मंगलवार, 1 अप्रैल 2008

बाल-मजदूरी का मूक गवाह बनता इंडिया गेट

रविवार की शाम मित्रों के साथ इंडिया गेट जाने का कार्यक्रम बना। सो शाम को इंडिया गेट के सामने बस से उतरकर हम तीनों ने इंडिया गेट की राह ली। रविवार यानि कि छुट्टी का दिन होने से यहां काफी भीड़-भाड़ का माहौल था। लोग अपने- अपने परिवारों के साथ इस मनोरम स्‍थल का आनन्‍द उठाने आये थे। पर उसी के साथ यहां कूड़े के ढ़ेर उन तमाम लोगों की अपने इस देश की राष्‍ट्रीय धरोहर के प्रति स्‍नेह को भी दर्शा रहे थे। ये गन्‍दगी इस बात का सबूत थी कि दिल्‍ली वाले इंडिया गेट को केवल एक पर्यटन स्‍थल मानते हैं।

पर जिस घटना ने मुझे झकझोर के रख दिया, वह साफ-सफाई की बात से भी ऊपर थी। हम तीनों भी थोड़ी देर वहां मैदान मे कुछ पल बिताने के लिये बैठे। हमारे बैठने के पांच या दस मिनट बाद ही वहां अचानक से एक 5-6 वर्षीय बालक एक तश्‍तरी लेकर खड़ा हो गया। हमारी तरफ देखकर बोला, चाय या कांफी लेगें आप? हमारे पूछने पर उसने बताया कि वह वहीं सामने एक चाय के ठेले पर काम करता है। और ऐसे ही ग्राहकों से आर्डर लेता और पहुंचाता है। हमने पूछा कि यह दुकान उसके पिता की है? तो उसने बताया कि वह यहां ध्‍याड़ी पर काम करता है।

यह देखकर हम लोग सन्‍न रह गये कि जहां दिल्‍ली मे सरकार बाल मजदूरी को रोकने के लिये तरह- तरह के कानून बना रही है, वही दूसरी ओर रा‍ष्‍ट्रपति भवन के ठीक सामने देश के कानून व्‍यवस्‍था की धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। और वह भी इंडिया गेट पर, जहां चौबीसों घण्‍टे कड़ी चौकसी रहती है।

हमसे आर्डर के लिये पूछने वाला वह बच्‍चा अकेला नही था। उसके जैसे वहां अनगिनत और बच्‍चे मौजूद थे। जो किसी ना किसी दुकान पर काम कर रहे थे। हमारे ज्‍यादातर सवालों वह बच्‍चा मौन साधा रहा। बहुत संभव है कि इसके लिये उसके मालिक ने सख्‍ती से मना किया हो।

क्‍या हमारी कानून व्‍यवस्‍था क्‍या इतनी अन्‍धी और लाचार हो गयी है कि उसे अपने ही सामने बाल श्रम कर रहे बच्‍चे नहीं दिख पा रहे हैं। वहां दिन रात घूमती पुलिस को क्‍या यह नहीं पता है कि हमारे देश मे बाल श्रम गैरकानूनी है? या फिर ऐसा तो नहीं कि हमारे देश के रक्षक भी इसमें शामिल हैं और ये सब कानून केवल दिखावे के लिये बनाऐ गये हैं। सच्‍चाई चाहे जो भी हो परन्‍तु अगर दिल्‍ली सरकार ऐसे ही अपनी आंखों देखी मक्‍खी निगलती रही तो देश की कानून व्‍यवस्‍था पर से आम जनता का भरोसा उठ जायेगा।A

रविवार, 30 मार्च 2008

मुंबई सिर्फ मुंबई वालों की जागीर ?

बचपन में एक बहुत महशूर पंक्ति सुनी थी कि मुंबई सपनों का शहर है। यहां लोग अपने सपनों को हकीकत में बदलने आते हैं। पर पिछले कुछ समय से इस शहर ने उत्‍तर भारतीय राज्‍यों के लोगों के साथ जो र्दुव्‍यवहार किया है, उसे देखते हुऐ तो यह लगता है कि अब गैर मुंबईवासियों के लिये सिर्फ डरावने सपनों का शहर बनकर रह गया है।

पिछले कुछ समय से महाराष्‍ट्र में उत्‍तर भारतीयों पर हमलों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। बीते शनिवार को ही सेंट्रल मुंबई में कुछ लोगों ने पांच टैक्सियों पर हमला करके उन्‍हें शतिग्रस्‍त कर दिया। बताया जा रहा है कि कुछ मोटर साइकिल सवारों ने पहले टैक्‍सी मालिकों से पूछा कि वे कहां से ताल्‍लुक रखते हैं। उनके यह बताये जाने पर कि वे उत्‍तर भारत से ताल्‍लुक रखते हैं उनकी टैक्सियों पर हमला करके उन्‍हें चकनाचूर कर दिया गया।
मुझे समझ नहीं आता कि अचानक से मुंबई क्षेत्रवाद क्‍यों करने लगी? इतने सालों से बाहर से लोग यहां आकर अपनी रोजी-रोटी का उपाय कर रहे हैं। पर अचानक से मुंबईवालों का ऐसा क्‍यों लगने लगा कि मुंबई सिर्फ उनकी जागीर है। क्‍या मुंबई को इस मुकाम तक पहुंचाने मे सिर्फ उनका का ही एकमात्र योगदान है?

सबसे महत्‍वपूर्ण बात तो यह है कि कोई भी व्‍यक्ति अगर अपना घर छोड़कर मीलों दूर रोजी-रोटी का साधन ढ़ूंढने आता है तो उसके पीछे उसकी मर्जी से ज्‍यादा मजबूरी होती है। ताकि हजारों मील दूर बैठा उनका परिवार चैन की रोटी खा सके। क्‍या उनके मन में अपने परिवार से मिलने की कसक नहीं उठती होगी। एक तो परिवार से दूरी का गम और उस पर दूसरे राज्‍य में भी परायों सा व्‍यवहार। मुंबई इतनी कठोर कैसे हो सकती है? बल्कि उसे तो चाहिये कि वह दूसरे राज्‍यों से आने वाले लोगों को अपनेपन का अहसास दिलाये ताकि उन्‍हें कभी अपने घरों से दूर होने का एहसास ना हो। अगर सारे राज्‍य दूसरे राज्‍यों से आये लोगों को अपना दुश्‍मन समझकर उनके साथ र्दुव्‍यवहार करने लगे तो देश की अखण्‍डता चूर-चूर हो जायेगी। और इसके जिम्‍मेदार होगें हम स्‍वयं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,