दे रहे हैं। अभी किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक हमारे 11 शहर दुनिया के सबसे तेजी से विकसित हो रहे शहरों मे शामिल किये जा चुके हैं।पर इस से भी विशेष और हैरान करने वाली बात यह है कि इन 11 शहरों मे दिल्ली, मुम्बई जैसे किसी महानगर का नाम शामिल नहीं है। इस सूची मे जगह पाने वाले शहर वह हैं जिन्हें हम छोटे शहर के नाम से जानते हैं। इनमे कई नाम तो ऐसे हैं जिनका नाम भी आपने पहली बार सुना होगा। लेकिन यही सच है कि इन्हीं छोटे शहरों में विकास की धारा तेजी से बह रही है।
हालांकि इनमे से कई शहर औद्योगिक रूप से पहले से ही विकसित हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनकी आबादी मे जिस तेजी से बढ़ोतरी हुई है, वह अभूतपूर्व है। यदि इसी गति से शहरीकरण होता रहा, तो 2021 तक देश की आधी से ज्यादा आबादी शहरों में रहेगी। सिर्फ शहरों की संख्या ही नहीं बढ़ रही है, बल्कि उनके उपभोग के तरीकों और जीवनशैली में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। दैनिक जरूरतों से लेकर इंटरनेट तक का सबसे तेजी से विकास छोटे और गैर-मेट्रो शहरों मे हो रहा है।
देखा जाये तो इंटरनेट उपयोग करने वाले लोगों की गिनती में महानगर अब भी आगे है, लेकिन उपभोगकर्ताओं की संख्या मे बढ़ोतरी की दर के आधार पर अगर देखा जाये, तो छोटे शहर काफी आगे निकल गये हैं। वर्ष 2000 मे 14 लाख इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में मेट्रोवासियों की संख्या10 लाख से ज्यादा थी, जबकि 2007 में छह करोड़ उपयोगकर्ताओं में महानगरवासियों की संख्या सिर्फ 37 फीसदी है, शेष उपयोगकर्ता छोटे शहरों से हैं। दरअसल, बड़े शहरों और महानगरों में प्रापर्टी की अनुपलब्धता और ऊंची कीमतों और मंहगी मजदूरी के कारण कई उद्योग छोटे शहरों की ओर रूख कर रहे हैं। खासकर अर्थव्यवस्था में तेजी से बढ़ता हुआ सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग भी तेजी से छोटे शहरों की तरफ जा रहा है।
लेकिन जिस गति से हमारे यहां शहरीकरण हो रहा है, उसकी वजह से ढेरों समस्याऐं भी पैदा हो रही हैं। हमें आर्थिक विकास में तेजी तो दिख रही है, लेकिन पर्यावरण की रक्षा और बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिहाज से हमारे शहर काफी पिछड़े हुऐ हैं। छोटे शहर ही क्यों, इस मामले में तो हमारे महानगरों की हालत तो और खराब है। आज नही तो कल, बुनियादी सुविधाओं की कमी एक बड़ी बनकर उभरेगी।इसलिये यह बहुत जरूरी है कि समय रहते उन कमियों को दूर कर लिया जाऐ ताकि भविष्य की परेशानियों से बचा जा सके।
हालांकि इनमे से कई शहर औद्योगिक रूप से पहले से ही विकसित हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उनकी आबादी मे जिस तेजी से बढ़ोतरी हुई है, वह अभूतपूर्व है। यदि इसी गति से शहरीकरण होता रहा, तो 2021 तक देश की आधी से ज्यादा आबादी शहरों में रहेगी। सिर्फ शहरों की संख्या ही नहीं बढ़ रही है, बल्कि उनके उपभोग के तरीकों और जीवनशैली में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। दैनिक जरूरतों से लेकर इंटरनेट तक का सबसे तेजी से विकास छोटे और गैर-मेट्रो शहरों मे हो रहा है।
देखा जाये तो इंटरनेट उपयोग करने वाले लोगों की गिनती में महानगर अब भी आगे है, लेकिन उपभोगकर्ताओं की संख्या मे बढ़ोतरी की दर के आधार पर अगर देखा जाये, तो छोटे शहर काफी आगे निकल गये हैं। वर्ष 2000 मे 14 लाख इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में मेट्रोवासियों की संख्या10 लाख से ज्यादा थी, जबकि 2007 में छह करोड़ उपयोगकर्ताओं में महानगरवासियों की संख्या सिर्फ 37 फीसदी है, शेष उपयोगकर्ता छोटे शहरों से हैं। दरअसल, बड़े शहरों और महानगरों में प्रापर्टी की अनुपलब्धता और ऊंची कीमतों और मंहगी मजदूरी के कारण कई उद्योग छोटे शहरों की ओर रूख कर रहे हैं। खासकर अर्थव्यवस्था में तेजी से बढ़ता हुआ सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग भी तेजी से छोटे शहरों की तरफ जा रहा है।
लेकिन जिस गति से हमारे यहां शहरीकरण हो रहा है, उसकी वजह से ढेरों समस्याऐं भी पैदा हो रही हैं। हमें आर्थिक विकास में तेजी तो दिख रही है, लेकिन पर्यावरण की रक्षा और बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिहाज से हमारे शहर काफी पिछड़े हुऐ हैं। छोटे शहर ही क्यों, इस मामले में तो हमारे महानगरों की हालत तो और खराब है। आज नही तो कल, बुनियादी सुविधाओं की कमी एक बड़ी बनकर उभरेगी।इसलिये यह बहुत जरूरी है कि समय रहते उन कमियों को दूर कर लिया जाऐ ताकि भविष्य की परेशानियों से बचा जा सके।
मंगलवार, 20 नवंबर 2007
बायो ईंधन का होगा जमाना
सारी दुनिया आजकल वैकल्पिक ईंधन की तलाश में जुटी हुई है, पर इधर जब से तेल की कीमतें चढ़ी हैं,इस बारे में और जोरों से विचार विमर्श शुरू हुआ है कि आखिर यह विकल्प क्या होगा। हमें सौर ऊर्जा की तरफ बढना चाहिये, एटमी विकल्प पर जोर आजमाइश करनी चाहियेया फिर उस बायो ईंधन के बारे में सोचना चाहिये, जिसका इस्तेमाल दुनिया के कई देश करने लगे हैं और जिसे हम लोग अपने खेतों में आसानी से उगा सकते हैं। पर्यावरण के अनूकूल होने की वजह से बायो ईंधन का आकर्षण भी बहुत है।पेट्रोल-डीजल की बढ़ती खपत एक तो ग्लोबल समस्या में इजाफा करके हमें प्रदूषण से भरे डरावने कल की ओर ले जा रही है, तो दूसरी ओर इसकी दिनोदिन बढती कीमत बायो ईंधन की जरूरत दर्शा रही है।
कहने को तो हाइड्रोजन, सौर ऊर्जा, एटमी एनर्जी, पवन ऊर्जा सरीखे तमाम विकल्प हो सकते हैं। पर जहां एटमी एनर्जी की अपनी दिक्कतें हैं, वहीं हाइड्रोजन ऊर्जा अभी जैव ईंधन की तरह कारगर नहीं है। सौर और पवन ऊर्जा जुटाने का तो इतना तामझाम है कि उनसे आज की जरूरतों के हिसाब से ऊर्जा हासिल करने की कोशिश हो, तो शायद पूरी दुनिया की जमीन सोलर और विंड एनर्जी के पैनलों और पंखों से ढ़क जाये। ऐसे में एक बड़ी उम्मीद गन्ना, मक्का से लेकर सोयाबीन, जटरोफा, रेपसीड, पाम और अन्य कई पेड़-पौधों से हासिल हो सकने वाले ईंधन से है, जिसे बायो ईंधन कहा जाता है। यह चूंकि एक पर्यावरण मित्र ईंधन है, इसलिये इसमें प्रत्यक्षत: कोई हानि नजर नहीं आती है।
परन्तु हर बात के दो पहलू अवश्य होते हैं। बायो ईंधन के खतरे भी हैं। आलोचकों का कहना है कि ऐसे ईंधन का क्या लाभ, जो जंगलो का सफाया करवाते हुऐ पर्यावरण का नया संकट पैदा कर रहा है। और ऐसा भी बायो ईंधन क्या, जिसे हासिल करने के क्रम में हम अपने भोजन से भी वंचित रह जाऐं? बायो ईंधन हासिल करने के लिये इंडोनेशिया और मलेशिया मे पाम की रोपाई के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। खतरा यह भी यह है कि जिन अनाज फसलो का इस्तेमाल इंसान के भोजन के रूप में होता है, अगर उनका प्रयोग बायो ईंधन के रूप मे होने लगा, तो ऐसी फसलों-अनाजों की कीमतें कहां जाऐंगी? अमेरिका मे गत वर्ष मक्के की कीमत मे 50 फीसदी का इजाफा हुआ,तो सोयाबीन की कीमतों मे भी 30% तक की बढ़ोतरी होने की आशंका है। हांलाकि पूरी दुनिया मे एक सा माहौल नहीं है। जिन देशों मे गन्ने से एथेनांल हासिल किया जा रहा है, वहां दूसरी फसलों की कीमतें नहीं बढ़ रही।
अगर भारत की बात की जाये तो हमारे यहां गन्ने की भरपूर खेती है। यानि कि हमें एथेनांल के लिये अलग से खेती करने की जरूरत नही। फिर बायो ईंधन के एक अन्य स्त्रोत जटरोफा की खेती के बंजी जमीनों के लिये की जा रही है। इसलिये भारत में तो फिलहाल को समस्या पैदा होती नजर नहीं आ रही है। दरअसल भारत मे खतरे दूसरी किस्म के हैं। पर्यावरणविद् बता रहे हैं कि बायो ईंधन के लिये जिन बंजर जमीनों की बात हो रही है, वे जमीने पूरी तरह से बंजर नहीं होती। कभी उन जगहों पर जंगल हुआ करते थे।जंगल साफ करने से जो सामान्य भूमि मिलती है, कायदे से उसका इस्तेमाल स्थानीय किसान अपनी विविध जरूरतों के लिये करते हैं।पर अगर दैनिक उपभोग की वे सभी चीजें वहां से हटा दी गयीं और केवल जटरोफा की पैदावार की जाऐं तो वहां की सामाजिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वस्तुत: हमें अगर अमेरिका की तरह अच्छी क्वालिटी के एथेनांल की आवश्यकता पड़ी, तो वह मक्के से ही मिलेगा।उससे ग्रीन हाउस गैस भी कम निकलती है। लिहाजा हमे जटरोफा और गन्ने की जगह बड़े पैमाने पर मक्का उगाना पड़ेगा।
कहने को तो हाइड्रोजन, सौर ऊर्जा, एटमी एनर्जी, पवन ऊर्जा सरीखे तमाम विकल्प हो सकते हैं। पर जहां एटमी एनर्जी की अपनी दिक्कतें हैं, वहीं हाइड्रोजन ऊर्जा अभी जैव ईंधन की तरह कारगर नहीं है। सौर और पवन ऊर्जा जुटाने का तो इतना तामझाम है कि उनसे आज की जरूरतों के हिसाब से ऊर्जा हासिल करने की कोशिश हो, तो शायद पूरी दुनिया की जमीन सोलर और विंड एनर्जी के पैनलों और पंखों से ढ़क जाये। ऐसे में एक बड़ी उम्मीद गन्ना, मक्का से लेकर सोयाबीन, जटरोफा, रेपसीड, पाम और अन्य कई पेड़-पौधों से हासिल हो सकने वाले ईंधन से है, जिसे बायो ईंधन कहा जाता है। यह चूंकि एक पर्यावरण मित्र ईंधन है, इसलिये इसमें प्रत्यक्षत: कोई हानि नजर नहीं आती है।
परन्तु हर बात के दो पहलू अवश्य होते हैं। बायो ईंधन के खतरे भी हैं। आलोचकों का कहना है कि ऐसे ईंधन का क्या लाभ, जो जंगलो का सफाया करवाते हुऐ पर्यावरण का नया संकट पैदा कर रहा है। और ऐसा भी बायो ईंधन क्या, जिसे हासिल करने के क्रम में हम अपने भोजन से भी वंचित रह जाऐं? बायो ईंधन हासिल करने के लिये इंडोनेशिया और मलेशिया मे पाम की रोपाई के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। खतरा यह भी यह है कि जिन अनाज फसलो का इस्तेमाल इंसान के भोजन के रूप में होता है, अगर उनका प्रयोग बायो ईंधन के रूप मे होने लगा, तो ऐसी फसलों-अनाजों की कीमतें कहां जाऐंगी? अमेरिका मे गत वर्ष मक्के की कीमत मे 50 फीसदी का इजाफा हुआ,तो सोयाबीन की कीमतों मे भी 30% तक की बढ़ोतरी होने की आशंका है। हांलाकि पूरी दुनिया मे एक सा माहौल नहीं है। जिन देशों मे गन्ने से एथेनांल हासिल किया जा रहा है, वहां दूसरी फसलों की कीमतें नहीं बढ़ रही।
अगर भारत की बात की जाये तो हमारे यहां गन्ने की भरपूर खेती है। यानि कि हमें एथेनांल के लिये अलग से खेती करने की जरूरत नही। फिर बायो ईंधन के एक अन्य स्त्रोत जटरोफा की खेती के बंजी जमीनों के लिये की जा रही है। इसलिये भारत में तो फिलहाल को समस्या पैदा होती नजर नहीं आ रही है। दरअसल भारत मे खतरे दूसरी किस्म के हैं। पर्यावरणविद् बता रहे हैं कि बायो ईंधन के लिये जिन बंजर जमीनों की बात हो रही है, वे जमीने पूरी तरह से बंजर नहीं होती। कभी उन जगहों पर जंगल हुआ करते थे।जंगल साफ करने से जो सामान्य भूमि मिलती है, कायदे से उसका इस्तेमाल स्थानीय किसान अपनी विविध जरूरतों के लिये करते हैं।पर अगर दैनिक उपभोग की वे सभी चीजें वहां से हटा दी गयीं और केवल जटरोफा की पैदावार की जाऐं तो वहां की सामाजिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वस्तुत: हमें अगर अमेरिका की तरह अच्छी क्वालिटी के एथेनांल की आवश्यकता पड़ी, तो वह मक्के से ही मिलेगा।उससे ग्रीन हाउस गैस भी कम निकलती है। लिहाजा हमे जटरोफा और गन्ने की जगह बड़े पैमाने पर मक्का उगाना पड़ेगा।
गुरुवार, 15 नवंबर 2007
अंग्रेजी भाषा या आत्महत्या कौन सा विकल्प चुनेगें आप?
अगर मैं आपसे पूछूं कि आप कितनी भाषाओं का ज्ञान रखते हैं तो आप भले ही कितनी भाषाओं का नाम क्यों ना ले लें परन्तु कदाचित आपने अगर अंग्रेजी का नाम नहीं लिया तो समझिये कि आपका ज्ञान अधूरा और व्यर्थ है।यह ना समझियेगा कि यह विचार मेरे हैं।यह वह कड़वा सत्य है जिसे शायद बी टेक द्वितीय वर्ष का वह छात्र नहीं सहन कर पाया और अंग्रेजी ना जानने अपराध उसे आत्महत्या के अपराध से कहीं बड़ा जान पड़ा।पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर निवासी उस छात्र के इस मेधावी छात्र के इंजीनियर बनने के ख्वाब को अंग्रेजी भाषा की अज्ञानता ने चकनाचूर करके रख दिया।ऐसा ही कुछ इलाहाबाद के एक बैंककर्मी रामबाबू पाल के साथ हुआ।उन्होने भी अपने सुसाइड नोट में यही लिखा कि अंग्रेजी ना जानने के कारण उनके सहकर्मी उनका उपहास करते थे।जिस कारण वह हीन भावना से ग्रस्त थे।तो क्या यह मान लिया जाये कि अंग्रजी भाषा का अज्ञानता का अंतिम विकल्प केवल आत्महत्या है।क्या किसी भाषा को ना जानने की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
कभी हमने सोचा कि ऐसा क्यों हुआ। आजादी की लड़ाई के समय महात्मा गांधी ने जिस हिन्दी को कभी सारे देश को एक सूत्र मे पिरोने का धागा समझा था वही हिन्दी आज अपने ही देश मे परायो सा अनुभव कर रही है।गांधी मानना था कि देश में शिक्षा का माध्यम हिन्दी होना चाहिये।परन्तु देश ने समय के साथ इसे भुला दिया।शायद इसका एक कारण यह भी था कि सारी नयी तकनीकी पुस्तकों को हिन्दी में उपलब्ध कराना पड़ता।जिसके लिये धन की जितनी आवयश्कता थी उससे ज्यादा जरूरत थी संकल्प शक्ति की।पर इसी संकल्प शक्ति की कमी ने नई पीढी के कई योग्य नौजवानों के लिये उन्नित के रास्ते बंद कर दिये।
60 से 70 के दशक मे जो लोग अंग्रेजी हटाओ का नारा दे रहे थे , धीरे-धीरे उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि अंग्रेजी के बिना उनका गुजारा भी असंभव है।परिणाम यह हुआ कि शहर से लेकर गांवों तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के जाल से बिछ गये।नतीजा हिन्दी माध्यम के स्कूल और उसके छात्रों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा।
अगर गौर किया जाये कि यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था भारतीय भाषाओं मे आधुनिक ज्ञान की पुस्तकें उपलब्ध करा सकती तो,देश के कई योग्य व्यक्ति केवल इसलिये आत्महत्या नहीं करते कि वे अंग्रेजी नहीं जानते।
कभी हमने सोचा कि ऐसा क्यों हुआ। आजादी की लड़ाई के समय महात्मा गांधी ने जिस हिन्दी को कभी सारे देश को एक सूत्र मे पिरोने का धागा समझा था वही हिन्दी आज अपने ही देश मे परायो सा अनुभव कर रही है।गांधी मानना था कि देश में शिक्षा का माध्यम हिन्दी होना चाहिये।परन्तु देश ने समय के साथ इसे भुला दिया।शायद इसका एक कारण यह भी था कि सारी नयी तकनीकी पुस्तकों को हिन्दी में उपलब्ध कराना पड़ता।जिसके लिये धन की जितनी आवयश्कता थी उससे ज्यादा जरूरत थी संकल्प शक्ति की।पर इसी संकल्प शक्ति की कमी ने नई पीढी के कई योग्य नौजवानों के लिये उन्नित के रास्ते बंद कर दिये।
60 से 70 के दशक मे जो लोग अंग्रेजी हटाओ का नारा दे रहे थे , धीरे-धीरे उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि अंग्रेजी के बिना उनका गुजारा भी असंभव है।परिणाम यह हुआ कि शहर से लेकर गांवों तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के जाल से बिछ गये।नतीजा हिन्दी माध्यम के स्कूल और उसके छात्रों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा।
अगर गौर किया जाये कि यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था भारतीय भाषाओं मे आधुनिक ज्ञान की पुस्तकें उपलब्ध करा सकती तो,देश के कई योग्य व्यक्ति केवल इसलिये आत्महत्या नहीं करते कि वे अंग्रेजी नहीं जानते।
शनिवार, 3 नवंबर 2007
भेदभाव रोकने के नाम पर बढ़ता भेदभाव
अल्पसंख्यक परिवार के घर में डकैती,दलित महिला के साथ बलात्कार,पिछड़े वर्ग के छात्र के साथ मार-पीट।इस तरह की कई घटनाऐं हम लोग आये दिन अखबारों आदि में पढ़ते रहते हैं।ये घटनाऐं निश्चित रूप से समाज के लिये शर्मनाक हैं पर इन घटनाओं को किसी वर्ग विशेष से जोड़कर लिखा जाना उससे भी अधिक शर्मनाक है।क्योंकि सर्वप्रथम तो ये हादसे समाज के किसी भी वर्ग के साथ घटित हो सकते हैं क्योंकि इस तरह के कुकर्म करने वालों का कोई धर्म या मजहब नहीं होता है और दूसरा यह कि इन हादसों को किसी विशेष वर्ग जोड़ना उन्हें स्वयं ही समाज से अलग दर्शाता है।इस तरह किसी घटना के साथ ‘दलित’ शब्द जोड़ना पीडित के घावों पर नमक का काम करता है और समाज के अन्य वर्गों के प्रति उनके मन में कड़वाहट भर देता है।
कोई आपको इसलिये नौकरी देता है क्योकि आप दलित,अल्पसंख्यक या मुसलमान हैं वहीं दूसरी ओर कोई आपको इसी लिये नौकरी पर नहीं रखता क्योंकि आप अल्पसंख्यक हैं।ये कैसा गणित हुआ भला कि यदि बलात्कार यदि किसी दलित लड़की के साथ हुआ तो आन्दोलन हो गया,यह घटना पहले पन्ने की खबर बन गयी और यदि किसी सामान्य जाति की लड़की के साथ हुआ तो रोजमर्रा की खबरों में शामिल हो गयी।क्या दोनों की पीड़ा में अंतर है?दोनों ही समान दौर से गुजर रही हैं।उनकी पीड़ा को कोई तीसरा नहीं समझ सकता है।पर इस तरह की घटनाओं को आग देकर अपने स्वार्थ की रोटी सेकनें वाले कुछ स्वघोषित बुद्धिजीवी वर्ग की कमी नहीं है इस दुनिया में।जो कि स्वयं को धर्म का ठेकेदार की उपाधि देते हैं।यही वह लोग हैं जो कि समाज को हमेशा से दो भागों मे बॉटते आये हैं।क्योकि इन्ही सब से इनकी रोजी रोटी का जुगाड़ होता है।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।यह गाथा तो हम वर्षों से गाते आ रहे हैं परन्तु इसी धर्मनिरपेक्षता जैसे सुन्दर शब्द ने समाज को दो भागों में विभाजित कर दिया है।हमारा देश का संविधान कहता है कि देश के सभी नागरिक एक समान हैं पर दूसरी ओर समाज में हादसों को वर्ग विशेष से जोड़ दिया जाता है।किसी जाति विशेष को हादसे के साथ बार –बार उनकी जाति याद दिलाया जाना उन्हें यह एहसास दिलाता है कि उनके साथ यह हादसा उनकी जाति के कारण हुआ और यह भी कि वह औरों से अलग हैं।
दूसरा बड़ा मुदृदा जो भारत के धर्मनिरपेक्षता गाथा की धज्जियॉ उड़ा रहा है वह है-आरक्षण की मांग।यह एक ऐसी चिंगारी है जो किसी भी समाज मे साम्प्रादायिकता फैलाने के लिये काफी है।यदि देश के सभी नागरिक समान हैं तो नौकरी पाने के लिये जाति प्रमाण-पत्र की आवश्यकता क्यों पड़ती है? किसी भी पद के लिये योग्य व्यक्ति का चुनाव उसकी शिक्षा के आधार पर होना चाहिये ना कि उसकी जाति के आधार पर।वैसे आरक्षण एक बड़ा मुदृदा है जिसके लिये अलग से चर्चा की आवश्यकता है।फिलहाल तो केवल यही कहा जा सकता है कि समाज में हुऐ किसी भी हादसे को किसी विशेष जाति से जोड़कर ना प्रस्तुत किया जाये क्योंकि ये भेदभाव को समाप्त करने के बजाए उसे बढ़ावा देते हैं और समाज में जातिवाद की खाई को दिनों दिन गहरा कर रहे हैं।
कोई आपको इसलिये नौकरी देता है क्योकि आप दलित,अल्पसंख्यक या मुसलमान हैं वहीं दूसरी ओर कोई आपको इसी लिये नौकरी पर नहीं रखता क्योंकि आप अल्पसंख्यक हैं।ये कैसा गणित हुआ भला कि यदि बलात्कार यदि किसी दलित लड़की के साथ हुआ तो आन्दोलन हो गया,यह घटना पहले पन्ने की खबर बन गयी और यदि किसी सामान्य जाति की लड़की के साथ हुआ तो रोजमर्रा की खबरों में शामिल हो गयी।क्या दोनों की पीड़ा में अंतर है?दोनों ही समान दौर से गुजर रही हैं।उनकी पीड़ा को कोई तीसरा नहीं समझ सकता है।पर इस तरह की घटनाओं को आग देकर अपने स्वार्थ की रोटी सेकनें वाले कुछ स्वघोषित बुद्धिजीवी वर्ग की कमी नहीं है इस दुनिया में।जो कि स्वयं को धर्म का ठेकेदार की उपाधि देते हैं।यही वह लोग हैं जो कि समाज को हमेशा से दो भागों मे बॉटते आये हैं।क्योकि इन्ही सब से इनकी रोजी रोटी का जुगाड़ होता है।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।यह गाथा तो हम वर्षों से गाते आ रहे हैं परन्तु इसी धर्मनिरपेक्षता जैसे सुन्दर शब्द ने समाज को दो भागों में विभाजित कर दिया है।हमारा देश का संविधान कहता है कि देश के सभी नागरिक एक समान हैं पर दूसरी ओर समाज में हादसों को वर्ग विशेष से जोड़ दिया जाता है।किसी जाति विशेष को हादसे के साथ बार –बार उनकी जाति याद दिलाया जाना उन्हें यह एहसास दिलाता है कि उनके साथ यह हादसा उनकी जाति के कारण हुआ और यह भी कि वह औरों से अलग हैं।
दूसरा बड़ा मुदृदा जो भारत के धर्मनिरपेक्षता गाथा की धज्जियॉ उड़ा रहा है वह है-आरक्षण की मांग।यह एक ऐसी चिंगारी है जो किसी भी समाज मे साम्प्रादायिकता फैलाने के लिये काफी है।यदि देश के सभी नागरिक समान हैं तो नौकरी पाने के लिये जाति प्रमाण-पत्र की आवश्यकता क्यों पड़ती है? किसी भी पद के लिये योग्य व्यक्ति का चुनाव उसकी शिक्षा के आधार पर होना चाहिये ना कि उसकी जाति के आधार पर।वैसे आरक्षण एक बड़ा मुदृदा है जिसके लिये अलग से चर्चा की आवश्यकता है।फिलहाल तो केवल यही कहा जा सकता है कि समाज में हुऐ किसी भी हादसे को किसी विशेष जाति से जोड़कर ना प्रस्तुत किया जाये क्योंकि ये भेदभाव को समाप्त करने के बजाए उसे बढ़ावा देते हैं और समाज में जातिवाद की खाई को दिनों दिन गहरा कर रहे हैं।
शुक्रवार, 2 नवंबर 2007
‘अच्छा तो हम चलते हैं’
गाने की पंक्तियां तो बहुत पुराने गाने की हैं पर आजकल के प्रेमियों पर सटीक बैठती हैं।इस बदलते समाज ने प्रेम की परिभाषा को भी बदल के रख दिया है।आजकल प्रेम की उम्र लम्बी नहीं होती है। जब तक विचार मिले,तब तक ठीक है पर जहां विचारों में जरा भी मतभेद हुआ वहीं से प्रेमी एक दूसरे को कहते हैं-अच्छा तो हम चलते हैं।और ‘फिर कब मिलोगे’ वाली पंक्तियों की आवश्यकता यहां कभी नहीं पड़ती क्योंकि जल्द ही उन्हें कोई और मिल जाता है।
ये प्रेम की नयी व्याख्या है जो प्रेमियों ने अपनी सहूलियत के लिये स्वयं निर्मित की है।पर इन दोनों परिभाषाओं में वही अंतर है जो कागज के फूलों और असली फूलों में होता है।प्रेम की भीनी उस सुगन्ध का जो कभी प्रेमियों के ह्दय सें आती थी।
आजकल की भागती –दौड़ती जिन्दगी में प्रेम भी केवल टाइम-पास का जरिया बन गया है।युवा प्रेमी मिलते हैं साथ घूमते हैं खाते-पीते हैं पर विवाह का इरादा नहीं रखते हैं।और ना ही एक-दूसरे की जिन्दगी में हस्तक्षेप करते हैं।इनमें से कई लोग ऐसे भी हैं जो कि बॉयफ्रेन्ड या गर्लफ्रेन्ड केवल इसलिये बनाते हैं क्योकिं ये आजकल का फैशन है और उनके स्मार्ट होने का प्रमाण है।100 मे से 70 लड़कियां प्रेम को केवल समय बिताने का जरिया मानती हैं और अपने माता-पिता की पसन्द से शादी करना पसन्द करती हैं।दूसरी तरफ ज्यादातर लड़कों की सोच भी यही है।
विशेष रूप से कालेज,स्कूल आदि में आजकल प्रेम की इसी नयी परिभाषा को जिसे अंग्रेजी में ‘वन नाइट स्टैन्ड लव’ भी कहा जाता है को तव्वजो दे रहे हैं।कारण है कि जब हमारी पूरी संस्कृति पश्चिमी सभ्यता में रंगती जा रही है तो भला प्रेम इसके रंग में सराबोर होने से कैसे बच पाऐगा।पर अंत में केवल यही कहना चाहूंगी कि इस तरह के प्रेम में अंत में अकेलेपन और मानसिक कुंठा के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा।और ना ही इस तरह का रिवाज चिरस्थाई होगा।
ये प्रेम की नयी व्याख्या है जो प्रेमियों ने अपनी सहूलियत के लिये स्वयं निर्मित की है।पर इन दोनों परिभाषाओं में वही अंतर है जो कागज के फूलों और असली फूलों में होता है।प्रेम की भीनी उस सुगन्ध का जो कभी प्रेमियों के ह्दय सें आती थी।
आजकल की भागती –दौड़ती जिन्दगी में प्रेम भी केवल टाइम-पास का जरिया बन गया है।युवा प्रेमी मिलते हैं साथ घूमते हैं खाते-पीते हैं पर विवाह का इरादा नहीं रखते हैं।और ना ही एक-दूसरे की जिन्दगी में हस्तक्षेप करते हैं।इनमें से कई लोग ऐसे भी हैं जो कि बॉयफ्रेन्ड या गर्लफ्रेन्ड केवल इसलिये बनाते हैं क्योकिं ये आजकल का फैशन है और उनके स्मार्ट होने का प्रमाण है।100 मे से 70 लड़कियां प्रेम को केवल समय बिताने का जरिया मानती हैं और अपने माता-पिता की पसन्द से शादी करना पसन्द करती हैं।दूसरी तरफ ज्यादातर लड़कों की सोच भी यही है।
विशेष रूप से कालेज,स्कूल आदि में आजकल प्रेम की इसी नयी परिभाषा को जिसे अंग्रेजी में ‘वन नाइट स्टैन्ड लव’ भी कहा जाता है को तव्वजो दे रहे हैं।कारण है कि जब हमारी पूरी संस्कृति पश्चिमी सभ्यता में रंगती जा रही है तो भला प्रेम इसके रंग में सराबोर होने से कैसे बच पाऐगा।पर अंत में केवल यही कहना चाहूंगी कि इस तरह के प्रेम में अंत में अकेलेपन और मानसिक कुंठा के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा।और ना ही इस तरह का रिवाज चिरस्थाई होगा।
गुरुवार, 1 नवंबर 2007
नया पीढ़ी का नया भारत
खून नया है,जोश भी और विचार भी नये हैं।अगर वो डिस्को में शाम गुजारते हैं तो मंदिर जाना भी नहीं भूलते।अगर वो वैलेन्टाइन डे को पूरे जोश-खरोश के साथ मनाते हैं तो नवरात्रि में भी उनका उत्साह देखते ही बनता है।अगर इण्टरनेट पर चैटिंग करने का शौक रखते हैं तो अपनी पढ़ाई के लिये भी उसी नेट का प्रयोग करना बखूबी जानते हैं।अगर वो टी वी पर म्यूजिक चैनल और र्स्पोटस चैनल के दीवाने हैं तो न्यूज चैनल भी उनके लिये उतना ही महत्वपूर्ण है।
इनसे मिलिये ये हैं-भारत की नयी पीढ़ी।जो जोश के साथ होश संभालना भी बखूबी जानती है।वैसे देखा जाये तो आज का युवा अपेक्षाकृत ज्यादा जिम्मेदार है।वह अपने दोस्तो के साथ घूमने भी जाता है,फिल्में भी देखता है ,पर अपने लक्ष्य को लेकर भी उतना ही सजग है।वह जानता है कि उसे जिन्दगी में क्या करना है और वहां तक पहुंचने का रास्ता भी जानता है।
वह जितना आदर अपने माता पिता को देता है ,उतना ही सम्मान अपने देश का भी करता है।वह देश की राजनीति की भी समझ रखता है और अपने मत का प्रयोग करना भी जानता है।वह केवल अपने अधिकारो की जानकारी नहीं रखता बल्कि अपने र्कत्वयों का पालन करना भी जानता है।
वह देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से अच्छी तरह वाकिफ है।वह अपने देश के लिये बहुत कुछ करना चाहता है।और वह कर भी रहा है।वह अपने देश के संविधान की इज्जत करता है और उन भरोसा भी करता है।पर युवा वर्ग अपने देश की सरकार से कुछ मुद्दों पर भरोसा चाहता है।जैसे-
-नौकरी या रोजगार का भरोसा
-लड़कियों के सड़क पर निर्भय होकर निकलने का भरोसा
-साम्प्रदायिकता के समाप्त होने का भरोसा
और सबसे बड़ी बात यह है कि वह चाहते हैं कि देश की पुरानी पीढी उन पर भरोसा करे।और शायद यह जरूरी भी है।क्योंकि आज की युवा पीढ़ी देश की तरक्की को उस मुकाम पर पहुंचा सकती है जहां आज विश्व के कई विकसित देश खड़े हैं।बशर्ते देश का अनुभवी वर्ग उनके साथ कंधा मिलाकर खड़ा हो।
इनसे मिलिये ये हैं-भारत की नयी पीढ़ी।जो जोश के साथ होश संभालना भी बखूबी जानती है।वैसे देखा जाये तो आज का युवा अपेक्षाकृत ज्यादा जिम्मेदार है।वह अपने दोस्तो के साथ घूमने भी जाता है,फिल्में भी देखता है ,पर अपने लक्ष्य को लेकर भी उतना ही सजग है।वह जानता है कि उसे जिन्दगी में क्या करना है और वहां तक पहुंचने का रास्ता भी जानता है।
वह जितना आदर अपने माता पिता को देता है ,उतना ही सम्मान अपने देश का भी करता है।वह देश की राजनीति की भी समझ रखता है और अपने मत का प्रयोग करना भी जानता है।वह केवल अपने अधिकारो की जानकारी नहीं रखता बल्कि अपने र्कत्वयों का पालन करना भी जानता है।
वह देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से अच्छी तरह वाकिफ है।वह अपने देश के लिये बहुत कुछ करना चाहता है।और वह कर भी रहा है।वह अपने देश के संविधान की इज्जत करता है और उन भरोसा भी करता है।पर युवा वर्ग अपने देश की सरकार से कुछ मुद्दों पर भरोसा चाहता है।जैसे-
-नौकरी या रोजगार का भरोसा
-लड़कियों के सड़क पर निर्भय होकर निकलने का भरोसा
-साम्प्रदायिकता के समाप्त होने का भरोसा
और सबसे बड़ी बात यह है कि वह चाहते हैं कि देश की पुरानी पीढी उन पर भरोसा करे।और शायद यह जरूरी भी है।क्योंकि आज की युवा पीढ़ी देश की तरक्की को उस मुकाम पर पहुंचा सकती है जहां आज विश्व के कई विकसित देश खड़े हैं।बशर्ते देश का अनुभवी वर्ग उनके साथ कंधा मिलाकर खड़ा हो।
बुधवार, 31 अक्तूबर 2007
दुनिया का सबसे अमीर आदमी एक गरीब देश से
बड़ी असमंजस में हूं कि ये हर्ष का विषय है या विषाद का।दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति हमारे देश से है और फिर भी हमारे देश का किसान गरीबी और भूख से लाचार होकर आत्महत्या करने को मजबूर है।खबरों के अनुसार परसों अचानक शेयरों के भाव बढ़ने से मुकेश अंबानी इस दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बन गये।इस मामले में उन्होनें बिल गेट्स और वारेन बफेट को भी मात दे दी।पर बावजूद इसके देश की स्थिति और हालात आज भी जस के तस हैं।आज भी हमारे यहां बड़ी संख्या में लोग गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं।ऐसे गांवो की भी कोई कमी नहीं जहां लोगों ने आज तक बिजली का मुंह तक नहीं देखा है।कहा जाता है कि सारी दुनिया में सबसे ज्यादा अंग्रेजी भारत में बोली जाती है तो ऐसे देश में साक्षरता की दर इतनी कम क्यों है?देश का किसान कर्ज से दबकर आत्महत्या करने को इतना मजबूर क्यों है?इन सब सवालों का केवल एक ही जवाब है कि हमारे देश में अमीर आदमी और अमीर तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है।अमीर जोंक की तरह आम जनता का रक्त चूसकर अपनी रईसी का घड़ा भरता जा रहा है।उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं कि देश का आम आदमी किस तरह जूझ रहा है। अगर बिल गेट्स की बात करें तो उनमें अगर धन कमाने की काबिलियत है तो धन दान करने और जरूरतमन्दों के लिये कार्य करने की काबिलियत भी है।उन्होने स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी संस्थाओं को 13 अरब डालर की आर्थिक सहायता भी की है।और यदि वारेन बफेट की बात करें जो कि दुनिया के सबसे बड़े निवेशक भी हैं,उनकी कम्पनी हैथवे इन्वेस्टमेन्ट के एक करोड़ के शेयर दान किये गये है जिनकी कीमत 30 अरब डालर आंकी गयी है।पर इस मामले मे मुकेश अंबानी का खाता बिल्कुल खाली है।जहां बिल गेट्स और वारेन बफेट जैसे लोग सबको एक साथ लेकर चलने मे यकीन रखते हैं वहीं हमारे देश का उच्च वर्ग केवल अपनी तिजोरी भरने में यकीन करता है।नतीजा गरीब तबका आज भी फुटपाथ पर सोने को मजबूर है और अमीरों के महल जैसे घर खाली पड़े रहते हैं।आम जनता लोकल बसों में भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करती है और उच्च वर्ग के हर सदस्य का अपना निजी वाहन है।अगर यही सिलसिला जारी रहा तो देश से गरीबी नहीं बल्कि गरीब ही मिट जाऐगें।
बुधवार, 24 अक्तूबर 2007
खुद ही लगाया चुनरी में दाग
कल रानी मुखर्जी की नयी फिल्म ‘लागा चुनरी मे दाग’ देखने का अवसर मिला।यश राज की हर फिल्म की तरह इसमें भी खूबसूरत लोकेशन और प्रसिद्ध कलाकारों की भरमार थी।पूरी फिल्म की कहानी रानी मुखर्जी के ऊपर आधारित है और रानी ने निसंदेह:अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है।पर फिल्म की कहानी मेरी समझ से परे है।कहानी के मुताबिक रानी मुखर्जी एक कम पढ़ी-लिखी लड़की है।जो पहली बार शहर आती है तो एक कम्पनी का बॉस उसे नौकरी देने के बदले उससे एक रात मांगता है।मजबूर रानी खराब हालातों के चलते ये सौदा मंजूर कर लेती है।पर बदले में उसे धोखा मिलता है।वह आदमी उससे कहता है कि उसके कम पढे लिखे होने के कारण उसे नौकरी नहीं मिल सकती।यहां तक तो कहानी सामान्य है पर उसके बाद कहानी ने चौंकाने वाली है।नौकरी के नाम पर अपनी अस्मत खोने के बाद वह लड़की बिल्कुल टूट जाती है।पर उसकी सहेली उससे कहती है कि उसे इस तरह के लोगों से बदला लेने के लिये और उसे कॉल गर्ल बनना पड़ेगा।इसके अलावा उसके पास बदला लेने का और कोई रास्ता नहीं है।और उसे पूरी तरह से मॉडर्न बनने की ट्रेनिंग स्वयं देती है।और रानी मुखर्जी इस काम को अपना लक्ष्य मान लेती है।
इसका अर्थ तो यह हुआ कि यदि कोई भी लड़की अगर इस तरह कभी धोखा खाती है तो उसे उस इंसान से बदला लेने के लिये यह रास्ता अपना लेना चाहिये।फिल्म में रानी मुखर्जी की दूसरी मजबूरी यह दिखायी गयी है कि उसके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और शिक्षा की कमी के चलते भी उसे कहीं नौकरी मिलना भी असम्भव था।मेरा तर्क यहां पर यह है कि फिल्म की कहानी के अनुसार जब उसे सिलाई कढ़ाई आती थी तो क्या वह उसे रोजगार के रूप में नहीं अपना सकती थी? कॉल गर्ल के पेशे के अपनाने ने किसी ने उसे मजबूर नहीं किया बल्कि वह स्वयं अपनी इच्छा से इसे अपनाती है।यह ठीक है कि उसके घर की आर्थिक स्थिति इसके संभल जाती है परन्तु क्या एक घर की खुशहाली की कीमत उस घर की बेटी की इज्जत हो सकती है?कभी नहीं।मुझे समझ नहीं आया कि आखिर निर्देशक इस फिल्म के जरिये समाज में क्या संदेश देना चाहता है।क्या वह समाज में यह संदेश देना चाहता है कि किसी भी लड़की को धोखा मिलने के बाद इस तरह के कदम उठाना चाहिये या ये कहना चाहता है कि रानी ने जो कुछ किया वह गलत था। अगर रानी को गलत ठहराया गया है तो फिल्म के अंत में उसे अकेले छोड़ दिया जाना चाहिये था परन्तु यहां तो दिखाया गया कि ना केवल पूरा परिवार उसे माफ कर देता है बल्कि एक भले घर का लड़का उसे अपनाने को भी तैयार हो जाता है।जो कि असल जिन्दगी में तो बहुत मुश्किल है।तो मेरा यह कहना है कि फिल्म में रानी की चुनरी का दाग उनका खुद का लगाया हुआ है जिसके लिये कोई अन्य कतई जिम्मेदार नहीं है।
मंगलवार, 23 अक्तूबर 2007
गुजरात में रक्त नहीं,विकास के जिम्मेदार-नरेन्द्र मोदी
गुजरात में चुनावी बिगुल फूंका जा चुका है और शुरू हो चुकी है उल्टी गिनती।यदि चुनाव भारत के सबसे विकसित राज्य का हो तो वह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।ऐसे में सबकी नजरें जा टिकी हैं गुजरात के वर्तमान मुख्यमंत्री-नरेन्द्र मोदी पर।गुजरात में उनके कार्यकाल पर नजर डालें तो यह भारी उतार-चढाव वाला रहा है।इसके मध्य उन पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहा।परन्तु इन बातो से ऊपर एक सबसे बड़ा सत्य यह भी है कि आज गुजरात जिस ऊंचाई और स्थिति मे है उसका पूरा श्रेय नरेन्द्र मोदी को जाता है।आज गुजरात भारत का सबसे विकसित राज्य है।राजीव गांधी फाउन्डेशन द्वारा उसे देश के सबसे बेहतर राज्य की पदवी भी मिल चुकी है। परन्तु दुख: की बात यह है कि जिस व्यक्ति ने राज्य को इस ऊंचाई तक पहुंचाया,आज उसी को राजनीतिक घराने के कुछ लोग मुख्यमंत्री पद के लिये अयोग्य करार दे रहे हैं।उनके कार्य काल के दौरान भी कई बार उनसे इस्तीफे की मांग की गयी थी।इन विरोधियों के पास मोदी के खिलाफ केवल एक ही मुद्दा है-गोधरा कांड।इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि गोधरा कांड देश के इतिहास की शर्मनाक घटना है परन्तु गौर करने वाली बात यह है कि यह देश के इतिहास का पहला हादसा तो नहीं है।भारत के कई ऐसे राज्य हैं जो इस तरह के साम्प्रदायिक दंगों की मार झेल चुके हैं पर ऐसा एक भी राज्य नहीं जो गुजराज की तरह ना केवल हादसे से उबरा बल्कि देश का सबसे विकसित राज्य बन कर अपनी काबलियत का सबूत भी दिया हो।नरेन्द्र मोदी को अयोग्य करार देने वाले गोधरा हादसे का राग तो अलापते हैं पर यह भूल जाते हैं कि राज्य का इतना विकास कार्य भी उनके कार्यकाल के मध्य हुआ है।
आइये जरा एक नजर मोदी जी के राजनीतिक इतिहास पर डालते हैं- राजनीति मे उनकी शुरूआत 1974 में राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ के सदस्य के रूप में हुई थी।बीजीपी में उनका प्रवेश उस समय हुआ जब उन्हें गुजरात में पार्टी की ओर से सचिव नियुक्त किया गया।तथा 2001 में उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ।जिस समय उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया था उस वक्त गुजरात उसी साल जनवरी मे आये भूकम्प की मार झेल रहा था।पूरा राज्य आकाल और सूखे की चपेट में था।पूरा राज्य रेगिस्तान बनता जा रहा था।नरेन्द्र मोदी ने कार्यभार संभालने के तुरन्त बाद राज्य मे जल संचय अभियान शुरू किया।नदियों और कुंओ का निमार्ण किया।जिससे ना केवल राज्य मे जल समस्या दूर हुई बल्कि गुजरात देश के अन्य राज्यो के लिये मिसाल बन गया।जल के पश्चात राज्य की दूसरी सबसे बड़ी समस्या थी बिजली की।गुजरात के कई गांव ऐसे थे जहां बिजली नहीं थी।मुख्यमंत्री ने इस समस्या से निबटने के लिये ‘ज्योति ग्राम योजना’ शुरू की।जिसके तहत केवल 1000 दिन के भीतर 18000 गांवों मे बिजली व्यवस्था की गयी। उन्होनें गोधरा हादसे के पीडित लोगों के लिये भी बहुत कुछ किया है। आगामी चुनावों गुजरात की जनता किसे अपना मुखिया चुनती है इस प्रश्न का उत्तर तो भविष्य के गर्भ में छिपा है।पर इस समय जो विद्वान लोग नरेन्द्र मोदी की केवल नकारात्मक छवि को देख रहे हैं,तो वह सिक्के के केवल एक पहलू को देखकर अपनी राय दे रहे हैं।यदि हम तुलनात्मक अध्ययन करेगें तो निश्चित रूप से विकास के कार्यों का पलड़ा भारी होगा जो कि इस समय देश की प्राथमिक जरूरत भी है।आज नरेन्द्र मोदी की तरह सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले मुख्यमंत्री की आवश्यकता देश के हर राज्य को है।ताकि सम्पूर्ण देश का विकास में गति लाई जा सके।और सारा देश एक समान रूप के विकास की ओर कदम बढ़ा सके।
आइये जरा एक नजर मोदी जी के राजनीतिक इतिहास पर डालते हैं- राजनीति मे उनकी शुरूआत 1974 में राष्ट्रीय स्ंवय सेवक संघ के सदस्य के रूप में हुई थी।बीजीपी में उनका प्रवेश उस समय हुआ जब उन्हें गुजरात में पार्टी की ओर से सचिव नियुक्त किया गया।तथा 2001 में उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ।जिस समय उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया था उस वक्त गुजरात उसी साल जनवरी मे आये भूकम्प की मार झेल रहा था।पूरा राज्य आकाल और सूखे की चपेट में था।पूरा राज्य रेगिस्तान बनता जा रहा था।नरेन्द्र मोदी ने कार्यभार संभालने के तुरन्त बाद राज्य मे जल संचय अभियान शुरू किया।नदियों और कुंओ का निमार्ण किया।जिससे ना केवल राज्य मे जल समस्या दूर हुई बल्कि गुजरात देश के अन्य राज्यो के लिये मिसाल बन गया।जल के पश्चात राज्य की दूसरी सबसे बड़ी समस्या थी बिजली की।गुजरात के कई गांव ऐसे थे जहां बिजली नहीं थी।मुख्यमंत्री ने इस समस्या से निबटने के लिये ‘ज्योति ग्राम योजना’ शुरू की।जिसके तहत केवल 1000 दिन के भीतर 18000 गांवों मे बिजली व्यवस्था की गयी। उन्होनें गोधरा हादसे के पीडित लोगों के लिये भी बहुत कुछ किया है। आगामी चुनावों गुजरात की जनता किसे अपना मुखिया चुनती है इस प्रश्न का उत्तर तो भविष्य के गर्भ में छिपा है।पर इस समय जो विद्वान लोग नरेन्द्र मोदी की केवल नकारात्मक छवि को देख रहे हैं,तो वह सिक्के के केवल एक पहलू को देखकर अपनी राय दे रहे हैं।यदि हम तुलनात्मक अध्ययन करेगें तो निश्चित रूप से विकास के कार्यों का पलड़ा भारी होगा जो कि इस समय देश की प्राथमिक जरूरत भी है।आज नरेन्द्र मोदी की तरह सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले मुख्यमंत्री की आवश्यकता देश के हर राज्य को है।ताकि सम्पूर्ण देश का विकास में गति लाई जा सके।और सारा देश एक समान रूप के विकास की ओर कदम बढ़ा सके।
रविवार, 21 अक्तूबर 2007
कोहिनूर हीरा कहां है?
दुनिया के सभी हीरों का राजा है कोहिनूर हीरा।इसकी कहानी भी परी कथाओं से कम रोमांचक नहीं है।कोहिनूर के जन्म की प्रमाणित जानकारी नहीं है पर कोहिनूर का पहला उल्लेख 3000 वर्ष पहले मिला था।इसका नाता श्री कृष्ण काल से बताया जाता है।पुराणों के अनुसार स्वयंतक मणि ही बाद में कोहिनूर कहलायी।ये मणि सूर्य से कर्ण को फिर अर्जुन और युधिष्ठिर को मिली।फिर अशोक, हर्ष और चन्द्रगुप्त के हाथ यह मणि लगी।सन्1306 में यह मणि सबसे पहले मालवा के महाराजा रामदेव के पास देखी गयी।मालवा के महाराजा को पराजित करके सुल्तान अलाउदीन खिलजी ने मणि पर कब्जा कर लिया।बाबर से पीढी दर पीढी यह बेमिसाल हीरा अंतिम मुगल बादशाह औरंगजेब को मिला। ’ज्वेल्स आफ बिट्रेन’ का मानना है कि सन् 1655 के आसपास कोहिनूर का जन्म हिन्दुस्तान के गोलकुण्डा जिले की कोहिनूर खान से हुआ।तब हीरे का वजन था 787 कैरेट।इसे बतौर तोहफा खान मालिकों ने शाहजहां को दिया।सन्1739 तक हीरा शाहजहां के पास रहा।फिर इसे नादिर शाह ने लूट लिया।इसकी चकाचौधं चमक देखकर ही नादिर शाह ने इसे कोहिनूर नाम दिया।कोहिनूर को रखने वाले आखिरी हिन्दुस्तानी शेर-ए- पंजाब रणजीत सिंह थे।सन् 1849 मे पंजाब की सत्ता हथियाने के बाद कोहिनूर अंग्रेजों के हाथ लग गया।फिर सन् 1850 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हीरा महारानी विक्टोरिया को भेंट किया।इंग्लैण्ड पंहुचते-पंहुचते कोहिनूर का वजन केवल 186 रह गया।महारानी विक्टोरिया के जौहरी प्रिंस एलवेट ने कोहिनूर की पुन: कटाई की और पॉलिश करवाई।सन् 1852 से आज तक कोहिनूर को वजन 105.6 ही रह गया है।सन् 1911 में कोहिनूर महारानी मैरी के सरताज में जड़ा गया।और आज भी उसी ताज में है।इसे लंदन स्थित ‘टावर आफ लंदन’ संग्राहलय में नुमाइश के लिये रखा गया है।
फिलहाल इसे भारत वापस लाने को कोशिशें जारी की गयी हैं।आजादी के फौरन बाद ,भारत ने कई बार कोहिनूर पर अपना मालिकाना हक जताया है।महाराजा दिलीप सिंह की बेटी कैथरीन की सन्1942 मे मृत्यु हो गयी थी,जो कोहिनूर के भारतीय दावे के संबध में ठोस दलीलें दे सकती थी।
शनिवार, 20 अक्तूबर 2007
अभिनय की विरासत संभाले नयी पीढ़ी
कहते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है।जो कि ठीक भी है।तो लीजिये अभिनय की नयी फसल तैयार है।पर यह फसल फिल्म इण्डस्ट्री की खुद की खेती है।साफ शब्दों मे कहूं तो ये नयी पीढी फिल्म कलाकारों की वह संताने हैं जिन्हे अभिनय अपने माता-पिता से विरासत में मिला है।जिसका सबसे बड़ा लाभ इन लोगों को यह मिलता है कि इन्हे अन्य लोगों की तरह फिल्मों मे कदम रखने के लिये कड़ा संघर्ष नहीं करना पड़ता।जिसका सबसे ताजा उदाहरण है-संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘सांवरिया’।जरा सोचिये अगर रणवीर कपूर ऋषि कपूर के और सोनम अनिल कपूर की बेटी ना होती तो क्या भंसाली उनको इतनी सरलता से अपनी फिल्म के लिये चुनते।इसी तरह से ‘दिल दोस्ती ईटीसी’से आगाज करने वाले इमाद शाह अभिनेता नसीरूद्वीन शाह के सुपुत्र हैं।ऐसे ही और कई नाम फिल्मी दुनिया में कदम रखने को तैयार खड़े हैं।इस नयी पीढी को फिल्मों मे पहला कदम रखने मे कोई परेशानी नहीं होती,बल्कि फिल्मकार स्वंय पलकें बिछाकर इन्हें साइन करने को तैयार रहते हैं।पर इन सभी को एक परेशानी का सामना अवश्य करना पड़ता है।वह यह कि दर्शक इनकी तुलना इनके माता पिता से अवश्य करते हैं।जिसके चलते नयी पीढी स्वयं को एक अलग पहचान बनाने में बहुत संघर्ष करना पड़ता है।इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है अभिषेक बच्चन।जिन्हे अपने पिता की छवि से बाहर आने मे 7 साल लग गये।आज अगर उनकी खुद की एक अलग पहचान है तो इसका पूरा श्रेय जाता है उनकी कड़ी मेहनत और संघर्ष को। जबकि अगर देखा जाये तो बाहर से आये कलाकारों को अपनी पहचान बनाने मे ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती है।क्योकि लोग उन्हें उनके नाम से ज्यादा उनके काम से पहचानते हैं।चलिये छोडिये फायदे –नुकसान की बातें।गौर करने वाली बात तो यह है कि इस नयी पीढ़ी मे कितना दम है।ये नयी पीढ़ी अपनी विरासत को संभालने मे कितना सफल हो पाती है इसका फैसला तो आने वाला वक्त ही बताऐगा।
अब त्यौहार भी हुऐ शुगर फ्री
लो फिर से आ गया त्यौहारों का सीजन।आप कहेगें तो इसमे नया क्या है,ये तो हर साल आता ही है।पर खास बात यह है कि इस आधुनिक समाज ने मिठाइयों की तरह त्यौहारों की भी शुगर फ्री कर दिया है।क्योकि जिस तरह मिठाई को मीठा बनाने के लिये चीनी की जरूरत होती है,उसी तरह से त्यौहारों की मिठास अपनों के प्यार और आपसी मेलजोल से होती है।पर ये मिठास हमारे समाज से कहीं खो गयी है।और कही तो छोडिये,ढ़ूढ़ने से अपने अन्दर ही नहीं मिलती हमें।तो बाहर किस मुंह से ढूढ़ने निकलेगें।आजकल लोग त्यौहारों को ऐसे देखते हैं जैसे कोई बिन बुलाया मेहमान आ धमका हो।जिसे आप चाहें या ना चाहें पर मनाना तो पड़ेगा ही।साल भर तो काम का बहाना करके किसी तरह हम एक दूसरे से ना मिलने के सौ बहाने ढूंढ लेते हैं।पर कम्बख्त ये त्यौहारों का सीजन सबसे सामना करा ही देता है।अब त्यौहार है तो उसकी रस्में भी निभानी होती हैं-पहले तो चीनी की मिठाई से काम चल जाता था।पर आज के जमाने मे देशी घी की मिठाई को भी देखकर लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं।क्यों,अरे भई जमाना ही हेल्थ काशंस लोगों का है।तो दुकानदार भी क्या करें,ऐसे तो दुकान बंद हो जायेगी।तो आया जमाना शुगर फ्री मिठाइयों का।पर ये ठीक भी है क्योंकि जब रिश्तों मे ही मिठास ना बची हो तो मिठाई की मिठास तो वैसे भी फीकी ही लगेगी।
शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007
मार्गदर्शक की भूमिका मे भारतीय सिनेमा
अभी कुछ समय पहले एक फिल्म आयी थी ‘चक दे’।जिसमे शाहरूख खान ने एक कोच की भूमिका अदा करते हुऐ भारतीय महिला हाकी टीम को सुप्तावस्था से जगाते हुऐ वर्ल्ड कप तक दिला दिया था।इस फिल्म से पहले तक भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शायद इस बात से भी अनभिज्ञ था कि हाकी हमारे देश का राष्ट्रीय खेल है।परन्तु इस फिल्म की सफलता ने हाकी को सारे देश मे लोकप्रिय बना दिया।जिस तरह से अचानक बाजार मे हाकी स्टिक की मांग बढी है उसे देखते हुऐ भारतीय सिनेमा का समाज के भीतर दखलअंदाजी का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
वैसे इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि सिनेमा सदैव से ही समाज का दर्पण रहा है।कुछ दशक पहले की बात करें तो 1975 मे आयी राजकपूर की ‘बाबी’ ने उस समय के युवाओं को एक नयी राह दिखायी थी।आपातकालीन के दमन का दौर था।‘बाबी’ जैसी कच्ची उम्र की प्रेम कथा से भले उस दौर का कोई सीधा सम्बन्ध् नहीं था,लेकिन बंदिशों मे जकड़े समाज के विद्रोह का संदेश तो यह फिल्म दे ही रही थी।युवाओं ने यह जरूर स्वीकार किया कि कम से कम प्रेम की आजादी तो दो।यह प्रभाव कितना सही था और कितना गलत,यह एक अलग चर्चा का विषय है।पर क्या ऐसा नहीं लगता कि कहीं ना कहीं उस दौर मे मूक रह इमरजेन्सी स्वीकार कर रही पीढी के प्रति नवयुवा पीढी के विरोध का संकेत था।
भारतीय सिनेमा के इतने लम्बे सफर मे हर दौर मे कुछ फिल्में ऐसी अवश्य बनती रहीं जिनका उददेश्य मनोरंजन ना होकर बल्कि समाज की कुरीतियों के प्रति अपना विरोध प्रकट करना था।पर इस तरह की फिल्मों के व्यावसायिक रूप से सफल होने की आशा कम ही होती थी।परन्तु आज का फिल्मकार फिल्म के ना चलने का रिस्क नही उठाना चाहता।वह मनोरंजन के साथ अपना संदेश दर्शकों तक पहुंचाने मे यकीन रखता है।मनोरंजन के साथ अपनी बात रखने का फार्मूला काफी हद तक सफल भी रहा है।‘लगे रहो मुन्ना भाई’ और ‘रंग दे बसन्ती’और हाल मे आयी ‘चक दे’ इसके बेहतरीन उदाहरण हैं।मुन्नाभाई की गांधी गिरी ने तो लोगों को विरोध का नया रास्ता तक दिखा दिया।‘चक दे’ का जादू तो ऐसा चला कि फिल्म रिलीज के कुछ समय बाद ही भारतीय हाकी टीम एशिया कप जीत लायी।टीम के जीतने का पूरा श्रेय तो फिल्म को नहीं दिया जा सकता परन्तु यह कहना भी गलत ना होगा कि टीम को जीत के जज्बे को बढावा देने में कहीं ना कहीं इस फिल्म का प्रभाव अवश्य रहा होगा।
परन्तु उससे भी बड़ा सच यह है कि यदि फिल्मों का प्रभाव समाज पर इतना असरदार होता तो आज हमारा देश विश्व का सबसे खुशहाल देश होता।समाज में चोरी,बलात्कार की एक भी घटना ना होती।अभी कुछ समय पहले रवि चोपड़ा ने विधवा विवाह जैसे संवेदनशील मुद्दे पर एक फिल्म बनाई थी ‘बाबुल’।पर अभी भी हमारे समाज में ‘विधवा विवाह’ की क्या स्थिति है इसकी व्याख्या यहां करना शायद मूर्खता ही होगी।किसी भी फिल्म या कहानी का प्रभाव फिल्म रिलीज होने के कुछ समय तक ही रहता है।लोग फिल्म के साथ हंसते हैं रोते हैं और कुछ समय तक प्रभावित भी रहते हैं परन्तु समय के साथ सब भूल भी जाते हैं।
जिनके पीछे समाज चल दे,ऐसी फिल्मों की आज भी दरकार है।
वैसे इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि सिनेमा सदैव से ही समाज का दर्पण रहा है।कुछ दशक पहले की बात करें तो 1975 मे आयी राजकपूर की ‘बाबी’ ने उस समय के युवाओं को एक नयी राह दिखायी थी।आपातकालीन के दमन का दौर था।‘बाबी’ जैसी कच्ची उम्र की प्रेम कथा से भले उस दौर का कोई सीधा सम्बन्ध् नहीं था,लेकिन बंदिशों मे जकड़े समाज के विद्रोह का संदेश तो यह फिल्म दे ही रही थी।युवाओं ने यह जरूर स्वीकार किया कि कम से कम प्रेम की आजादी तो दो।यह प्रभाव कितना सही था और कितना गलत,यह एक अलग चर्चा का विषय है।पर क्या ऐसा नहीं लगता कि कहीं ना कहीं उस दौर मे मूक रह इमरजेन्सी स्वीकार कर रही पीढी के प्रति नवयुवा पीढी के विरोध का संकेत था।
भारतीय सिनेमा के इतने लम्बे सफर मे हर दौर मे कुछ फिल्में ऐसी अवश्य बनती रहीं जिनका उददेश्य मनोरंजन ना होकर बल्कि समाज की कुरीतियों के प्रति अपना विरोध प्रकट करना था।पर इस तरह की फिल्मों के व्यावसायिक रूप से सफल होने की आशा कम ही होती थी।परन्तु आज का फिल्मकार फिल्म के ना चलने का रिस्क नही उठाना चाहता।वह मनोरंजन के साथ अपना संदेश दर्शकों तक पहुंचाने मे यकीन रखता है।मनोरंजन के साथ अपनी बात रखने का फार्मूला काफी हद तक सफल भी रहा है।‘लगे रहो मुन्ना भाई’ और ‘रंग दे बसन्ती’और हाल मे आयी ‘चक दे’ इसके बेहतरीन उदाहरण हैं।मुन्नाभाई की गांधी गिरी ने तो लोगों को विरोध का नया रास्ता तक दिखा दिया।‘चक दे’ का जादू तो ऐसा चला कि फिल्म रिलीज के कुछ समय बाद ही भारतीय हाकी टीम एशिया कप जीत लायी।टीम के जीतने का पूरा श्रेय तो फिल्म को नहीं दिया जा सकता परन्तु यह कहना भी गलत ना होगा कि टीम को जीत के जज्बे को बढावा देने में कहीं ना कहीं इस फिल्म का प्रभाव अवश्य रहा होगा।
परन्तु उससे भी बड़ा सच यह है कि यदि फिल्मों का प्रभाव समाज पर इतना असरदार होता तो आज हमारा देश विश्व का सबसे खुशहाल देश होता।समाज में चोरी,बलात्कार की एक भी घटना ना होती।अभी कुछ समय पहले रवि चोपड़ा ने विधवा विवाह जैसे संवेदनशील मुद्दे पर एक फिल्म बनाई थी ‘बाबुल’।पर अभी भी हमारे समाज में ‘विधवा विवाह’ की क्या स्थिति है इसकी व्याख्या यहां करना शायद मूर्खता ही होगी।किसी भी फिल्म या कहानी का प्रभाव फिल्म रिलीज होने के कुछ समय तक ही रहता है।लोग फिल्म के साथ हंसते हैं रोते हैं और कुछ समय तक प्रभावित भी रहते हैं परन्तु समय के साथ सब भूल भी जाते हैं।
जिनके पीछे समाज चल दे,ऐसी फिल्मों की आज भी दरकार है।
शनिवार, 15 सितंबर 2007
हिन्दी दिवस का औचित्य
हिन्दी उस बाजार में ठिठकी हुई-सी खड़ी है, जहाँ कहने को सब अपने हैं, लेकिन फिर भी बेगाने से... इस बेगानेपन की टहनियों से भी उम्मीद की कोपलें फूट रही हैं। क्योंकि हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है, लेकिन उसकी पठनीयता, उसका साहित्य सिसकियाँ भर रहा है। क्या हिन्दी समाज ने खुद ही हिन्दी को रद्द कर दिया है? इसमें दोष भाषा का नहीं, बल्कि बाजार का है। वैसे भी बाजार का सीधा-सा नियम है बेचना। इस बेचने से कोई भाषा कैसे बच सकती है?
आज हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए सामूहिक होकर उसके साहित्य और उससे जुड़ी बोलियों को पूरी कर्मठता से आगे ठेलने की जरूरत है। तब ही होगा हिन्दी दिवस साकार, हिन्दी का उद्धार।
आमतौर पर हिन्दीभाषी क्षेत्र में कहा जाता है कि यहाँ साहित्य पर वह माहौल नहीं है जितना अन्य भाषाई क्षेत्रों में है। इस बात में काफी सचाई भी है क्योंकि गत पाँच दशक के मनन, अवलोकन के बाद ऐसी टिप्पणियाँ अब ज्यादा मुखर हो रही हैं। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ब्रिटिश व्यापारवाद ने बंगला भाषा पर आक्रमण किया था। लेकिन बंगाल में चले सुधारवादी आंदोलनों से, आध्यत्मिक उभार ने, नवचेतना ने (राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, चैतन्य महाप्रभु, चंडीदास, बंकिमचंद्र, विवेकानंद, काजी नजरुल इस्लाम, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरद बाबू) बांग्ला भाषा, साहित्य, चेतना को और ज्यादा ऊँचाई दी।
बांग्ला पूरी शिद्दत से भारत की प्रवक्ता भाषा भी सिद्ध हुई। इस पूरी प्रक्रिया में बंगाल (इससे लगे असम तथा उड़िया भाषा में भी) में भाषा तथा साहित्य में विवेकपूर्ण आचरण भी विकसित हुआ जो आज के आपाधापी पूर्ण समय में भी बदस्तूर जारी है। बांग्ला में कोई भी साहित्यकार हो, हर रचनाधर्मी, लेखक कलाकार के अवदान को स्वीकारा जाता है- विचारधारा के संघर्ष, पक्षधरता के बावजूद विरोधी लेखक के रचना पाठ में उसकी छपी रचना पर हो रही चर्चा में उसको एक सिरे से खारिज नहीं किया जाता। उसके भाषाई, साहित्यिक जनप्रतिबद्धता, भाषा-बोली को स्वीकारा जाता है।
हिन्दी का क्षेत्र व्यापक है। हिन्दी सिर्फ इसीलिए ही व्यापक नहीं है कि वह ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाती है बल्कि हिन्दी का साहित्य ज्यादा व्यापक है। उसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो अपने में एक बड़ी परंपरा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।
वह किसी खेमे से प्रमाण-पत्र का मुँह नहीं देखती। बल्कि स्थिति यह है कि 'मठों' को अपनी बोलियों के जनसंघर्ष के स्पंदन उनके ई.सी.जी. नहीं पकड़ पाते हैं। आज हिन्दी में काफी लिखा जा रहा, बेहतर लिखा जा रहा है, कहानी में व्यापक फलक हैं, बारीकियाँ हैं। कविता में जबर्दस्त चेतना, भाषा का प्रवाह, चट्टानों को आकार में बदलने की उद्दाम छटपटाहट है।
निबंधों में नया विकास सामने आया है। उपन्यासों में नवीन इलाके, बंजर हो रही जमीन को उर्वरा बनाने का रचनात्मक जोश साफ झलक रहा है। इस पूरे रचनाक्रम में पूरी भारतीय मनीषा की उपस्थिति है। बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान सहित चीनी, ईरानी, अफ्रीकी रचनाओं में भी बराबरी से आ रहा है। चीनी साहित्यकार 'मो यान' की रचनाएँ कहीं भी पराई नहीं लगतीं। उसकी जमीन, वही है जो नेरुदा की है, पोट्टेकाट, भीष्म साहनी की है।
हिन्दी में स्थानीयता अंततः विश्व विरासत का रचनाकर्म ही है जो उसे अभिव्यक्त करती है। हिन्दी संसार में परेशानी है कि अपने-अपने खेमों, अपने तंबुओं को सही साहित्य बताने की 'जिद' ने हिन्दी को परेशानी में डाल दिया है। जरूरत बांग्ला भाषा, असमी भाषा वाली विवेकशीलता की है। बेशक हम-आप अपने-अपने घरों की सुविधाओं में रहें, लेकिन साहित्यिक ईद या दशहरे पर एक-दूसरे से गले तो मिलें। अंततः हम एक महत्वपूर्ण भाषा में लिखते हैं और साहित्य जैसे जवाबदार कर्म से जुड़े हैं अतः हिन्दी का हित, उसका विकास प्रथम प्राथमिकता में होना चाहिए। वाद और विचार, समाज से आते हैं इसलिए समाज की प्राथमिकता जरूरी है- वह बचेगा, वह समृद्ध होगा तो वाद-विचार भी पुख्ता होकर उभरेगा। हिन्दी की स्थिति ऐसी है जैसे विदेशी आक्रमणों के वक्त भी राजाओं, नवाबों ने आपसी लड़ाइयाँ नहीं छोड़ी थीं। शेष इतिहास हम जानते हैं। इस वक्त भी हिन्दी को बाजारवाद लील रहा है।
अब वह सिर्फ हिन्दी मानक भाषा के बरखिलाफ ही नहीं वरन हिन्दी की ताकत उसकी बोलियों की तरफ है। नरभक्षी की दाढ़ में खून लगा है। वह स्वाद चख चुका है। बाजारवाद, बोलियों के मासूम आँगन में जा घुसा है। यदि बोलियाँ ध्वस्त हो गईं तो हिन्दी का शक्तिकेंद्र ही ढीला पड़ जाएगा। एक बोली या भाषा का मरना सिर्फ अक्षरों की मौत नहीं होती पूरी, अभिव्यक्ति, पूरा देश, पूरी रवायत, पूरी संस्कृति अपाहिज हो जाती है। अफ्रीका के कई देश साम्राज्यवाद, आर्थिक साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। बेहतर होगा, हिन्दी क्षेत्र खेमावाद छोड़े, समीक्षा बाहर निकले, वरना अपनों की हत्या करने वाला विजेता नहीं बनता। इस समय बोलियों, उसकी परंपरा तथा भारतीय भाषाओं, हिन्दी में भातृभाव की सर्वाधिक जरूरत है।
आज हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए सामूहिक होकर उसके साहित्य और उससे जुड़ी बोलियों को पूरी कर्मठता से आगे ठेलने की जरूरत है। तब ही होगा हिन्दी दिवस साकार, हिन्दी का उद्धार।
आमतौर पर हिन्दीभाषी क्षेत्र में कहा जाता है कि यहाँ साहित्य पर वह माहौल नहीं है जितना अन्य भाषाई क्षेत्रों में है। इस बात में काफी सचाई भी है क्योंकि गत पाँच दशक के मनन, अवलोकन के बाद ऐसी टिप्पणियाँ अब ज्यादा मुखर हो रही हैं। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ब्रिटिश व्यापारवाद ने बंगला भाषा पर आक्रमण किया था। लेकिन बंगाल में चले सुधारवादी आंदोलनों से, आध्यत्मिक उभार ने, नवचेतना ने (राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, चैतन्य महाप्रभु, चंडीदास, बंकिमचंद्र, विवेकानंद, काजी नजरुल इस्लाम, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरद बाबू) बांग्ला भाषा, साहित्य, चेतना को और ज्यादा ऊँचाई दी।
बांग्ला पूरी शिद्दत से भारत की प्रवक्ता भाषा भी सिद्ध हुई। इस पूरी प्रक्रिया में बंगाल (इससे लगे असम तथा उड़िया भाषा में भी) में भाषा तथा साहित्य में विवेकपूर्ण आचरण भी विकसित हुआ जो आज के आपाधापी पूर्ण समय में भी बदस्तूर जारी है। बांग्ला में कोई भी साहित्यकार हो, हर रचनाधर्मी, लेखक कलाकार के अवदान को स्वीकारा जाता है- विचारधारा के संघर्ष, पक्षधरता के बावजूद विरोधी लेखक के रचना पाठ में उसकी छपी रचना पर हो रही चर्चा में उसको एक सिरे से खारिज नहीं किया जाता। उसके भाषाई, साहित्यिक जनप्रतिबद्धता, भाषा-बोली को स्वीकारा जाता है।
हिन्दी का क्षेत्र व्यापक है। हिन्दी सिर्फ इसीलिए ही व्यापक नहीं है कि वह ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाती है बल्कि हिन्दी का साहित्य ज्यादा व्यापक है। उसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो अपने में एक बड़ी परंपरा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।
वह किसी खेमे से प्रमाण-पत्र का मुँह नहीं देखती। बल्कि स्थिति यह है कि 'मठों' को अपनी बोलियों के जनसंघर्ष के स्पंदन उनके ई.सी.जी. नहीं पकड़ पाते हैं। आज हिन्दी में काफी लिखा जा रहा, बेहतर लिखा जा रहा है, कहानी में व्यापक फलक हैं, बारीकियाँ हैं। कविता में जबर्दस्त चेतना, भाषा का प्रवाह, चट्टानों को आकार में बदलने की उद्दाम छटपटाहट है।
निबंधों में नया विकास सामने आया है। उपन्यासों में नवीन इलाके, बंजर हो रही जमीन को उर्वरा बनाने का रचनात्मक जोश साफ झलक रहा है। इस पूरे रचनाक्रम में पूरी भारतीय मनीषा की उपस्थिति है। बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान सहित चीनी, ईरानी, अफ्रीकी रचनाओं में भी बराबरी से आ रहा है। चीनी साहित्यकार 'मो यान' की रचनाएँ कहीं भी पराई नहीं लगतीं। उसकी जमीन, वही है जो नेरुदा की है, पोट्टेकाट, भीष्म साहनी की है।
हिन्दी में स्थानीयता अंततः विश्व विरासत का रचनाकर्म ही है जो उसे अभिव्यक्त करती है। हिन्दी संसार में परेशानी है कि अपने-अपने खेमों, अपने तंबुओं को सही साहित्य बताने की 'जिद' ने हिन्दी को परेशानी में डाल दिया है। जरूरत बांग्ला भाषा, असमी भाषा वाली विवेकशीलता की है। बेशक हम-आप अपने-अपने घरों की सुविधाओं में रहें, लेकिन साहित्यिक ईद या दशहरे पर एक-दूसरे से गले तो मिलें। अंततः हम एक महत्वपूर्ण भाषा में लिखते हैं और साहित्य जैसे जवाबदार कर्म से जुड़े हैं अतः हिन्दी का हित, उसका विकास प्रथम प्राथमिकता में होना चाहिए। वाद और विचार, समाज से आते हैं इसलिए समाज की प्राथमिकता जरूरी है- वह बचेगा, वह समृद्ध होगा तो वाद-विचार भी पुख्ता होकर उभरेगा। हिन्दी की स्थिति ऐसी है जैसे विदेशी आक्रमणों के वक्त भी राजाओं, नवाबों ने आपसी लड़ाइयाँ नहीं छोड़ी थीं। शेष इतिहास हम जानते हैं। इस वक्त भी हिन्दी को बाजारवाद लील रहा है।
अब वह सिर्फ हिन्दी मानक भाषा के बरखिलाफ ही नहीं वरन हिन्दी की ताकत उसकी बोलियों की तरफ है। नरभक्षी की दाढ़ में खून लगा है। वह स्वाद चख चुका है। बाजारवाद, बोलियों के मासूम आँगन में जा घुसा है। यदि बोलियाँ ध्वस्त हो गईं तो हिन्दी का शक्तिकेंद्र ही ढीला पड़ जाएगा। एक बोली या भाषा का मरना सिर्फ अक्षरों की मौत नहीं होती पूरी, अभिव्यक्ति, पूरा देश, पूरी रवायत, पूरी संस्कृति अपाहिज हो जाती है। अफ्रीका के कई देश साम्राज्यवाद, आर्थिक साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। बेहतर होगा, हिन्दी क्षेत्र खेमावाद छोड़े, समीक्षा बाहर निकले, वरना अपनों की हत्या करने वाला विजेता नहीं बनता। इस समय बोलियों, उसकी परंपरा तथा भारतीय भाषाओं, हिन्दी में भातृभाव की सर्वाधिक जरूरत है।
शुक्रवार, 14 सितंबर 2007
राष्ट्रभाषा हिन्दी : दशा और दिशा
Technorati Profile जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ था तब हमने सोचा था कि हमारे आजाद देश में हमारी अपनी भाषा, अपनी संस्कृति होगी लेकिन यह क्या? अँग्रेजों से तो हम स्वतंत्र हो गए पर अँग्रेजी ने हमको जकड़ लिया।
हम यह बात कर रहे हैं कि हिन्दी भाषी राज्यों को अँग्रेजी की जगह हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। महात्मा गाँधी के समय से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दक्षिण भारत नाम की संस्था अपना काम कर रही थी। दूसरी तरफ सरकार स्वयं हिन्दी को प्रोत्साहन दे रही थी यानी अब हिन्दी के प्रति कोई विरोधाभाव नहीं था और जहाँ तक हमारा प्रश्न है हम बिलकुल नहीं चाहते कि देश के किसी भी हिस्से पर हिन्दी को आरोपित किया जाए।
अँग्रेजी विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रमुख भाषा है। दरअसल हम कहते हैं कि 'अँग्रेजी हटाओ ', यह नहीं कहते हैं कि ' अँग्रेजी मिटाओ' । हमारी बात लोग गलत समझते है। हमारा यह तात्पर्य नहीं कि अँग्रेजी को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए क्योंकि यह सच है कि यह हमें साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली है। वैसे भी आज हिन्दी को यह सम्मान नहीं मिल पा रहा है।
अँग्रेजी के इस बढ़ते प्रचलन के कारण एक साधारण हिन्दी भाषी नागरिक आज यह सोचने पर मजबूर है कि क्या हमारी पवित्र पुस्तकें जो हिन्दी में हैं , वह भी अँग्रेजी में हो जाएँगी। हमारा राष्ट्रगीत , राष्ट्रगान, हमारी पूजा-प्रार्थना सब अँग्रेजी में हो जाएँगे। हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसे हम भारतवासी को अपनाना चाहिए, लेकिन आजकल की पीढ़ी जब भी अपना मुँह खोलती है तो सिर्फ और सिर्फ अँग्रेजी ही बोलती है। क्या इस प्रकार के रवैये से हमारी यह उम्मीद कि 'हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना ' कभी संभव हो पाएगा।
हिन्दी , भाषाई विविधता का एक ऐसा स्वरूप जिसने वर्तमान में अपनी व्यापकता में कितनी ही बोलियों और भाषाओं को सँजोया है। जिस तरह हमारी सभ्यता ने हजारों सावन और हजारों पतझड़ देखें हैं , ठीक उसी तरह हिन्दी भी उस शिशु के समान है , जिसने अपनी माता के गर्भ में ही हर तरह के मौसम देखने शुरू कर दिए थे। हिन्दी की यह माता थी संस्कृत भाषा , जिसके अति क्लिष्ट स्परूप और अरबी , फारसी जैसी विदेशी और पाली, पाकृत जैसी देशी भाषाओं के मिश्रण ने हिन्दी को अस्तित्व प्रदान किया। जिस शिशु को इतनी सारी भाषाएँ अपने प्रेम से सींचे उसके गठन की मजबूती का अंदाज लगाना बहुत मुश्किल है।
सातवीं शताब्दी (ई.पू.) से दसवीं शताब्दी (ई.पू) के बीच संस्कृत भाषा के अपभ्रंश के रूप में उत्पन्न हिन्दी अभी अपनी माँ के गर्भ में ही थी , जिस दौरान पाली और पाकृत जैसी भाषाओं का प्रभाव उनके चरम पर था। यह वही समय था जब बौद्ध धर्म पूर्णतः परिपक्व हो चुका था और पाली व पाकृत जैसी आसान भाषाओं में इसका व्यापक प्रसार हो रहा था।
देखा जाए तो पुरातन हिन्दी का अपभ्रंश के रूप में जन्म 400 ई. से 550 ई. में हुआ जब वल्लभी के शासक धारसेन ने अपने अभिलेख में 'अपभ्रंश साहित्य ' का वर्णन किया। हमारे पास प्राप्त प्रमाणों में 933 ई. की ' श्रावकचर' नामक पुस्तक ही अपभ्रंश हिन्दी का पहला उदाहरण है। परंतु हिन्दी का वास्तविक जन्मदाता तो अमीर खुसरो ही था , जिसने 1283 में खड़ी हिन्दी को जन्म देते हुए इस शिशु का नामकरण ' हिन्दवी' किया।
खुसरो दरिया प्रेम का , उलटी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया , जो डूबा सो पार
जो उतरा सो डूब गया , जो डूबा सो पार
( अमीर खुसरो की एक रचना - 'हिन्दवी ' में...)
यह हिन्दी का जन्म मात्र एक भाषा का जन्म न होकर भारत के मध्यकालीन इतिहास का प्रारंभ भी है , जिसमें भारतीय संस्कृति के साथ अरबी व फारसी संस्कृतियों का अद्भुत संगम नजर आता है। तुर्कों और मुगलों के प्रभाव में पल्लवित होती हिन्दी को उनकी नफासत विरासत में मिली। वहीं दूसरी ओर इस समय भक्ति और आंदोलन भी काफी क्रियाशील हो चुके थे , जिन्होंने कबीर ( 1398- 1518 ई.), रामानंद (1450 ई.) , बनारसी दास (1601 ई.), तुलसीदास (1532-1623 ई.) जैसे प्रकांड विद्वानों को जन्म दिया।
इन्होंने हिन्दी को अपभ्रंश , खड़ी और आधुनिक हिन्दी के अलंकारों से सुसज्जित करके हिन्दी का श्रृंगार किया। इस काल की एक और विशेषता यह भी थी कि इस काल में हिन्दी को अपनी छोटी बहन 'उर्दू ' मिली, जो अरबी, फारसी व हिन्दी के मिश्रण अस्तित्व में आई। इस कड़ी में मुगल बादशाह शाहजहाँ ( 1645 ई.) के योगदानों ने उर्दू को उसका वास्तविक आकार प्रदान किया।
अँग्रेजी शासन तक यह अल्हड़ किशोरी शांत व गंभीर युवती के रूप में परिवर्तित हो चुकी थी। अँग्रेजियत के समावेश ने हिन्दी को त्तकालीन परिवेश में एक नया परिधान दिया। अब आधुनिक हिन्दी में तरह-तरह के प्रयोग अपने शीर्ष पर थे।
किताबों , उपन्यासों, ग्रंथों, काव्यों के साथ-साथ हिन्दी राजनीतिक चेतना का माध्यम बन रही थी। 1826 ई. में 'उद्दंत मार्तण्ड' नामक पहला हिन्दी का समाचार तत्कालीन बुद्धिजीवियों का प्रेरणा स्रोत बन चुका था। अब हिन्दी में आधुनिकता का पूर्णतः समावेश हो चुका था।
अँग्रेजों के शासन ने जहाँ हिन्दी को आधुनिकता का जामा पहनाया , वहीं हिन्दी उनके विरोध और स्वतंत्र भारत के स्वप्न का भी प्रभावी माध्यम रही। तमाम हिन्दी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने देश के बुद्धिजीवियों में स्वतंत्रता की लहर दौड़ाई। स्वतंत्र भारत के कर्णधारों ने जो स्वतंत्रता का स्वप्न देखा उसमें स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा के रूप हमेशा हिन्दी को ही देखा।
शायद यही वजह है कि स्वतंत्रता के उपरांत हिन्दी को 1949-1950 में केंद्र की आधिकारिक भाषा का सम्मान मिला। वर्तमान में हिन्दी विश्व की सबसे अधिक प्रयोग में आने वाली भाषाओं में दूसरा स्थान रखती है। हो सकता है कि अँग्रेजी का प्रभाव प्रौढ़ा हिन्दी पर अधिक नजर आता हो , मगर इस हिन्दी ने अपने भीतर इतनी भाषाओं और बोलियों को समेटकर अपनी गंभीरता का ही परिचय दिया है। हो सकता है कि भविष्य में हिन्दी भी किसी अन्य 'अपभ्रंश ' शिशु को जन्म दे, पर राष्ट्रभाषा का गौरव हर भारतीय में नैसर्गिक रूप से व्याप्त होगा।
हिन्दी उस बाजार में ठिठकी हुई-सी खड़ी है , जहाँ कहने को सब अपने हैं, लेकिन फिर भी बेगाने से... इस बेगानेपन की टहनियों से भी उम्मीद की कोपलें फूट रही हैं। क्योंकि हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है, लेकिन उसकी पठनीयता , उसका साहित्य सिसकियाँ भर रहा है। क्या हिन्दी समाज ने खुद ही हिन्दी को रद्द कर दिया है ? इसमें दोष भाषा का नहीं, बल्कि बाजार का है। वैसे भी बाजार का सीधा-सा नियम है बेचना। इस बेचने से कोई भाषा कैसे बच सकती है ?
आज हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए सामूहिक होकर उसके साहित्य और उससे जुड़ी बोलियों को पूरी कर्मठता से आगे ठेलने की जरूरत है। तब ही होगा हिन्दी दिवस साकार , हिन्दी का उद्धार।
आमतौर पर हिन्दीभाषी क्षेत्र में कहा जाता है कि यहाँ साहित्य पर वह माहौल नहीं है जितना अन्य भाषाई क्षेत्रों में है। इस बात में काफी सचाई भी है क्योंकि गत पाँच दशक के मनन , अवलोकन के बाद ऐसी टिप्पणियाँ अब ज्यादा मुखर हो रही हैं। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ब्रिटिश व्यापारवाद ने बंगला भाषा पर आक्रमण किया था। लेकिन बंगाल में चले सुधारवादी आंदोलनों से , आध्यत्मिक उभार ने , नवचेतना ने (राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, चैतन्य महाप्रभु, चंडीदास , बंकिमचंद्र, विवेकानंद, काजी नजरुल इस्लाम , रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरद बाबू) बांग्ला भाषा, साहित्य, चेतना को और ज्यादा ऊँचाई दी।
बांग्ला पूरी शिद्दत से भारत की प्रवक्ता भाषा भी सिद्ध हुई। इस पूरी प्रक्रिया में बंगाल (इससे लगे असम तथा उड़िया भाषा में भी) में भाषा तथा साहित्य में विवेकपूर्ण आचरण भी विकसित हुआ जो आज के आपाधापी पूर्ण समय में भी बदस्तूर जारी है। बांग्ला में कोई भी साहित्यकार हो , हर रचनाधर्मी , लेखक कलाकार के अवदान को स्वीकारा जाता है- विचारधारा के संघर्ष , पक्षधरता के बावजूद विरोधी लेखक के रचना पाठ में उसकी छपी रचना पर हो रही चर्चा में उसको एक सिरे से खारिज नहीं किया जाता। उसके भाषाई , साहित्यिक जनप्रतिबद्धता , भाषा-बोली को स्वीकारा जाता है।
हिन्दी का क्षेत्र व्यापक है। हिन्दी सिर्फ इसीलिए ही व्यापक नहीं है कि वह ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाती है बल्कि हिन्दी का साहित्य ज्यादा व्यापक है। उसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो अपने में एक बड़ी परंपरा , इतिहास , सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।
वह किसी खेमे से प्रमाण-पत्र का मुँह नहीं देखती। बल्कि स्थिति यह है कि 'मठों' को अपनी बोलियों के जनसंघर्ष के स्पंदन उनके ई.सी.जी. नहीं पकड़ पाते हैं। आज हिन्दी में काफी लिखा जा रहा, बेहतर लिखा जा रहा है, कहानी में व्यापक फलक हैं , बारीकियाँ हैं। कविता में जबर्दस्त चेतना , भाषा का प्रवाह, चट्टानों को आकार में बदलने की उद्दाम छटपटाहट है।
निबंधों में नया विकास सामने आया है। उपन्यासों में नवीन इलाके , बंजर हो रही जमीन को उर्वरा बनाने का रचनात्मक जोश साफ झलक रहा है। इस पूरे रचनाक्रम में पूरी भारतीय मनीषा की उपस्थिति है। बांग्लादेश , भारत , पाकिस्तान सहित चीनी, ईरानी, अफ्रीकी रचनाओं में भी बराबरी से आ रहा है। चीनी साहित्यकार 'मो यान ' की रचनाएँ कहीं भी पराई नहीं लगतीं। उसकी जमीन , वही है जो नेरुदा की है, पोट्टेकाट, भीष्म साहनी की है।
हिन्दी में स्थानीयता अंततः विश्व विरासत का रचनाकर्म ही है जो उसे अभिव्यक्त करती है। हिन्दी संसार में परेशानी है कि अपने-अपने खेमों , अपने तंबुओं को सही साहित्य बताने की 'जिद' ने हिन्दी को परेशानी में डाल दिया है। जरूरत बांग्ला भाषा, असमी भाषा वाली विवेकशीलता की है। बेशक हम-आप अपने-अपने घरों की सुविधाओं में रहें , लेकिन साहित्यिक ईद या दशहरे पर एक-दूसरे से गले तो मिलें।
अंततः हम एक महत्वपूर्ण भाषा में लिखते हैं और साहित्य जैसे जवाबदार कर्म से जुड़े हैं अतः हिन्दी का हित , उसका विकास प्रथम प्राथमिकता में होना चाहिए। वाद और विचार , समाज से आते हैं इसलिए समाज की प्राथमिकता जरूरी है- वह बचेगा , वह समृद्ध होगा तो वाद-विचार भी पुख्ता होकर उभरेगा। हिन्दी की स्थिति ऐसी है जैसे विदेशी आक्रमणों के वक्त भी राजाओं , नवाबों ने आपसी लड़ाइयाँ नहीं छोड़ी थीं। शेष इतिहास हम जानते हैं। इस वक्त भी हिन्दी को बाजारवाद लील रहा है।
अब वह सिर्फ हिन्दी मानक भाषा के बरखिलाफ ही नहीं वरन हिन्दी की ताकत उसकी बोलियों की तरफ है। नरभक्षी की दाढ़ में खून लगा है। वह स्वाद चख चुका है। बाजारवाद , बोलियों के मासूम आँगन में जा घुसा है। यदि बोलियाँ ध्वस्त हो गईं तो हिन्दी का शक्तिकेंद्र ही ढीला पड़ जाएगा। एक बोली या भाषा का मरना सिर्फ अक्षरों की मौत नहीं होती पूरी , अभिव्यक्ति , पूरा देश, पूरी रवायत, पूरी संस्कृति अपाहिज हो जाती है। अफ्रीका के कई देश साम्राज्यवाद , आर्थिक साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। बेहतर होगा , हिन्दी क्षेत्र खेमावाद छोड़े, समीक्षा बाहर निकले, वरना अपनों की हत्या करने वाला विजेता नहीं बनता। इस समय बोलियों, उसकी परंपरा तथा भारतीय भाषाओं, हिन्दी में भातृभाव की सर्वाधिक जरूरत है।
मंगलवार, 11 सितंबर 2007
आर्कुट के साइड इफैक्ट
उस मॉडल को क्या पता था कि जिस आर्कुट को वह अपना सबसे अच्छा मित्र समझ रही है वही आर्कुट उसे जी का जंजाल बन जाऐगा।मुम्बई की इस मॉडल ने फिल्मों मे काम करने की इच्छा से अपना फोटो,पता और फोन नम्बर तक आर्कुट मे डाल रखा था।पर किसी शरारती तत्व ने उसे काल गर्ल का दर्जा देते हुऐ यही जानकारी उसके नाम के साथ आर्कुट पर जोड़ दी और इसी के साथ शुरू हुआ अंतहीन परेशानियों का दौर। उसके बाद ना केवल उसे अश्लील फोन काल्स आने लगे बल्कि कुछ महानुभाव तो उसके घर तक जा पहुंचे।
आर्कुट से जुड़ी ये घटना पहली और अकेली नही है।अभी कुछ दिन पहले मुम्बई के व्यापारी के अपह्रत पुत्र अदनान की हत्या को आर्कुट से जोड़ कर देखा जा रहा है।इस घटना ने आर्कुट को संदिग्धता की श्रेणी मे ला खड़ा किया है।अदनान के जिन दोस्तो ने उसका पहले तो अपहरण तथा फिर हत्या का कुर्कत्य किया,उनसे अदनान की मुलाकात मात्र छह: माह पहले आर्कुट के जरिये ही हुई थी।अगर विश्लेषण किया जाये तो आर्कुट से जुड़े अपराधों की संख्या बहुत लम्बी है।परन्तु इन सब पर चर्चा करने से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि आखिर क्या है ये आर्कुट-
आर्कुट की शुरूआत जनवरी2004 मे हुई थी।इसको बनाने का श्रेय आर्कुट बुयुक्कोकटेन को जाता है।दरअसल आर्कुट एक इण्टरनेट सोशल नेटवर्क है जो गूगल के द्वारा संचालित होता है आर्कुट के दावे के अनुसार यह साइट सामाजिक मेल-जोल को बढावा देती है।इसके द्वारा नये मित्र बनाऐ जा सकते है और पुराने मित्रो को ढ़ूढ़ा भी जा सकता है।वैसे देखा जाये ता गूगल ने आर्कुट की शुरूआत अच्छे मकसद से की थी पर कुछ गलत हाथों ने इसका आपराधिक इस्तेमाल करके इसे विवादों की श्रेणी मे ला खड़ा किया है।
कार्य करने का तरीका-
आर्कुट इस्तेमाल करने के लिये सर्वप्रथम इसमें एकाउंट होना आवश्यक है।इसके लिये आर्कुट की कुछ शर्तें होती है।इस एकाउंट के जरिये केटेगरी और रूचि के आधार पर मित्र बनाये जा सकते है।अथवा उन्हे मित्रता का निमंत्रण भेजा जा सकता है।इस लोकप्रियता की दर का अंदाजा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि जनवरी मे प्रारम्भ हुई इस साइट के सदस्यों की संख्या 10,00,000 थी जो कि सितम्बर में 20,00,000 तक पहुंच गयी।ताजा सर्वे के अनुसार 21 अगस्त 2007 को यह आकड़ा6,82,40,913 को भी पार कर गया।इस लोकप्रियता का मुख्य कारण है कि इसमे आपको अपने रूचि और पसन्द के आधार पर मित्र बनाने की स्वतंत्रता है और कई पुराने मित्रों को भी ढ़ूढा जा सकता है।
आर्कुट से जुड़े विवादित तथ्य-
स्वयं को सोशल नेटवर्क की संज्ञा देने वाला आर्कुट कभी-कभी कितना खतरनाक सिद्ध हो सकता है और केवल आम आदमी ही नहीं बल्कि जाने-माने लोग भी इसका शिकार हो सकते है-इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल के दिनों मे सामने आया है।आर्कुट पर सोनिया गांधी को अमेरिका ऐजेंट बताया गया था।मायावती से लेकर पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के फर्जी एकाउंट तैयार करने वालों की कोई कमी नही है।इस फर्जी एकाउंट मे तस्वीर तो बादल की ही है लेकिन जो सम्बन्धित जानकारियॉ डाली गयी हैं वह किसी ऐसे व्यक्ति की हैं जिसने स्वयं को मूल रूप से पट्रटी का तथा वर्तमान में अमृतसर का रहने वाला बताया है। इससे भी ज्यादा रोचक तथ्य यह है कि चीफ मिनिस्टर ऑफ पंजाब के नाम से बने इस प्रोफाइल मे मित्रों की संख्या केवल 10 है।जिनमें से 4 ने स्वयं को मुख्यमंत्री का फैन ्बताया है। बातचीत के तौर पर भेजे गये स्क्रैप्स की संख्या 29 अगस्त की शाम तक 64 थी। यह प्रोफाइल लगभग आठ माह पुराना है तथा अंतिम स्क्रैप 10 अगस्त को भेजा गया है। परन्तु इस स्क्रैप मे काफी आपत्तिजनक बातें लिखी गयी हैं।
दूसरी घटना में पिछले वर्ष 10 अक्टूबर 2006 को एक याचिका पर मुम्बई हाई कोर्ट ने गूगल को ‘इण्डिया के खिलाफ घृणा अभियान’ चलाने का नोटिस दिया था।शिव सेना के खिलाफ भी आर्कुट पर अभियान चलाया गया था।तब शिव सैनिकों ने क्रुद्ध होकर आर्कुट को मुम्बई और आसपास के इलाकों मे प्रतिबन्धित कर दिया था।
अपराध के लिये इस्तेमाल-
आज आर्कुट कम्यूटर हैकर्स की पहली पसन्द बनता जा रहा है।उनके द्वारा इसमें कई फर्जी लॉग इन पेज बनाऐ गये हैं।जिनसे यूजर्स के एकाउंट की जानकारी चुरा ली जाती है।मैथ्यू जेशेफर ने आ ई ओ स्फेअर जर्नल में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि आंतकी समूह अपनी गतिविधियों के लिये आर्कुट का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।
क्या है बचाव-
किसी भी को भी आर्कुट पर एकाउंट शुरू करने से पहले इसके नियम और शर्तें स्वीकार करनी होती हैं।परन्तु हैक करने के बाद कोई भी जानकारी किसी भी एकाउंट मे डाली जा सकती है।
परन्तु फिर भी कुछ सावधानियां बरतकर आर्कुट पर इन समस्याओं से एक हद तक बचा जा सकता है- अपनी वास्तविक और व्यक्गित जानकारी प्रोफाइल मे डालने से बचें।
फोटो के स्थान पर कोई वॉलपेपर या कार्टून कैरेक्टर का इस्तेमाल करना अच्छा होता है।
किसी की मित्रता का आंमत्रण स्वीकार करने से पहले उसका प्रोफाइल और उससे सम्बन्धित स्क्रैप्स जॉच ले और विश्वासनीयता सिद्ध होने पर ही उससे जुड़े।
इण्टरनेट पर बने मित्रों से एक दूरी बनाऐ रखें।
वैसे देखा जाऐ तो हर सिक्के के दो पहलू अवश्य होते हैं।आर्कुट की शुरूआत तो अच्छे मकसद के लिये की गयी थी,पर कुछ संकीर्ण मानसिकता वाले लोग जो कि हर जगह होते हैं अच्छाई मे भी बुराई को ढूढ ही लेते हैं।आर्कुट की छवि को धूमिल करने मे यही लोग जिम्मेदार हैं।जिनका मकसद केवल दूसरों के अहित से स्वयं की स्वार्थ सिद्धि है।
आर्कुट से जुड़ी ये घटना पहली और अकेली नही है।अभी कुछ दिन पहले मुम्बई के व्यापारी के अपह्रत पुत्र अदनान की हत्या को आर्कुट से जोड़ कर देखा जा रहा है।इस घटना ने आर्कुट को संदिग्धता की श्रेणी मे ला खड़ा किया है।अदनान के जिन दोस्तो ने उसका पहले तो अपहरण तथा फिर हत्या का कुर्कत्य किया,उनसे अदनान की मुलाकात मात्र छह: माह पहले आर्कुट के जरिये ही हुई थी।अगर विश्लेषण किया जाये तो आर्कुट से जुड़े अपराधों की संख्या बहुत लम्बी है।परन्तु इन सब पर चर्चा करने से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि आखिर क्या है ये आर्कुट-
आर्कुट की शुरूआत जनवरी2004 मे हुई थी।इसको बनाने का श्रेय आर्कुट बुयुक्कोकटेन को जाता है।दरअसल आर्कुट एक इण्टरनेट सोशल नेटवर्क है जो गूगल के द्वारा संचालित होता है आर्कुट के दावे के अनुसार यह साइट सामाजिक मेल-जोल को बढावा देती है।इसके द्वारा नये मित्र बनाऐ जा सकते है और पुराने मित्रो को ढ़ूढ़ा भी जा सकता है।वैसे देखा जाये ता गूगल ने आर्कुट की शुरूआत अच्छे मकसद से की थी पर कुछ गलत हाथों ने इसका आपराधिक इस्तेमाल करके इसे विवादों की श्रेणी मे ला खड़ा किया है।
कार्य करने का तरीका-
आर्कुट इस्तेमाल करने के लिये सर्वप्रथम इसमें एकाउंट होना आवश्यक है।इसके लिये आर्कुट की कुछ शर्तें होती है।इस एकाउंट के जरिये केटेगरी और रूचि के आधार पर मित्र बनाये जा सकते है।अथवा उन्हे मित्रता का निमंत्रण भेजा जा सकता है।इस लोकप्रियता की दर का अंदाजा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि जनवरी मे प्रारम्भ हुई इस साइट के सदस्यों की संख्या 10,00,000 थी जो कि सितम्बर में 20,00,000 तक पहुंच गयी।ताजा सर्वे के अनुसार 21 अगस्त 2007 को यह आकड़ा6,82,40,913 को भी पार कर गया।इस लोकप्रियता का मुख्य कारण है कि इसमे आपको अपने रूचि और पसन्द के आधार पर मित्र बनाने की स्वतंत्रता है और कई पुराने मित्रों को भी ढ़ूढा जा सकता है।
आर्कुट से जुड़े विवादित तथ्य-
स्वयं को सोशल नेटवर्क की संज्ञा देने वाला आर्कुट कभी-कभी कितना खतरनाक सिद्ध हो सकता है और केवल आम आदमी ही नहीं बल्कि जाने-माने लोग भी इसका शिकार हो सकते है-इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल के दिनों मे सामने आया है।आर्कुट पर सोनिया गांधी को अमेरिका ऐजेंट बताया गया था।मायावती से लेकर पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के फर्जी एकाउंट तैयार करने वालों की कोई कमी नही है।इस फर्जी एकाउंट मे तस्वीर तो बादल की ही है लेकिन जो सम्बन्धित जानकारियॉ डाली गयी हैं वह किसी ऐसे व्यक्ति की हैं जिसने स्वयं को मूल रूप से पट्रटी का तथा वर्तमान में अमृतसर का रहने वाला बताया है। इससे भी ज्यादा रोचक तथ्य यह है कि चीफ मिनिस्टर ऑफ पंजाब के नाम से बने इस प्रोफाइल मे मित्रों की संख्या केवल 10 है।जिनमें से 4 ने स्वयं को मुख्यमंत्री का फैन ्बताया है। बातचीत के तौर पर भेजे गये स्क्रैप्स की संख्या 29 अगस्त की शाम तक 64 थी। यह प्रोफाइल लगभग आठ माह पुराना है तथा अंतिम स्क्रैप 10 अगस्त को भेजा गया है। परन्तु इस स्क्रैप मे काफी आपत्तिजनक बातें लिखी गयी हैं।
दूसरी घटना में पिछले वर्ष 10 अक्टूबर 2006 को एक याचिका पर मुम्बई हाई कोर्ट ने गूगल को ‘इण्डिया के खिलाफ घृणा अभियान’ चलाने का नोटिस दिया था।शिव सेना के खिलाफ भी आर्कुट पर अभियान चलाया गया था।तब शिव सैनिकों ने क्रुद्ध होकर आर्कुट को मुम्बई और आसपास के इलाकों मे प्रतिबन्धित कर दिया था।
अपराध के लिये इस्तेमाल-
आज आर्कुट कम्यूटर हैकर्स की पहली पसन्द बनता जा रहा है।उनके द्वारा इसमें कई फर्जी लॉग इन पेज बनाऐ गये हैं।जिनसे यूजर्स के एकाउंट की जानकारी चुरा ली जाती है।मैथ्यू जेशेफर ने आ ई ओ स्फेअर जर्नल में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि आंतकी समूह अपनी गतिविधियों के लिये आर्कुट का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।
क्या है बचाव-
किसी भी को भी आर्कुट पर एकाउंट शुरू करने से पहले इसके नियम और शर्तें स्वीकार करनी होती हैं।परन्तु हैक करने के बाद कोई भी जानकारी किसी भी एकाउंट मे डाली जा सकती है।
परन्तु फिर भी कुछ सावधानियां बरतकर आर्कुट पर इन समस्याओं से एक हद तक बचा जा सकता है- अपनी वास्तविक और व्यक्गित जानकारी प्रोफाइल मे डालने से बचें।
फोटो के स्थान पर कोई वॉलपेपर या कार्टून कैरेक्टर का इस्तेमाल करना अच्छा होता है।
किसी की मित्रता का आंमत्रण स्वीकार करने से पहले उसका प्रोफाइल और उससे सम्बन्धित स्क्रैप्स जॉच ले और विश्वासनीयता सिद्ध होने पर ही उससे जुड़े।
इण्टरनेट पर बने मित्रों से एक दूरी बनाऐ रखें।
वैसे देखा जाऐ तो हर सिक्के के दो पहलू अवश्य होते हैं।आर्कुट की शुरूआत तो अच्छे मकसद के लिये की गयी थी,पर कुछ संकीर्ण मानसिकता वाले लोग जो कि हर जगह होते हैं अच्छाई मे भी बुराई को ढूढ ही लेते हैं।आर्कुट की छवि को धूमिल करने मे यही लोग जिम्मेदार हैं।जिनका मकसद केवल दूसरों के अहित से स्वयं की स्वार्थ सिद्धि है।
अप्रतिम सौंदर्य का प्रतीक – नैनीताल
एक शहर जिसकी खूबसूरती ही उसकी पहचान है। बात हो रही है उत्तरांचल की। चारों ओर सुन्दर और घनी वादियों से घिरे इस शहर को देखकर ऐसा लगता है कि कुदरत ने इस जगह को बेपनाह हुस्न बख्शा है।
नैनीताल की खोज मिस्टर पी. बैरन ने १८४० में की थी। इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाती है यहां स्थित नैनी झील। जिसके कारण इसे सरोवर नगरी भी कहा जाता है। आंख का आकार लिये हुए इस झील के बारे में मान्यता यह है कि पार्वती अपने पूर्व जन्म में सती राजा की पुत्री थी। उस जन्म में भगवान शिव से रुष्ट होकर वह सती हो गयी थी। तब उनकी आंख इस जगह पर गिरी थी। वैसे यह झील अपना रंग बदलती रहती है। कभी हरा तो कभी नीला। इस झील की गहराई भी बहुत अधिक है। पर्यटक झील का आनन्द नौकायन द्वारा करते हैं। झील के समीप ही नयना देवी मंदिर भी है जो कि बहुत पुराना है और मान्यता भी बहुत अधिक है। यहीं पर प्रसिद्ध नन्दा देवी का मेला लगता है।
नैनीताल का इतिहास पौराणिक कथाओं में कितना सच है, इस बात के पुख्ता सबूत नहीं परन्तु यह शहर अंग्रेजी हुकूमत का साक्षी है व उसके कई साक्ष्य भी यहां मौजूद हैं। अंग्रेजों का इस शहर से लगाव उनके द्वारा बनवाये गये भवनों और सड़कों से लगाया जा सकता है। यहां कि प्रसिद्ध माल रोड को अंग्रेजों ने निर्मित करवाया था। हिन्दुस्तानियों के प्रति उनकी घृणा और तिरस्कार यह सड़क आज भी बयां करती है। अंग्रेजों ने इस मार्ग को ऊपर-नीचे दो हिस्सों में बांटा था। ऊंची सड़क सिर्फ अंग्रेजों के लिये थी तथा निचले मार्ग से हिन्दुस्तानी जाते थे। भारतियों को ऊपरी सड़क पर चलने की सख्त मनाही थी।
माल रोड के अलावा अंग्रेजों ने राजभवन का निर्माण करवाया था, जो आज भी सचमुच किसी राजा के महल के समान प्रतीत होता रहै। वर्तमान उत्तरांचल का उच्च न्यायालय जो कि नैनीताल में स्थित है, अंग्रेजों द्वारा निर्मित है। इसकी बनावट व खूबसूरत देखते ही बनती है।
हर वर्ष हजारों देशी-विदेशी सैलानी नैनीताल घूमने आते है। यहां देखने के लिये बहुत ही जगह है। जैसे स्नो व्यू, टिफिन टाप, नैना पीक आदि। यह पिकनिक पाइंट बहुत ऊंचाई पर है। इनमें से स्नो व्यू पर आप रोप-वे से भी जा सकते हैं। अगर मौसम सुहावना है तो आप यहां से दूरबीन द्वारा दूर पहाड़ों पर बिखरी बर्फ को भी देख सकते हैं। यहां एक प्राणी उद्यान भी है, जहां बहुत से दुलर्भ प्राणियों को भी देखा जा सकता है। यहां का साइबेरियन बाघ इस प्राणी उद्यान की शान है। यहां पर कई पक्षी ऐसे हैं जिनकी जाति विलुप्त होने के कगार पर है। नैनीताल में एक जगह कैमल्स बैक के नाम से प्रसिद्ध है। यहां पर कुछ पहाड़ियां एक साथ इस तरह की हैं कि मानो बहुत से ऊंट बैठे हों। कैमल्स बैक से कुछ दूरों पर लैण्ड्स एंड है। यहां ऐसा लगता है कि धरती का यह आखिरी छोर है और आगे धरती समाप्त हो गई। नैनीताल पर्यटन स्थल के अलावा एक और बात के लिये प्रसिद्ध है, वह है यहां कि खूबसूरत मोमबत्तियां। यहां तरह-तरह के आकार की रंग-बिरंगी मोमबत्तियां बनाई जाती है, जिसे यहां आये हुए सैलानी खरीदना नहीं भूलते।
यहां के लकड़ी के बने शो-पीस बहुत ही खूबसूरत होते हैं। वर्षा ऋतु को छोड़कर यहां वर्ष भर पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है। शीत ऋतु में यहां गिरने वाली बर्फ भी पर्यटकों को अपने ओर खींचने लगती है। शीत ऋतु में बर्फ की चादर ओढे नैनीताल और भी खूबसूरत लगता है। हर साल हजारों सैलानी नववर्ष मनाने यहां आते हैं।
सिर्फ नैनीताल ही नहीं, बल्कि इससे जुड़े आस-पास के इलाके भी देखने योग्य है। नैनीताल से २२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित भीमताल भी एक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। यहां पर एक झील भी है। इस झील की सबसे खास बात यह है कि झील के बीचों-बीच एक टापू है, इस टापू पर एक रेस्टोरेंट है। पर्यटकों को इस जगह पर आने के लिये नाव का सहारा लेना पड़ता है। नैनीताल से २३ किलोमीटर दूर सात ताल है। कहा जाता है कि इस ताल के सात कोने है, पर कोई भी व्यक्ति पूरे सात कोनों को एक साथ नहीं देख सकता।
वर्तमान समय में पर्यावरण के बढते प्रदूषण से नैनीताल भी अछूता नहीं रहा है। प्रदूषण के कारण यहां की नैनी झील भी मैली हो चुकी है। हर वर्ष यहां मरने वाली मछलियों की संख्या में तेजी पाई गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण यहां के तापमान में भी बढोतरी हुई है। यहां गिरने वाली बर्फ में भारी कमी आई है। हालांकि प्रशासन इस प्राकृतिक धरोहर को प्रदूषण मुक्त करने के बहुत से उपाय कर रहा है, जिसके चलते नैनीताल में पालीथीन के प्रयोग पर प्रतिबंध है। इतना करना पूर्ण नहीं है। यहां आने वाले पर्यटकों को भी इस जगह के प्रति अपना दायित्व समझना होगा। भविष्य में हम लोग नैनीताल को किताबों में देखना चाहते हैं या यथार्थ में। यह हम सबको मिलकर तय करना है।
नैनीताल की खोज मिस्टर पी. बैरन ने १८४० में की थी। इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाती है यहां स्थित नैनी झील। जिसके कारण इसे सरोवर नगरी भी कहा जाता है। आंख का आकार लिये हुए इस झील के बारे में मान्यता यह है कि पार्वती अपने पूर्व जन्म में सती राजा की पुत्री थी। उस जन्म में भगवान शिव से रुष्ट होकर वह सती हो गयी थी। तब उनकी आंख इस जगह पर गिरी थी। वैसे यह झील अपना रंग बदलती रहती है। कभी हरा तो कभी नीला। इस झील की गहराई भी बहुत अधिक है। पर्यटक झील का आनन्द नौकायन द्वारा करते हैं। झील के समीप ही नयना देवी मंदिर भी है जो कि बहुत पुराना है और मान्यता भी बहुत अधिक है। यहीं पर प्रसिद्ध नन्दा देवी का मेला लगता है।
नैनीताल का इतिहास पौराणिक कथाओं में कितना सच है, इस बात के पुख्ता सबूत नहीं परन्तु यह शहर अंग्रेजी हुकूमत का साक्षी है व उसके कई साक्ष्य भी यहां मौजूद हैं। अंग्रेजों का इस शहर से लगाव उनके द्वारा बनवाये गये भवनों और सड़कों से लगाया जा सकता है। यहां कि प्रसिद्ध माल रोड को अंग्रेजों ने निर्मित करवाया था। हिन्दुस्तानियों के प्रति उनकी घृणा और तिरस्कार यह सड़क आज भी बयां करती है। अंग्रेजों ने इस मार्ग को ऊपर-नीचे दो हिस्सों में बांटा था। ऊंची सड़क सिर्फ अंग्रेजों के लिये थी तथा निचले मार्ग से हिन्दुस्तानी जाते थे। भारतियों को ऊपरी सड़क पर चलने की सख्त मनाही थी।
माल रोड के अलावा अंग्रेजों ने राजभवन का निर्माण करवाया था, जो आज भी सचमुच किसी राजा के महल के समान प्रतीत होता रहै। वर्तमान उत्तरांचल का उच्च न्यायालय जो कि नैनीताल में स्थित है, अंग्रेजों द्वारा निर्मित है। इसकी बनावट व खूबसूरत देखते ही बनती है।
हर वर्ष हजारों देशी-विदेशी सैलानी नैनीताल घूमने आते है। यहां देखने के लिये बहुत ही जगह है। जैसे स्नो व्यू, टिफिन टाप, नैना पीक आदि। यह पिकनिक पाइंट बहुत ऊंचाई पर है। इनमें से स्नो व्यू पर आप रोप-वे से भी जा सकते हैं। अगर मौसम सुहावना है तो आप यहां से दूरबीन द्वारा दूर पहाड़ों पर बिखरी बर्फ को भी देख सकते हैं। यहां एक प्राणी उद्यान भी है, जहां बहुत से दुलर्भ प्राणियों को भी देखा जा सकता है। यहां का साइबेरियन बाघ इस प्राणी उद्यान की शान है। यहां पर कई पक्षी ऐसे हैं जिनकी जाति विलुप्त होने के कगार पर है। नैनीताल में एक जगह कैमल्स बैक के नाम से प्रसिद्ध है। यहां पर कुछ पहाड़ियां एक साथ इस तरह की हैं कि मानो बहुत से ऊंट बैठे हों। कैमल्स बैक से कुछ दूरों पर लैण्ड्स एंड है। यहां ऐसा लगता है कि धरती का यह आखिरी छोर है और आगे धरती समाप्त हो गई। नैनीताल पर्यटन स्थल के अलावा एक और बात के लिये प्रसिद्ध है, वह है यहां कि खूबसूरत मोमबत्तियां। यहां तरह-तरह के आकार की रंग-बिरंगी मोमबत्तियां बनाई जाती है, जिसे यहां आये हुए सैलानी खरीदना नहीं भूलते।
यहां के लकड़ी के बने शो-पीस बहुत ही खूबसूरत होते हैं। वर्षा ऋतु को छोड़कर यहां वर्ष भर पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है। शीत ऋतु में यहां गिरने वाली बर्फ भी पर्यटकों को अपने ओर खींचने लगती है। शीत ऋतु में बर्फ की चादर ओढे नैनीताल और भी खूबसूरत लगता है। हर साल हजारों सैलानी नववर्ष मनाने यहां आते हैं।
सिर्फ नैनीताल ही नहीं, बल्कि इससे जुड़े आस-पास के इलाके भी देखने योग्य है। नैनीताल से २२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित भीमताल भी एक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। यहां पर एक झील भी है। इस झील की सबसे खास बात यह है कि झील के बीचों-बीच एक टापू है, इस टापू पर एक रेस्टोरेंट है। पर्यटकों को इस जगह पर आने के लिये नाव का सहारा लेना पड़ता है। नैनीताल से २३ किलोमीटर दूर सात ताल है। कहा जाता है कि इस ताल के सात कोने है, पर कोई भी व्यक्ति पूरे सात कोनों को एक साथ नहीं देख सकता।
वर्तमान समय में पर्यावरण के बढते प्रदूषण से नैनीताल भी अछूता नहीं रहा है। प्रदूषण के कारण यहां की नैनी झील भी मैली हो चुकी है। हर वर्ष यहां मरने वाली मछलियों की संख्या में तेजी पाई गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण यहां के तापमान में भी बढोतरी हुई है। यहां गिरने वाली बर्फ में भारी कमी आई है। हालांकि प्रशासन इस प्राकृतिक धरोहर को प्रदूषण मुक्त करने के बहुत से उपाय कर रहा है, जिसके चलते नैनीताल में पालीथीन के प्रयोग पर प्रतिबंध है। इतना करना पूर्ण नहीं है। यहां आने वाले पर्यटकों को भी इस जगह के प्रति अपना दायित्व समझना होगा। भविष्य में हम लोग नैनीताल को किताबों में देखना चाहते हैं या यथार्थ में। यह हम सबको मिलकर तय करना है।
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