मंगलवार, 11 दिसंबर 2007
एक दिन यात्रा में,,,,,,,,,,,,,,,,,
परसों सुबह उत्तरांचल से दिल्ली के लिये जाने वाली ‘सम्पर्क क्रान्ति’ रेलगाड़ी से मैं रूद्रपुर स्टेशन से चढ़ी। शादियों के सीजन के कारण यात्रियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। मेरी आरक्षित सीट पर हमेशा की तरह कोई यात्री बैठे हुऐ थे। उठाना बुरा लगा क्योकि उनके साथ एक छोटा बच्चा भी था पर मेरी भी मजबूरी थी। 5 घण्टे का सफर खड़े होकर काटना असम्भव था। खैर जैसे तैसे सीट मिली। बैठी ही थी कि एक अधेड़ उम्र के सज्जन आये और खिड़की वाली सीट पर हक जमाने लगे, जबकि उनकी सीट मेरे बगल मे थी। वैसे मुझे कोई परेशानी नहीं थी कि वह कहीं भी बैठें क्योंकि मेरी सीट बीच में थी पर उनका इस तरह से खिड़की वाली सीट के लिये रौब दिखाना अच्छा नहीं लगा। इसलिये उन्हें समझाया कि उनकी सीट वहां नहीं है पर वह सज्जन समझने को तैयार ही नहीं थे। मैं भी कहां हार मानने वाली थी उन्हें विस्तार से समझाया तब जाकर वह महाशय मेरे बगल में चुपचाप बैठ गये और अखबार पढ़ने में लीन हो गये। खिड़की वाली सीट खाली थी क्योंकि उसमें रामपुर से किसी का आरक्षण था। तब तक उसमें मुझे बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पर वह सौभाग्य क्षणिक था क्योकि लगभग 1 घण्टे बाद ही रामपुर स्टेशन आ गया और हमारी सीट का आखिरी यात्री भी आ गया और मुझे बीच में बैठना पड़ा। तब तक पूरी रेलगाड़ी खचाखच भर चुकी थी। यहां तक कि हमारी सीट के आसपास लोग खड़े होकर यात्र्रा कर रहे थे। खडें हुऐ यात्रियों मे सें किसी एक के पास रेडियो था जिस पर भारत – पाकिस्तान के टेस्ट मैच का सीधा प्रसारण सुनाया जा रहा था। वैसे हिन्दुस्तान में क्रिकेट मैच की खासियत यह है कि यह लोगों को आपस में बात करने पर मजबूर कर देता है। लोग अजनबियों से भी मैच का स्कोर पूछने लग जाते हैं। खैर फिलहाल यहां बात हो रही है रेलगाड़ी के सफर की। मैच का प्रसारण शुरू होते ही अधिकतर लोगों के आकर्षण का केन्द्र वह छोटा का रेडियो बन गया। पर मुझे मैच मे कोई दिलचस्पी नहीं थी इसलिये मै प्रेमचन्द जी का उपन्यास पढ़ने लगी। जो कि मैं आधा पहले पढ़ चुकी थी। इसी तरह मेरी यात्रा पूर्ण हुई और दिल्ली का स्टेशन आ गया। अब यहां से घर जाने के लिये भी तो बस पकड़नी थी जो कि इस समय इतने सारे सामान के साथ थोड़ा कष्टदायी था। घर वालों ने सख्त हिदायत दी थी कि स्टेशन से आटो कर लेना पर भारतीय नारी हमेशा पैसे बचाने के ही बारे में सोचती है। इसलिये घर वालों की हिदायत को ताक पर रखकर बस में चढ़ गयी। बस थोड़ी दूर चलते ही इस तरह खचाखच भर गयी। मुझे सीट तो मिल गयी पर मेरा स्टाप आने तक बस में इतनी भीड़ हो चुकी थी कि मै उतर ही नहीं पायी। बस में पांव रखने की भी जगह भी नहीं थी।सोचती हूं कि दिल्ली में मेट्रो, बस ,आटों और कारों के होते हुऐ भी बसों में इतनी भीड़ कैसे हो जाती है। दो स्टाप आगे आने पर मैने थोडी हिम्मत जुटायी और कंडक्टर से कहा मुझे उतरना है और अपने सहयात्रियों से विनती की कि वह मेरा सामान खिड़की से मुझे पकड़ा दें। तब जाकर कहीं मै बस से उतर पायी। उतरने के बाद मुझे आटो करके घर तक आना पड़ा। इस प्रकार मेरी रोचक सफर समाप्त हुआ।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
7 टिप्पणियां:
तो वापस पहुंच गई आप अपने कर्मक्षेत्र में।
शुभकामनाएं।
संघर्षपूर्ण सफर एक मंजिल तक तो पंहुचा.
अब अगले कि तयारी शुरू कि जाय.
काफी रोचक यात्रा रही । खैर घर तो सही सलामत पहुँच गईं ।
घुघूती बासूती
चले घर सही सलामत पहुंच गयी। रोचक यात्रा विवरण ।
आप सबकी शुभकामनाओं और सराहना के लिये धन्यवाद।
ये लेख लिखकर ही मैने अगले सफर की तैयारी कर दी है।
aap ka lekh padha bahut he realistic
laga :) jase ki sab kuch aakho k saamne ho raha ho.. bahut acha likte ho aap:)
शुभकामनाएं।
aap ka lekh pada bahut he realistic likhte hai aapne..
jase ki sab aakho k saamne ho raha ho,aap ek bahut uch sthar ke lekhika lagte ho..
शुभकामनाएं।
एक टिप्पणी भेजें