दिल्ली सरकार की बेइंतहा कोशिशें भी दिल्ली के ट्रैफिक जाम की समस्या का हल नहीं ढूंढ पा रही हैं। जब महानगर में मेट्रो की शुरूआत की गयी थी तो लोगों के अंदर बड़ी उम्मीद जागी थी कि शायद अब ट्रैफिक जाम बीते दिनों की बात हो जाऐगी। पर ये ख्वाब दिल्ली वालों के लिऐ ख्वाब ही रह गया। क्योकि मेट्रो का आरामदायक सफर भी शहर के लोगों की समस्या का सुलझाने मे असमर्थ रहा। मेट्रो मे तो भीड़ हुई ही परन्तु साथ ही सड़क पर गाडियों की तादाद भी ज्यों की त्यों ही रही।
फिर कुछ माह पहले दिल्ली सरकार ने एसी बसों को बड़ी उम्मीद के साथ दिल्ली की सड़कों पर उतारा, कि शायद अब कुछ राहत मिले। पर नतीजा वही का वही। बड़े-बड़े जाम और उसमें कुछ इंच आगे बढ़ने की जद्दोजहद करते लोग।
मुझे सबसे ज्यादा हैरानी इस बात की हुई कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें आसमान छूने को तैयार हो गयी पर सड़कों पर गाडियों की संख्या मे कमी दिखाई दी हो। शायद पूरी दिल्ली में एक भी गाडी वाला व्यक्ति ऐसा नही होगा जिसने अपनी गाडी पेट्रोल की बढी हुई कीमतों के कारण घर पर खड़ी कर दी हो। इस से तो यही होता है कि दिल्ली वालों का केवल दिल ही बडा नहीं है बल्कि जेब भी बहुत बडी है। अगर एक घर मे चार लोग हैं तो क्या ये जरूरी है कि चारों के पास अपनी एक एक कार होनी चाहिये। अगर एक घर में एक ही गाडी उपयोग मे लाई जाऐ तो ट्रैफिक की समस्या के साथ साथ पेट्रोल की किल्लत से भी मुक्ति मिल जाऐगी। परन्तु अगर लोगों का रवैया इसी प्रकार का रहा तो सरकार चाहे जितने भी उपाय कर ले, इस ट्रैफिक जाम की समस्या से छुटकारा पाना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जाऐगा।
बुधवार, 6 अगस्त 2008
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