शुक्रवार, 28 मार्च 2008
कृषि प्रधान देश में असहाय कृषक
अगर किताबों और आंकड़ों की बात करें तो भारत की पहचानं कृषि प्रधान देश के रूप में की जाती है। परन्तु अगर कृषि प्रधान देश के किसान सरकार की उपेक्षा के शिकार और ऋणग्रस्त होकर आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हों तो यह उस देश के लिये बड़ा ही शर्मनाक और शोचनीय विषय है।
उससे भी ज्यादा सोचने का मुद्दा यह है कि वह किसान तो मौत को गले लगाकर मुक्ति पा लेते हैं परन्तु उनके पीछे उस परिवार की स्थिति क्या होती होगी ,इस बात का अंदाजा लगाना ही बहुत कठिन है। जिस परिवार का मुखिया उन्हें कर्ज तले दबा छोड़ गया हो, जिनके पास गरीबी और अभाव ही उनकी पूंजी और पुश्तैनी विरासत रह गयी हो। उस परिवार के बारे में शायद ही कोई सोचता होगा।
हमारे देश में समपन्नता और विपन्नता के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। एक ओर है घोर दुर्गति और वहीं दूसरी ओर है आराम देह जिन्दगी। हांलाकि इस बार के बजट में सरकार ने आर्थिक पैकेज देकर किसानों को इस संकट से उबारने की जो घोषणा की है, वह प्रंशसनीय है। परन्तु इस बात का भी एक दुखद पक्ष यह है कि सरकार ने किसानों के लिये ऋणमाफी की जो घोषणा की है वह सिर्फ उन बड़े किसानों के लिये फायदेमंद है जिन्होने बैंक से ऋण लिया है। परन्तु आत्महत्या करने वाले किसानों मे उन किसानों की संख्या अधिक है जिन्होने साहूकारों से ऊंची दरों पर कर्जा लिया है और अब चुकाने में असमर्थ हैं। उनके लिये सरकार की ऋणमाफी की योजना अर्थहीन है, जबकि उन्हें ही सबसे अधिक सहायता की आवयश्कता है।
सरकार को चाहिये कि वह ऐसे किसानों को बैंक से बिना ब्याज के या फिर कम दर पर ऋण उपलब्ध कराये ताकि वे साहूकारों का कर्जा चुका पाऐं। जहां सरकार 60 हजार करोड़ का नुकसान उठा रही है वहीं थोड़े और नुकसान का जिम्मा लिया जा सकता है। अन्यथा सरकार के कर्जमाफी के पश्चात भी ये आत्महत्याओं का सिलसिला नहीं रूकेगा। और ना ही उनके परिवार की दुर्गति होने से कोई रोक पाऐगा।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)