
कहते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है।जो कि ठीक भी है।तो लीजिये अभिनय की नयी फसल तैयार है।पर यह फसल फिल्म इण्डस्ट्री की खुद की खेती है।साफ शब्दों मे कहूं तो ये नयी पीढी फिल्म कलाकारों की वह संताने हैं जिन्हे अभिनय अपने माता-पिता से विरासत में मिला है।जिसका सबसे बड़ा लाभ इन लोगों को यह मिलता है कि इन्हे अन्य लोगों की तरह फिल्मों मे कदम रखने के लिये कड़ा संघर्ष नहीं करना पड़ता।जिसका सबसे ताजा उदाहरण है-संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘सांवरिया’।जरा सोचिये अगर रणवीर कपूर ऋषि कपूर के और सोनम अनिल कपूर की बेटी ना होती तो क्या भंसाली उनको इतनी सरलता से अपनी फिल्म के लिये चुनते।इसी तरह से ‘दिल दोस्ती ईटीसी’से आगाज करने वाले इमाद शाह अभिनेता नसीरूद्वीन शाह के सुपुत्र हैं।ऐसे ही और कई नाम फिल्मी दुनिया में कदम रखने को तैयार खड़े हैं।इस नयी पीढी को फिल्मों मे पहला कदम रखने मे कोई परेशानी नहीं होती,बल्कि फिल्मकार स्वंय पलकें बिछाकर इन्हें साइन करने को तैयार रहते हैं।पर इन सभी को एक परेशानी का सामना अवश्य करना पड़ता है।वह यह कि दर्शक इनकी तुलना इनके माता पिता से अवश्य करते हैं।जिसके चलते नयी पीढी स्वयं को एक अलग पहचान बनाने में बहुत संघर्ष करना पड़ता है।इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है अभिषेक बच्चन।जिन्हे अपने पिता की छवि से बाहर आने मे 7 साल लग गये।आज अगर उनकी खुद की एक अलग पहचान है तो इसका पूरा श्रेय जाता है उनकी कड़ी मेहनत और संघर्ष को। जबकि अगर देखा जाये तो बाहर से आये कलाकारों को अपनी पहचान बनाने मे ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती है।क्योकि लोग उन्हें उनके नाम से ज्यादा उनके काम से पहचानते हैं।चलिये छोडिये फायदे –नुकसान की बातें।गौर करने वाली बात तो यह है कि इस नयी पीढ़ी मे कितना दम है।ये नयी पीढ़ी अपनी विरासत को संभालने मे कितना सफल हो पाती है इसका फैसला तो आने वाला वक्त ही बताऐगा।