अगर मैं आपसे पूछूं कि आप कितनी भाषाओं का ज्ञान रखते हैं तो आप भले ही कितनी भाषाओं का नाम क्यों ना ले लें परन्तु कदाचित आपने अगर अंग्रेजी का नाम नहीं लिया तो समझिये कि आपका ज्ञान अधूरा और व्यर्थ है।यह ना समझियेगा कि यह विचार मेरे हैं।यह वह कड़वा सत्य है जिसे शायद बी टेक द्वितीय वर्ष का वह छात्र नहीं सहन कर पाया और अंग्रेजी ना जानने अपराध उसे आत्महत्या के अपराध से कहीं बड़ा जान पड़ा।पूर्वी उत्तर प्रदेश के जौनपुर निवासी उस छात्र के इस मेधावी छात्र के इंजीनियर बनने के ख्वाब को अंग्रेजी भाषा की अज्ञानता ने चकनाचूर करके रख दिया।ऐसा ही कुछ इलाहाबाद के एक बैंककर्मी रामबाबू पाल के साथ हुआ।उन्होने भी अपने सुसाइड नोट में यही लिखा कि अंग्रेजी ना जानने के कारण उनके सहकर्मी उनका उपहास करते थे।जिस कारण वह हीन भावना से ग्रस्त थे।तो क्या यह मान लिया जाये कि अंग्रजी भाषा का अज्ञानता का अंतिम विकल्प केवल आत्महत्या है।क्या किसी भाषा को ना जानने की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
कभी हमने सोचा कि ऐसा क्यों हुआ। आजादी की लड़ाई के समय महात्मा गांधी ने जिस हिन्दी को कभी सारे देश को एक सूत्र मे पिरोने का धागा समझा था वही हिन्दी आज अपने ही देश मे परायो सा अनुभव कर रही है।गांधी मानना था कि देश में शिक्षा का माध्यम हिन्दी होना चाहिये।परन्तु देश ने समय के साथ इसे भुला दिया।शायद इसका एक कारण यह भी था कि सारी नयी तकनीकी पुस्तकों को हिन्दी में उपलब्ध कराना पड़ता।जिसके लिये धन की जितनी आवयश्कता थी उससे ज्यादा जरूरत थी संकल्प शक्ति की।पर इसी संकल्प शक्ति की कमी ने नई पीढी के कई योग्य नौजवानों के लिये उन्नित के रास्ते बंद कर दिये।
60 से 70 के दशक मे जो लोग अंग्रेजी हटाओ का नारा दे रहे थे , धीरे-धीरे उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि अंग्रेजी के बिना उनका गुजारा भी असंभव है।परिणाम यह हुआ कि शहर से लेकर गांवों तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के जाल से बिछ गये।नतीजा हिन्दी माध्यम के स्कूल और उसके छात्रों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा।
अगर गौर किया जाये कि यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था भारतीय भाषाओं मे आधुनिक ज्ञान की पुस्तकें उपलब्ध करा सकती तो,देश के कई योग्य व्यक्ति केवल इसलिये आत्महत्या नहीं करते कि वे अंग्रेजी नहीं जानते।
कभी हमने सोचा कि ऐसा क्यों हुआ। आजादी की लड़ाई के समय महात्मा गांधी ने जिस हिन्दी को कभी सारे देश को एक सूत्र मे पिरोने का धागा समझा था वही हिन्दी आज अपने ही देश मे परायो सा अनुभव कर रही है।गांधी मानना था कि देश में शिक्षा का माध्यम हिन्दी होना चाहिये।परन्तु देश ने समय के साथ इसे भुला दिया।शायद इसका एक कारण यह भी था कि सारी नयी तकनीकी पुस्तकों को हिन्दी में उपलब्ध कराना पड़ता।जिसके लिये धन की जितनी आवयश्कता थी उससे ज्यादा जरूरत थी संकल्प शक्ति की।पर इसी संकल्प शक्ति की कमी ने नई पीढी के कई योग्य नौजवानों के लिये उन्नित के रास्ते बंद कर दिये।
60 से 70 के दशक मे जो लोग अंग्रेजी हटाओ का नारा दे रहे थे , धीरे-धीरे उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि अंग्रेजी के बिना उनका गुजारा भी असंभव है।परिणाम यह हुआ कि शहर से लेकर गांवों तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के जाल से बिछ गये।नतीजा हिन्दी माध्यम के स्कूल और उसके छात्रों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा।
अगर गौर किया जाये कि यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था भारतीय भाषाओं मे आधुनिक ज्ञान की पुस्तकें उपलब्ध करा सकती तो,देश के कई योग्य व्यक्ति केवल इसलिये आत्महत्या नहीं करते कि वे अंग्रेजी नहीं जानते।