शनिवार, 15 सितंबर 2007

हिन्दी दिवस का औचित्य

हिन्दी उस बाजार में ठिठकी हुई-सी खड़ी है, जहाँ कहने को सब अपने हैं, लेकिन फिर भी बेगाने से... इस बेगानेपन की टहनियों से भी उम्मीद की कोपलें फूट रही हैं। क्योंकि हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है, लेकिन उसकी पठनीयता, उसका साहित्य सिसकियाँ भर रहा है। क्या हिन्दी समाज ने खुद ही हिन्दी को रद्द कर दिया है? इसमें दोष भाषा का नहीं, बल्कि बाजार का है। वैसे भी बाजार का सीधा-सा नियम है बेचना। इस बेचने से कोई भाषा कैसे बच सकती है?
आज हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए सामूहिक होकर उसके साहित्य और उससे जुड़ी बोलियों को पूरी कर्मठता से आगे ठेलने की जरूरत है। तब ही होगा हिन्दी दिवस साकार, हिन्दी का उद्धार।
आमतौर पर हिन्दीभाषी क्षेत्र में कहा जाता है कि यहाँ साहित्य पर वह माहौल नहीं है जितना अन्य भाषाई क्षेत्रों में है। इस बात में काफी सचाई भी है क्योंकि गत पाँच दशक के मनन, अवलोकन के बाद ऐसी टिप्पणियाँ अब ज्यादा मुखर हो रही हैं। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ब्रिटिश व्यापारवाद ने बंगला भाषा पर आक्रमण किया था। लेकिन बंगाल में चले सुधारवादी आंदोलनों से, आध्यत्मिक उभार ने, नवचेतना ने (राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, चैतन्य महाप्रभु, चंडीदास, बंकिमचंद्र, विवेकानंद, काजी नजरुल इस्लाम, रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरद बाबू) बांग्ला भाषा, साहित्य, चेतना को और ज्यादा ऊँचाई दी।
बांग्ला पूरी शिद्दत से भारत की प्रवक्ता भाषा भी सिद्ध हुई। इस पूरी प्रक्रिया में बंगाल (इससे लगे असम तथा उड़िया भाषा में भी) में भाषा तथा साहित्य में विवेकपूर्ण आचरण भी विकसित हुआ जो आज के आपाधापी पूर्ण समय में भी बदस्तूर जारी है। बांग्ला में कोई भी साहित्यकार हो, हर रचनाधर्मी, लेखक कलाकार के अवदान को स्वीकारा जाता है- विचारधारा के संघर्ष, पक्षधरता के बावजूद विरोधी लेखक के रचना पाठ में उसकी छपी रचना पर हो रही चर्चा में उसको एक सिरे से खारिज नहीं किया जाता। उसके भाषाई, साहित्यिक जनप्रतिबद्धता, भाषा-बोली को स्वीकारा जाता है।
हिन्दी का क्षेत्र व्यापक है। हिन्दी सिर्फ इसीलिए ही व्यापक नहीं है कि वह ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाती है बल्कि हिन्दी का साहित्य ज्यादा व्यापक है। उसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो अपने में एक बड़ी परंपरा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।
वह किसी खेमे से प्रमाण-पत्र का मुँह नहीं देखती। बल्कि स्थिति यह है कि 'मठों' को अपनी बोलियों के जनसंघर्ष के स्पंदन उनके ई.सी.जी. नहीं पकड़ पाते हैं। आज हिन्दी में काफी लिखा जा रहा, बेहतर लिखा जा रहा है, कहानी में व्यापक फलक हैं, बारीकियाँ हैं। कविता में जबर्दस्त चेतना, भाषा का प्रवाह, चट्टानों को आकार में बदलने की उद्दाम छटपटाहट है।
निबंधों में नया विकास सामने आया है। उपन्यासों में नवीन इलाके, बंजर हो रही जमीन को उर्वरा बनाने का रचनात्मक जोश साफ झलक रहा है। इस पूरे रचनाक्रम में पूरी भारतीय मनीषा की उपस्थिति है। बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान सहित चीनी, ईरानी, अफ्रीकी रचनाओं में भी बराबरी से आ रहा है। चीनी साहित्यकार 'मो यान' की रचनाएँ कहीं भी पराई नहीं लगतीं। उसकी जमीन, वही है जो नेरुदा की है, पोट्टेकाट, भीष्म साहनी की है।
हिन्दी में स्थानीयता अंततः विश्व विरासत का रचनाकर्म ही है जो उसे अभिव्यक्त करती है। हिन्दी संसार में परेशानी है कि अपने-अपने खेमों, अपने तंबुओं को सही साहित्य बताने की 'जिद' ने हिन्दी को परेशानी में डाल दिया है। जरूरत बांग्ला भाषा, असमी भाषा वाली विवेकशीलता की है। बेशक हम-आप अपने-अपने घरों की सुविधाओं में रहें, लेकिन साहित्यिक ईद या दशहरे पर एक-दूसरे से गले तो मिलें। अंततः हम एक महत्वपूर्ण भाषा में लिखते हैं और साहित्य जैसे जवाबदार कर्म से जुड़े हैं अतः हिन्दी का हित, उसका विकास प्रथम प्राथमिकता में होना चाहिए। वाद और विचार, समाज से आते हैं इसलिए समाज की प्राथमिकता जरूरी है- वह बचेगा, वह समृद्ध होगा तो वाद-विचार भी पुख्ता होकर उभरेगा। हिन्दी की स्थिति ऐसी है जैसे विदेशी आक्रमणों के वक्त भी राजाओं, नवाबों ने आपसी लड़ाइयाँ नहीं छोड़ी थीं। शेष इतिहास हम जानते हैं। इस वक्त भी हिन्दी को बाजारवाद लील रहा है।
अब वह सिर्फ हिन्दी मानक भाषा के बरखिलाफ ही नहीं वरन हिन्दी की ताकत उसकी बोलियों की तरफ है। नरभक्षी की दाढ़ में खून लगा है। वह स्वाद चख चुका है। बाजारवाद, बोलियों के मासूम आँगन में जा घुसा है। यदि बोलियाँ ध्वस्त हो गईं तो हिन्दी का शक्तिकेंद्र ही ढीला पड़ जाएगा। एक बोली या भाषा का मरना सिर्फ अक्षरों की मौत नहीं होती पूरी, अभिव्यक्ति, पूरा देश, पूरी रवायत, पूरी संस्कृति अपाहिज हो जाती है। अफ्रीका के कई देश साम्राज्यवाद, आर्थिक साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। बेहतर होगा, हिन्दी क्षेत्र खेमावाद छोड़े, समीक्षा बाहर निकले, वरना अपनों की हत्या करने वाला विजेता नहीं बनता। इस समय बोलियों, उसकी परंपरा तथा भारतीय भाषाओं, हिन्दी में भातृभाव की सर्वाधिक जरूरत है।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

राष्ट्रभाषा हिन्दी : दशा और दिशा

Technorati Profile जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ था तब हमने सोचा था कि हमारे आजाद देश में हमारी अपनी भाषा, अपनी संस्कृति होगी लेकिन यह क्या? अँग्रेजों से तो हम स्वतंत्र हो गए पर अँग्रेजी ने हमको जकड़ लिया।
हम यह बात कर रहे हैं कि हिन्दी भाषी राज्यों को अँग्रेजी की जगह हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। महात्मा गाँधी के समय से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दक्षिण भार‍त नाम की संस्था अपना काम कर रही थी। दूसरी तरफ सरकार स्वयं हिन्दी को प्रोत्साहन दे रही थी यानी अब हिन्दी के प्रति कोई विरोधाभाव नहीं था और जहाँ तक हमारा प्रश्न है हम बिलकुल नहीं चाहते कि देश के किसी भी हिस्से पर हिन्दी को आरोपित किया जाए।
अँग्रेजी विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रमुख भाषा है। दरअसल हम कहते हैं कि 'अँग्रेजी हटाओ ', यह नहीं कहते हैं कि ' अँग्रेजी मिटाओ' । हमारी बात लोग गलत समझते है। हमारा यह तात्पर्य नहीं कि अँग्रेजी को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए क्योंकि यह सच है कि यह हमें साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली है। वैसे भी आज हिन्दी को यह सम्मान नहीं मिल पा रहा है।
अँग्रेजी के इस बढ़ते प्रचलन के कारण एक साधारण हिन्दी भाषी नागरिक आज यह सोचने पर मजबूर है कि क्या हमारी पवित्र पुस्तकें जो हिन्दी में हैं , वह भी अँग्रेजी में हो जाएँगी। हमारा राष्‍ट्रगीत , राष्ट्रगान, हमारी पूजा-प्रार्थना सब अँग्रेजी में हो जाएँगे। हम गर्व से कहते हैं कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। इसे हम भारतवासी को अपनाना चाहिए, लेकिन आजकल की पीढ़ी जब भी अपना मुँह खोलती है तो सिर्फ और सिर्फ अँग्रेजी ही बोलती है। क्या इस प्रकार के रवैये से हमारी यह उम्मीद कि 'हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना ' कभी संभव हो पाएगा।
हिन्दी , भाषाई विविधता का एक ऐसा स्वरूप जिसने वर्तमान में अपनी व्यापकता में कितनी ही बोलियों और भाषाओं को सँजोया है। जिस तरह हमारी सभ्यता ने हजारों सावन और हजारों पतझड़ देखें हैं , ठीक उसी तरह हिन्दी भी उस शिशु के समान है , जिसने अपनी माता के गर्भ में ही हर तरह के मौसम देखने शुरू कर दिए थे। हिन्दी की यह माता थी संस्कृत भाषा , जिसके अति क्लिष्ट स्परूप और अरबी , फारसी जैसी विदेशी और पाली, पाकृत जैसी देशी भाषाओं के मिश्रण ने हिन्दी को अस्तित्व प्रदान किया। जिस शिशु को इतनी सारी भाषाएँ अपने प्रेम से सींचे उसके गठन की मजबूती का अंदाज लगाना बहुत मुश्किल है।
सातवीं शताब्दी (ई.पू.) से दसवीं शताब्दी (ई.पू) के बीच संस्कृत भाषा के अपभ्रंश के रूप में उत्पन्न हिन्दी अभी अपनी माँ के गर्भ में ही थी , जिस दौरान पाली और पाकृत जैसी भाषाओं का प्रभाव उनके चरम पर था। यह वही समय था जब बौद्ध धर्म पूर्णतः परिपक्व हो चुका था और पाली व पाकृत जैसी आसान भाषाओं में इसका व्यापक प्रसार हो रहा था।
देखा जाए तो पुरातन हिन्दी का अपभ्रंश के रूप में जन्म 400 ई. से 550 ई. में हुआ जब वल्लभी के शासक धारसेन ने अपने अभिलेख में 'अपभ्रंश साहित्य ' का वर्णन किया। हमारे पास प्राप्त प्रमाणों में 933 ई. की ' श्रावकचर' नामक पुस्तक ही अपभ्रंश हिन्दी का पहला उदाहरण है। परंतु हिन्दी का वास्तविक जन्मदाता तो अमीर खुसरो ही था , जिसने 1283 में खड़ी हिन्दी को जन्म देते हुए इस शिशु का नामकरण '‍ हिन्दवी' किया।
खुसरो दरिया प्रेम का , उलटी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया , जो डूबा सो पार
( अमीर खुसरो की एक रचना - 'हिन्दवी ' में...)
यह हिन्दी का जन्म मात्र एक भाषा का जन्म न होकर भारत के मध्यकालीन इतिहास का प्रारंभ भी है , जिसमें भारतीय संस्कृति के साथ अरबी व फारसी संस्कृतियों का अद्‍भुत संगम नजर आता है। तुर्कों और मुगलों के प्रभाव में पल्लवित होती हिन्दी को उनकी नफासत विरासत में मिली। वहीं दूसरी ओर इस समय भक्ति और आंदोलन भी काफी क्रियाशील हो चुके थे , जिन्होंने कबीर ( 1398- 1518 ई.), रामानंद (1450 ई.) , बनारसी दास (1601 ई.), तुलसीदास (1532-1623 ई.) जैसे प्रकांड विद्वानों को जन्म दिया।
इन्होंने हिन्दी को अपभ्रंश , खड़ी और आधुनिक हिन्दी के अलंकारों से सुसज्जित करके हिन्दी का श्रृंगार किया। इस काल की एक और विशेषता यह भी थी कि इस काल में हिन्दी को अपनी छोटी बहन 'उर्दू ' मिली, जो अरबी, फारसी व हिन्दी के मिश्रण अस्तित्व में आई। इस कड़ी में मुगल बादशाह शाहजहाँ ( 1645 ई.) के योगदानों ने उर्दू को उसका वास्तविक आकार प्रदान किया।
अँग्रेजी शासन तक यह अल्हड़ किशोरी शांत व गंभीर युवती के रूप में परिवर्तित हो चुकी थी। अँग्रेजियत के समावेश ने हिन्दी को त्तकालीन परिवेश में एक नया परिधान दिया। अब आधुनिक हिन्दी में तरह-तरह के प्रयोग अपने शीर्ष पर थे।
किताबों , उपन्यासों, ग्रंथों, काव्यों के साथ-साथ हिन्दी राजनीतिक चेतना का माध्यम बन रही थी। 1826 ई. में 'उद्दंत मार्तण्ड' नामक पहला हिन्दी का समाचार तत्कालीन बुद्धिजीवियों का प्रेरणा स्रोत बन चुका था। अब हिन्दी में आधुनिकता का पूर्णतः समावेश हो चुका था।
अँग्रेजों के शासन ने जहाँ हिन्दी को आधुनिकता का जामा पहनाया , वहीं हिन्दी उनके विरोध और स्वतंत्र भारत के स्वप्न का भी प्रभावी माध्यम रही। तमाम हिन्दी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने देश के बुद्धिजीवियों में स्वतंत्रता की लहर दौड़ाई। स्वतंत्र भारत के कर्णधारों ने जो स्वतंत्रता का स्वप्न देखा उसमें स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा के रूप हमेशा हिन्दी को ही देखा।
शायद यही वजह है कि स्वतंत्रता के उपरांत हिन्दी को 1949-1950 में केंद्र की आधिकारिक भाषा का सम्मान मिला। वर्तमान में हिन्दी विश्व की सबसे अधिक प्रयोग में आने वाली भाषाओं में दूसरा स्थान रखती है। हो सकता है कि अँग्रेजी का प्रभाव प्रौढ़ा हिन्दी पर अधिक नजर आता हो , मगर इस हिन्दी ने अपने भीतर इतनी भाषाओं और बोलियों को समेटकर अपनी गंभीरता का ही परिचय दिया है। हो सकता है कि भविष्य में हिन्दी भी किसी अन्य 'अपभ्रंश ' शिशु को जन्म दे, पर राष्ट्रभाषा का गौरव हर भारतीय में नैसर्गिक रूप से व्याप्त होगा।
हिन्दी उस बाजार में ठिठकी हुई-सी खड़ी है , जहाँ कहने को सब अपने हैं, लेकिन फिर भी बेगाने से... इस बेगानेपन की टहनियों से भी उम्मीद की कोपलें फूट रही हैं। क्योंकि हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या में जबर्दस्त इजाफा हो रहा है, लेकिन उसकी पठनीयता , उसका साहित्य सिसकियाँ भर रहा है। क्या हिन्दी समाज ने खुद ही हिन्दी को रद्द कर दिया है ? इसमें दोष भाषा का नहीं, बल्कि बाजार का है। वैसे भी बाजार का सीधा-सा नियम है बेचना। इस बेचने से कोई भाषा कैसे बच सकती है ?
आज हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए सामूहिक होकर उसके साहित्य और उससे जुड़ी बोलियों को पूरी कर्मठता से आगे ठेलने की जरूरत है। तब ही होगा हिन्दी दिवस साकार , हिन्दी का उद्धार।
आमतौर पर हिन्दीभाषी क्षेत्र में कहा जाता है कि यहाँ साहित्य पर वह माहौल नहीं है जितना अन्य भाषाई क्षेत्रों में है। इस बात में काफी सचाई भी है क्योंकि गत पाँच दशक के मनन , अवलोकन के बाद ऐसी टिप्पणियाँ अब ज्यादा मुखर हो रही हैं। 1757 की प्लासी की लड़ाई के बाद ब्रिटिश व्यापारवाद ने बंगला भाषा पर आक्रमण किया था। लेकिन बंगाल में चले सुधारवादी आंदोलनों से , आध्यत्मिक उभार ने , नवचेतना ने (राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, चैतन्य महाप्रभु, चंडीदास , बंकिमचंद्र, विवेकानंद, काजी नजरुल इस्लाम , रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरद बाबू) बांग्ला भाषा, साहित्य, चेतना को और ज्यादा ऊँचाई दी।
बांग्ला पूरी शिद्दत से भारत की प्रवक्ता भाषा भी सिद्ध हुई। इस पूरी प्रक्रिया में बंगाल (इससे लगे असम तथा उड़िया भाषा में भी) में भाषा तथा साहित्य में विवेकपूर्ण आचरण भी विकसित हुआ जो आज के आपाधापी पूर्ण समय में भी बदस्तूर जारी है। बांग्ला में कोई भी साहित्यकार हो , हर रचनाधर्मी , लेखक कलाकार के अवदान को स्वीकारा जाता है- विचारधारा के संघर्ष , पक्षधरता के बावजूद विरोधी लेखक के रचना पाठ में उसकी छपी रचना पर हो रही चर्चा में उसको एक सिरे से खारिज नहीं किया जाता। उसके भाषाई , साहित्यिक जनप्रतिबद्धता , भाषा-बोली को स्वीकारा जाता है।
हिन्दी का क्षेत्र व्यापक है। हिन्दी सिर्फ इसीलिए ही व्यापक नहीं है कि वह ज्यादा लोगों के द्वारा बोली जाती है बल्कि हिन्दी का साहित्य ज्यादा व्यापक है। उसकी जड़ें गहरी हैं। इसके मूल में हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो अपने में एक बड़ी परंपरा , इतिहास , सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।
वह किसी खेमे से प्रमाण-पत्र का मुँह नहीं देखती। बल्कि स्थिति यह है कि 'मठों' को अपनी बोलियों के जनसंघर्ष के स्पंदन उनके ई.सी.जी. नहीं पकड़ पाते हैं। आज हिन्दी में काफी लिखा जा रहा, बेहतर लिखा जा रहा है, कहानी में व्यापक फलक हैं , बारीकियाँ हैं। कविता में जबर्दस्त चेतना , भाषा का प्रवाह, चट्टानों को आकार में बदलने की उद्दाम छटपटाहट है।
निबंधों में नया विकास सामने आया है। उपन्यासों में नवीन इलाके , बंजर हो रही जमीन को उर्वरा बनाने का रचनात्मक जोश साफ झलक रहा है। इस पूरे रचनाक्रम में पूरी भारतीय मनीषा की उपस्थिति है। बांग्लादेश , भारत , पाकिस्तान सहित चीनी, ईरानी, अफ्रीकी रचनाओं में भी बराबरी से आ रहा है। चीनी साहित्यकार 'मो यान ' की रचनाएँ कहीं भी पराई नहीं लगतीं। उसकी जमीन , वही है जो नेरुदा की है, पोट्टेकाट, भीष्म साहनी की है।
हिन्दी में स्थानीयता अंततः विश्व विरासत का रचनाकर्म ही है जो उसे अभिव्यक्त करती है। हिन्दी संसार में परेशानी है कि अपने-अपने खेमों , अपने तंबुओं को सही साहित्य बताने की 'जिद' ने हिन्दी को परेशानी में डाल दिया है। जरूरत बांग्ला भाषा, असमी भाषा वाली विवेकशीलता की है। बेशक हम-आप अपने-अपने घरों की सुविधाओं में रहें , लेकिन साहित्यिक ईद या दशहरे पर एक-दूसरे से गले तो मिलें।
अंततः हम एक महत्वपूर्ण भाषा में लिखते हैं और साहित्य जैसे जवाबदार कर्म से जुड़े हैं अतः हिन्दी का हित , उसका विकास प्रथम प्राथमिकता में होना चाहिए। वाद और विचार , समाज से आते हैं इसलिए समाज की प्राथमिकता जरूरी है- वह बचेगा , वह समृद्ध होगा तो वाद-विचार भी पुख्ता होकर उभरेगा। हिन्दी की स्थिति ऐसी है जैसे विदेशी आक्रमणों के वक्त भी राजाओं , नवाबों ने आपसी लड़ाइयाँ नहीं छोड़ी थीं। शेष इतिहास हम जानते हैं। इस वक्त भी हिन्दी को बाजारवाद लील रहा है।
अब वह सिर्फ हिन्दी मानक भाषा के बरखिलाफ ही नहीं वरन हिन्दी की ताकत उसकी बोलियों की तरफ है। नरभक्षी की दाढ़ में खून लगा है। वह स्वाद चख चुका है। बाजारवाद , बोलियों के मासूम आँगन में जा घुसा है। यदि बोलियाँ ध्वस्त हो गईं तो हिन्दी का शक्तिकेंद्र ही ढीला पड़ जाएगा। एक बोली या भाषा का मरना सिर्फ अक्षरों की मौत नहीं होती पूरी , अभिव्यक्ति , पूरा देश, पूरी रवायत, पूरी संस्कृति अपाहिज हो जाती है। अफ्रीका के कई देश साम्राज्यवाद , आर्थिक साम्राज्यवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। बेहतर होगा , हिन्दी क्षेत्र खेमावाद छोड़े, समीक्षा बाहर निकले, वरना अपनों की हत्या करने वाला विजेता नहीं बनता। इस समय बोलियों, उसकी परंपरा तथा भारतीय भाषाओं, हिन्दी में भातृभाव की सर्वाधिक जरूरत है।

मंगलवार, 11 सितंबर 2007

आर्कुट के साइड इफैक्‍ट

उस मॉडल को क्‍या पता था कि जिस आर्कुट को वह अपना सबसे अच्‍छा मित्र समझ रही है वही आर्कुट उसे जी का जंजाल बन जाऐगा।मुम्‍बई की इस मॉडल ने फिल्‍मों मे काम करने की इच्‍छा से अपना फोटो,पता और फोन नम्‍बर तक आर्कुट मे डाल रखा था।पर किसी शरारती तत्‍व ने उसे काल गर्ल का दर्जा देते हुऐ यही जानकारी उसके नाम के साथ आर्कुट पर जोड़ दी और इसी के साथ शुरू हुआ अंतहीन परेशानियों का दौर। उसके बाद ना केवल उसे अश्‍लील फोन काल्‍स आने लगे बल्‍कि कुछ महानुभाव तो उसके घर तक जा पहुंचे।
आर्कुट से जुड़ी ये घटना पहली और अकेली नही है।अभी कुछ दिन पहले मुम्‍बई के व्‍यापारी के अपह्रत पुत्र अदनान की हत्‍या को आर्कुट से जोड़ कर देखा जा रहा है।इस घटना ने आर्कुट को संदिग्‍धता की श्रेणी मे ला खड़ा किया है।अदनान के जिन दोस्‍तो ने उसका पहले तो अपहरण तथा‍ फिर हत्‍या का कुर्कत्‍य किया,उनसे अदनान की मुलाकात मात्र छह: माह पहले आर्कुट के जरिये ही हुई थी।अगर विश्‍लेषण किया जाये तो आर्कुट से जुड़े अपराधों की संख्‍या बहुत लम्‍बी है।परन्‍तु इन सब पर चर्चा करने से पहले यह जानना‍ बहुत जरूरी है कि आखिर क्‍या है ये आर्कुट-
आर्कुट की शुरूआत जनवरी2004 मे हुई थी।इसको बनाने का श्रेय आर्कुट बुयुक्‍‍कोकटेन को जाता है।दरअसल आर्कुट एक इण्‍टरनेट सोशल नेटवर्क है जो गूगल के द्वारा संचालित होता है आर्कुट के दावे के अनुसार यह साइट सामाजिक मेल-जोल को बढावा देती है।इसके द्वारा नये मित्र बनाऐ जा सकते है और पुराने मित्रो को ढ़ूढ़ा भी जा सकता है।वैसे देखा जाये ता गूगल ने आर्कुट की शुरूआत अच्‍छे मकसद से की थी पर कुछ गलत हाथों ने इसका आपराधिक इस्‍तेमाल करके इसे विवादों की श्रेणी मे ला खड़ा किया है।
कार्य करने का तरीका-
आर्कुट इस्‍तेमाल करने के लिये सर्वप्र‍थम इसमें एकाउंट होना आवश्‍यक है।इसके लिये आर्कुट की कुछ शर्तें होती है।इस एकाउंट के जरिये केटेगरी और रूचि के आधार पर मित्र बनाये जा सकते है।अथवा उन्‍हे मित्रता का निमंत्रण भेजा जा सकता है।इस लोकप्रियता की दर का अंदाजा केवल इस बात से लगाया जा सकता है‍ कि जनवरी मे प्रारम्‍भ हुई इस साइट के सदस्‍यों की संख्‍या 10,00,000 थी जो कि सितम्‍बर में 20,00,000 तक पहुंच गयी।ताजा सर्वे के अनुसार 21 अगस्‍त 2007 को य‍ह आकड़ा6,82,40,913 को भी पार कर गया।इस लोकप्रियता का मुख्‍य कारण है कि इसमे आपको अपने रूचि और पसन्‍द के आधार पर मित्र बनाने की स्‍वतंत्रता है और कई पुराने मित्रों को भी ढ़ूढा जा सकता है।
आर्कुट से जुड़े विवादित तथ्‍य-
स्‍वयं को सोशल नेटवर्क की संज्ञा देने वाला आर्कुट कभी-कभी कितना खतरनाक सिद्ध हो सकता है और केवल आम आदमी ही नहीं बल्कि जाने-माने लोग भी इसका शिकार हो सकते है-इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल के दिनों मे सामने आया है।आर्कुट पर सोनिया गांधी को अमेरिका ऐजेंट बताया गया था।मायावती से लेकर पंजाब के मुख्‍यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के फर्जी एकाउंट तैयार करने वालों की कोई कमी नही है।इस फर्जी एकाउंट मे तस्‍वीर तो बादल की ही है लेकिन जो सम्‍बन्धित जानकारियॉ डाली गयी हैं वह किसी ऐसे व्‍यक्ति की हैं जिसने स्‍वयं को मूल रूप से पट्रटी का तथा वर्तमान में अमृतसर का र‍हने वाला बताया है। इससे भी ज्‍यादा रोचक तथ्‍य यह है कि चीफ मिनिस्‍टर ऑफ पंजाब के नाम से बने इस प्रोफाइल मे मित्रों की संख्‍या केवल 10 है।जिनमें से 4 ने स्‍वयं को मुख्‍यमंत्री का फैन ्बताया है। बातचीत के तौर पर भेजे गये स्‍क्रैप्‍स की संख्‍या 29 अगस्‍त की शाम तक 64 थी। यह प्रोफाइल लगभग आठ माह पुराना है तथा अंतिम स्‍क्रैप 10 अगस्‍त को भेजा गया है। परन्‍तु इस स्‍क्रैप मे काफी आ‍पत्तिजनक बातें लिखी गयी हैं।
दूसरी घटना में पिछले वर्ष 10 अक्‍टूबर 2006 को ए‍क याचिका पर मुम्‍बई हाई कोर्ट ने गूगल को ‘इण्‍डिया के खिलाफ घृणा अभियान’ चलाने का नोटिस दिया था।शिव सेना के खिलाफ भी आर्कुट पर अभियान चलाया गया था।तब शिव सैनिकों ने क्रुद्ध होकर आर्कुट को मुम्‍बई और आसपास के इलाकों मे प्रतिबन्धित कर दिया था।
अपराध के लिये इस्‍तेमाल-
आज आर्कुट कम्‍यूटर हैकर्स की पहली पसन्‍द बनता जा रहा है।उनके द्वारा इसमें कई फर्जी लॉग इन पेज बनाऐ गये हैं।जिनसे यूजर्स के एकाउंट की जानकारी चुरा ली जाती है।मैथ्‍यू जेशेफर ने आ ई ओ स्‍फेअर जर्नल में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि आंतकी समूह अपनी गतिविधियों के लिये आर्कुट का भरपूर इस्‍तेमाल कर रहे हैं।
क्‍या है बचाव-
किसी भी को भी आर्कुट पर एकाउंट शुरू करने से पहले इसके नियम और शर्तें स्‍वीकार करनी होती हैं।परन्‍तु हैक करने के बाद कोई भी जानकारी किसी भी एकाउंट मे डाली जा सकती है।
परन्‍तु फिर भी कुछ सावधानियां बरतकर आर्कुट पर इन समस्‍याओं से एक हद तक बचा जा सकता है- अपनी वास्‍तविक और व्‍यक्गित जानकारी प्रोफाइल मे डालने से बचें।
फोटो के स्‍थान पर कोई वॉलपेपर या कार्टून कैरेक्‍टर का इस्‍तेमाल करना अच्‍छा होता है।
किसी की मित्रता का आंमत्रण स्‍वीकार करने से पहले उसका प्रोफाइल और उससे सम्‍बन्धित स्‍क्रैप्‍स जॉच ले और विश्‍वासनीयता सिद्ध होने पर ही उससे जुड़े।
इण्‍टरनेट पर बने मित्रों से एक दूरी बनाऐ रखें।
वैसे देखा जाऐ तो हर सिक्‍के के दो पहलू अवश्‍य होते हैं।आर्कुट की शुरूआ‍त तो अच्‍छे मकसद के लिये की गयी थी,पर कुछ संकीर्ण मानसिकता वाले लोग जो कि हर जगह होते हैं अच्‍छाई मे भी बुराई को ढूढ ही लेते हैं।आर्कुट की छवि को धूमिल करने मे यही लोग जिम्‍मेदार हैं।जिनका मकसद केवल दूसरों के अहित से स्‍वयं की स्‍वार्थ सिद्धि है।

अप्रतिम सौंदर्य का प्रतीक – नैनीताल

क शहर जिसकी खूबसूरती ही उसकी पहचान है। बात हो रही है उत्तरांचल की। चारों ओर सुन्दर और घनी वादियों से घिरे इस शहर को देखकर ऐसा लगता है कि कुदरत ने इस जगह को बेपनाह हुस्न बख्शा है।
नैनीताल की खोज मिस्टर पी. बैरन ने १८४० में की थी। इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगाती है यहां स्थित नैनी झील। जिसके कारण इसे सरोवर नगरी भी कहा जाता है। आंख का आकार लिये हुए इस झील के बारे में मान्यता यह है कि पार्वती अपने पूर्व जन्म में सती राजा की पुत्री थी। उस जन्म में भगवान शिव से रुष्ट होकर वह सती हो गयी थी। तब उनकी आंख इस जगह पर गिरी थी। वैसे यह झील अपना रंग बदलती रहती है। कभी हरा तो कभी नीला। इस झील की गहराई भी बहुत अधिक है। पर्यटक झील का आनन्द नौकायन द्वारा करते हैं। झील के समीप ही नयना देवी मंदिर भी है जो कि बहुत पुराना है और मान्यता भी बहुत अधिक है। यहीं पर प्रसिद्ध नन्दा देवी का मेला लगता है।
नैनीताल का इतिहास पौराणिक कथाओं में कितना सच है, इस बात के पुख्ता सबूत नहीं परन्तु यह शहर अंग्रेजी हुकूमत का साक्षी है व उसके कई साक्ष्य भी यहां मौजूद हैं। अंग्रेजों का इस शहर से लगाव उनके द्वारा बनवाये गये भवनों और सड़कों से लगाया जा सकता है। यहां कि प्रसिद्ध माल रोड को अंग्रेजों ने निर्मित करवाया था। हिन्दुस्तानियों के प्रति उनकी घृणा और तिरस्कार यह सड़क आज भी बयां करती है। अंग्रेजों ने इस मार्ग को ऊपर-नीचे दो हिस्सों में बांटा था। ऊंची सड़क सिर्फ अंग्रेजों के लिये थी तथा निचले मार्ग से हिन्दुस्तानी जाते थे। भारतियों को ऊपरी सड़क पर चलने की सख्त मनाही थी।
माल रोड के अलावा अंग्रेजों ने राजभवन का निर्माण करवाया था, जो आज भी सचमुच किसी राजा के महल के समान प्रतीत होता रहै। वर्तमान उत्तरांचल का उच्च न्यायालय जो कि नैनीताल में स्थित है, अंग्रेजों द्वारा निर्मित है। इसकी बनावट व खूबसूरत देखते ही बनती है।
हर वर्ष हजारों देशी-विदेशी सैलानी नैनीताल घूमने आते है। यहां देखने के लिये बहुत ही जगह है। जैसे स्नो व्यू, टिफिन टाप, नैना पीक आदि। यह पिकनिक पाइंट बहुत ऊंचाई पर है। इनमें से स्नो व्यू पर आप रोप-वे से भी जा सकते हैं। अगर मौसम सुहावना है तो आप यहां से दूरबीन द्वारा दूर पहाड़ों पर बिखरी बर्फ को भी देख सकते हैं। यहां एक प्राणी उद्यान भी है, जहां बहुत से दुलर्भ प्राणियों को भी देखा जा सकता है। यहां का साइबेरियन बाघ इस प्राणी उद्यान की शान है। यहां पर कई पक्षी ऐसे हैं जिनकी जाति विलुप्त होने के कगार पर है। नैनीताल में एक जगह कैमल्स बैक के नाम से प्रसिद्ध है। यहां पर कुछ पहाड़ियां एक साथ इस तरह की हैं कि मानो बहुत से ऊंट बैठे हों। कैमल्स बैक से कुछ दूरों पर लैण्ड्स एंड है। यहां ऐसा लगता है कि धरती का यह आखिरी छोर है और आगे धरती समाप्त हो गई। नैनीताल पर्यटन स्थल के अलावा एक और बात के लिये प्रसिद्ध है, वह है यहां कि खूबसूरत मोमबत्तियां। यहां तरह-तरह के आकार की रंग-बिरंगी मोमबत्तियां बनाई जाती है, जिसे यहां आये हुए सैलानी खरीदना नहीं भूलते।
यहां के लकड़ी के बने शो-पीस बहुत ही खूबसूरत होते हैं। वर्षा ऋतु को छोड़कर यहां वर्ष भर पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है। शीत ऋतु में यहां गिरने वाली बर्फ भी पर्यटकों को अपने ओर खींचने लगती है। शीत ऋतु में बर्फ की चादर ओढे नैनीताल और भी खूबसूरत लगता है। हर साल हजारों सैलानी नववर्ष मनाने यहां आते हैं।
सिर्फ नैनीताल ही नहीं, बल्कि इससे जुड़े आस-पास के इलाके भी देखने योग्य है। नैनीताल से २२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित भीमताल भी एक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। यहां पर एक झील भी है। इस झील की सबसे खास बात यह है कि झील के बीचों-बीच एक टापू है, इस टापू पर एक रेस्टोरेंट है। पर्यटकों को इस जगह पर आने के लिये नाव का सहारा लेना पड़ता है। नैनीताल से २३ किलोमीटर दूर सात ताल है। कहा जाता है कि इस ताल के सात कोने है, पर कोई भी व्यक्ति पूरे सात कोनों को एक साथ नहीं देख सकता।
वर्तमान समय में पर्यावरण के बढते प्रदूषण से नैनीताल भी अछूता नहीं रहा है। प्रदूषण के कारण यहां की नैनी झील भी मैली हो चुकी है। हर वर्ष यहां मरने वाली मछलियों की संख्या में तेजी पाई गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण यहां के तापमान में भी बढोतरी हुई है। यहां गिरने वाली बर्फ में भारी कमी आई है। हालांकि प्रशासन इस प्राकृतिक धरोहर को प्रदूषण मुक्त करने के बहुत से उपाय कर रहा है, जिसके चलते नैनीताल में पालीथीन के प्रयोग पर प्रतिबंध है। इतना करना पूर्ण नहीं है। यहां आने वाले पर्यटकों को भी इस जगह के प्रति अपना दायित्व समझना होगा। भविष्य में हम लोग नैनीताल को किताबों में देखना चाहते हैं या यथार्थ में। यह हम सबको मिलकर तय करना है।