सारी दुनिया आजकल वैकल्पिक ईंधन की तलाश में जुटी हुई है, पर इधर जब से तेल की कीमतें चढ़ी हैं,इस बारे में और जोरों से विचार विमर्श शुरू हुआ है कि आखिर यह विकल्प क्या होगा। हमें सौर ऊर्जा की तरफ बढना चाहिये, एटमी विकल्प पर जोर आजमाइश करनी चाहियेया फिर उस बायो ईंधन के बारे में सोचना चाहिये, जिसका इस्तेमाल दुनिया के कई देश करने लगे हैं और जिसे हम लोग अपने खेतों में आसानी से उगा सकते हैं। पर्यावरण के अनूकूल होने की वजह से बायो ईंधन का आकर्षण भी बहुत है।पेट्रोल-डीजल की बढ़ती खपत एक तो ग्लोबल समस्या में इजाफा करके हमें प्रदूषण से भरे डरावने कल की ओर ले जा रही है, तो दूसरी ओर इसकी दिनोदिन बढती कीमत बायो ईंधन की जरूरत दर्शा रही है।
कहने को तो हाइड्रोजन, सौर ऊर्जा, एटमी एनर्जी, पवन ऊर्जा सरीखे तमाम विकल्प हो सकते हैं। पर जहां एटमी एनर्जी की अपनी दिक्कतें हैं, वहीं हाइड्रोजन ऊर्जा अभी जैव ईंधन की तरह कारगर नहीं है। सौर और पवन ऊर्जा जुटाने का तो इतना तामझाम है कि उनसे आज की जरूरतों के हिसाब से ऊर्जा हासिल करने की कोशिश हो, तो शायद पूरी दुनिया की जमीन सोलर और विंड एनर्जी के पैनलों और पंखों से ढ़क जाये। ऐसे में एक बड़ी उम्मीद गन्ना, मक्का से लेकर सोयाबीन, जटरोफा, रेपसीड, पाम और अन्य कई पेड़-पौधों से हासिल हो सकने वाले ईंधन से है, जिसे बायो ईंधन कहा जाता है। यह चूंकि एक पर्यावरण मित्र ईंधन है, इसलिये इसमें प्रत्यक्षत: कोई हानि नजर नहीं आती है।
परन्तु हर बात के दो पहलू अवश्य होते हैं। बायो ईंधन के खतरे भी हैं। आलोचकों का कहना है कि ऐसे ईंधन का क्या लाभ, जो जंगलो का सफाया करवाते हुऐ पर्यावरण का नया संकट पैदा कर रहा है। और ऐसा भी बायो ईंधन क्या, जिसे हासिल करने के क्रम में हम अपने भोजन से भी वंचित रह जाऐं? बायो ईंधन हासिल करने के लिये इंडोनेशिया और मलेशिया मे पाम की रोपाई के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। खतरा यह भी यह है कि जिन अनाज फसलो का इस्तेमाल इंसान के भोजन के रूप में होता है, अगर उनका प्रयोग बायो ईंधन के रूप मे होने लगा, तो ऐसी फसलों-अनाजों की कीमतें कहां जाऐंगी? अमेरिका मे गत वर्ष मक्के की कीमत मे 50 फीसदी का इजाफा हुआ,तो सोयाबीन की कीमतों मे भी 30% तक की बढ़ोतरी होने की आशंका है। हांलाकि पूरी दुनिया मे एक सा माहौल नहीं है। जिन देशों मे गन्ने से एथेनांल हासिल किया जा रहा है, वहां दूसरी फसलों की कीमतें नहीं बढ़ रही।
अगर भारत की बात की जाये तो हमारे यहां गन्ने की भरपूर खेती है। यानि कि हमें एथेनांल के लिये अलग से खेती करने की जरूरत नही। फिर बायो ईंधन के एक अन्य स्त्रोत जटरोफा की खेती के बंजी जमीनों के लिये की जा रही है। इसलिये भारत में तो फिलहाल को समस्या पैदा होती नजर नहीं आ रही है। दरअसल भारत मे खतरे दूसरी किस्म के हैं। पर्यावरणविद् बता रहे हैं कि बायो ईंधन के लिये जिन बंजर जमीनों की बात हो रही है, वे जमीने पूरी तरह से बंजर नहीं होती। कभी उन जगहों पर जंगल हुआ करते थे।जंगल साफ करने से जो सामान्य भूमि मिलती है, कायदे से उसका इस्तेमाल स्थानीय किसान अपनी विविध जरूरतों के लिये करते हैं।पर अगर दैनिक उपभोग की वे सभी चीजें वहां से हटा दी गयीं और केवल जटरोफा की पैदावार की जाऐं तो वहां की सामाजिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वस्तुत: हमें अगर अमेरिका की तरह अच्छी क्वालिटी के एथेनांल की आवश्यकता पड़ी, तो वह मक्के से ही मिलेगा।उससे ग्रीन हाउस गैस भी कम निकलती है। लिहाजा हमे जटरोफा और गन्ने की जगह बड़े पैमाने पर मक्का उगाना पड़ेगा।
कहने को तो हाइड्रोजन, सौर ऊर्जा, एटमी एनर्जी, पवन ऊर्जा सरीखे तमाम विकल्प हो सकते हैं। पर जहां एटमी एनर्जी की अपनी दिक्कतें हैं, वहीं हाइड्रोजन ऊर्जा अभी जैव ईंधन की तरह कारगर नहीं है। सौर और पवन ऊर्जा जुटाने का तो इतना तामझाम है कि उनसे आज की जरूरतों के हिसाब से ऊर्जा हासिल करने की कोशिश हो, तो शायद पूरी दुनिया की जमीन सोलर और विंड एनर्जी के पैनलों और पंखों से ढ़क जाये। ऐसे में एक बड़ी उम्मीद गन्ना, मक्का से लेकर सोयाबीन, जटरोफा, रेपसीड, पाम और अन्य कई पेड़-पौधों से हासिल हो सकने वाले ईंधन से है, जिसे बायो ईंधन कहा जाता है। यह चूंकि एक पर्यावरण मित्र ईंधन है, इसलिये इसमें प्रत्यक्षत: कोई हानि नजर नहीं आती है।
परन्तु हर बात के दो पहलू अवश्य होते हैं। बायो ईंधन के खतरे भी हैं। आलोचकों का कहना है कि ऐसे ईंधन का क्या लाभ, जो जंगलो का सफाया करवाते हुऐ पर्यावरण का नया संकट पैदा कर रहा है। और ऐसा भी बायो ईंधन क्या, जिसे हासिल करने के क्रम में हम अपने भोजन से भी वंचित रह जाऐं? बायो ईंधन हासिल करने के लिये इंडोनेशिया और मलेशिया मे पाम की रोपाई के लिये बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं। खतरा यह भी यह है कि जिन अनाज फसलो का इस्तेमाल इंसान के भोजन के रूप में होता है, अगर उनका प्रयोग बायो ईंधन के रूप मे होने लगा, तो ऐसी फसलों-अनाजों की कीमतें कहां जाऐंगी? अमेरिका मे गत वर्ष मक्के की कीमत मे 50 फीसदी का इजाफा हुआ,तो सोयाबीन की कीमतों मे भी 30% तक की बढ़ोतरी होने की आशंका है। हांलाकि पूरी दुनिया मे एक सा माहौल नहीं है। जिन देशों मे गन्ने से एथेनांल हासिल किया जा रहा है, वहां दूसरी फसलों की कीमतें नहीं बढ़ रही।
अगर भारत की बात की जाये तो हमारे यहां गन्ने की भरपूर खेती है। यानि कि हमें एथेनांल के लिये अलग से खेती करने की जरूरत नही। फिर बायो ईंधन के एक अन्य स्त्रोत जटरोफा की खेती के बंजी जमीनों के लिये की जा रही है। इसलिये भारत में तो फिलहाल को समस्या पैदा होती नजर नहीं आ रही है। दरअसल भारत मे खतरे दूसरी किस्म के हैं। पर्यावरणविद् बता रहे हैं कि बायो ईंधन के लिये जिन बंजर जमीनों की बात हो रही है, वे जमीने पूरी तरह से बंजर नहीं होती। कभी उन जगहों पर जंगल हुआ करते थे।जंगल साफ करने से जो सामान्य भूमि मिलती है, कायदे से उसका इस्तेमाल स्थानीय किसान अपनी विविध जरूरतों के लिये करते हैं।पर अगर दैनिक उपभोग की वे सभी चीजें वहां से हटा दी गयीं और केवल जटरोफा की पैदावार की जाऐं तो वहां की सामाजिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। वस्तुत: हमें अगर अमेरिका की तरह अच्छी क्वालिटी के एथेनांल की आवश्यकता पड़ी, तो वह मक्के से ही मिलेगा।उससे ग्रीन हाउस गैस भी कम निकलती है। लिहाजा हमे जटरोफा और गन्ने की जगह बड़े पैमाने पर मक्का उगाना पड़ेगा।
6 टिप्पणियां:
सही कहा आपने. वैकल्पिक ईंधन की तलाश किए बिना अब गुजारा मुश्किल है. आपने एक ऐसे विषय को लिखने के लिए चुना जिसके बारे में दुर्भाग्य से बहुत कम चर्चा होती है. केवल एक बात इस पोस्ट में खटक गई कि आपने इसका समापन किसी निष्कर्ष तक पहुंचे बिना कर दिया. आपका प्रोफाइल कह रहा है कि आप मीडिया की छात्रा हैं. मैं मीडिया से जुड़ा हुआ हूं इसलिए यह बिन मांगी सलाह देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा कि अपनी बात को पूरे विश्वास से कहें और अपना मत भी बताएं वरना पाठक नोटिस नहीं लेगा. सार्थक लेखन के लिए साधुवाद.
यदि पर्यावरण से जुड़े विषयों में रुचि है तो इस चिट्ठे को भी पढ़ें और अपनी राय व्यक्त करें.
http://www.paryanaad.blogspot.com
दीप्ति जी
अच्छा आलेख लिखा है आपने !
जैव इंधन आज हमारी जरुरत है और हम इससे इंकार नहीं कर सकते. बायो टेक्नोलॉजी के विद्यार्थी होने के नाते मैं कुछ पहलुओ की तरफ़ आपका ध्यान इंगित करना चाहूँगा . सर्वप्रथम तमाम बायो इंधन अन्य परंपरागत उर्जा स्रोतों की अपेक्षाकृत सस्ते हैं . महंगाई की चपेट में इन्धानो की मुल्यावृधि किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में जैव इन्धानो का उपयोग निश्चय ही उपभोक्ताओ की जेब पर थोडी रियायत करेगा. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जत्रोपा की खेती के लिए बहुत ही अनुकूल हैं और वहाँ पर इनके सफलतम उत्पादन के लिए कवायद शुरु की जा चुकी है .. जत्रोपा से बने हुए जैव डीसल की कीमत बस १८ रुपये प्रति लीटर है . ऐसे में आवश्यकता है लोगो के इन वैकल्पिक स्रोतों के प्रति जागरूक होने की ...
बिल्कुल सही कहा है आपने . हर चीज के दो पहलू होते हैं . पर हम अपनी कर्मण्यता से जैव इन्ध्नो के प्रयोग से उत्पन्न नकारात्मक पहलुओ को बहुत हद तक दूर कर सकते हैं . हम बायो डीसल प्राप्ति हेतु पेडो की कटाई के बाद अगर तुरंत क्रमिक रूप से पेड़ लगते भी जाए तो ये कोई सम्यस्य नहीं रहेगी . वैसे देखा जाए तो जैव इंधन में प्रयुक्त होने वाले सभी संसाधन वस्तुतः फसले हैं और फसलों की कटाई तो एक दिन होनी ही है . एक फसल की कटाई के बाद दूसरी फसल लगाई जा सकती है .
अंत में यह कहते हुए क्षमा चाहूँगा की आपने जैव इन्धनो की एक प्रमुख कमजोरी नहीं बताई . आपका ब्लॉग चुकी बहुत ही अच्छा है और मैं उसे यहाँ पर इस सन्दर्भ में बताना चाहूँगा की जैव इंधन के उत्पादन के समय हमे अन्य सहायक उत्पाद नहीं मिलते जैसे पेट्रोल के निष्कर्षण से मिलते हैं . पेट्रोल के विभागीय निष्कर्षण से हमे गैसोलीन , केरोसीन , वैक्स , ईथर जैसे अन्य उत्पाद भी मिलते हैं जो जैव इन्धनो से सम्भव नहीं है ... अतः ये तो तय है की जैव इंधन पूर्ण रूप से परंपरागत उर्जा स्रोत ""पेट्रोल"" का विस्थापन नहीं कर सकते . पर हाँ चूँकि ये नवीनीकृत तथा सस्ते हैं अतः मेरी समझ से इनका भविष्य निर्विवाद रूप से उज्जवल है .....
प्रतिक्रिया बहुत ही लम्बी हो गयी है . पर अंत में आपको जत्रोपा प्लांट से जुड़े एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटनाक्रम से अवगत करना चाहूँगा ...
"" आपको जन कर ये सुखद अनुभव होगा की जत्रोपा की सबसे अच्छी प्रजाति हमारे भारत देश में पाई जाती है .. पर हमारे देश के एक कृषि विश्वविद्यालय ( रायपुर ( मध्य प्रदेश) की इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय ) के प्रोफेसर ने इस दुर्लभ प्रजाति का जर्म प्लास्म ( डी एन ऐ ) एक विदेशी कंपनी को दस करोड़ रुपयों में बेच दिया .. मुकदमा चल रहा है .. और शायद आपको पता न हो पर इसी कारण बायो डीसल अभी तक उपभोक्ताओ तक नहीं आ पाया है .. अभी तक जैव इन्धनो का एकमात्र बिक्री स्थल है जो की संभवतः मध्यप्रदेश में ही कहीं है ..""
एक बार फिर अपने पाठको के बीच जैव इन्ध्नो के प्रति जागरूकता जागृत करने हेतु ,, मेरी ओर से कोटिशः प्रणाम !!!!
उम्मीद है आपका नया आलेख फिर पढूंगा ...
आपका हितैषी
सुरेन्द्र सुमन
सो तो ठीक है, लेकिन बायो ईंधन भी एक दिन चूक जाएगा. इसके बाद क्या होगा?
दीप्ती जी आपको इस संदर्भ में लिखने के लिए धन्यवाद एवं सुरेन्द्र भाई आपनें भी महत्वपूर्ण जानकारी दी है, चूंकि मैं भी छत्तीसगढ से हूं इस कारण सुरेन्द्र जी द्वारा बताये गये सच से वाकिफ हूं । विगत कुछ वर्षों से जेट्रोफा की रोपणी के लिए यहां सरकार एवं निजी क्षेत्र में भी काफी काम किया गया है पर इसके प्रोसेसिंग के लिए काम सिफर है । दूसरी बात यह है कि रोपणी में उगे एवं प्राकृतिक रूप उगे जेट्रोफा में समस्या यह आ रही है कि बीजउत्पादन क्षमता हर वृक्ष के पास नहीं हे (मेल-फिमेल) जिसके कारण हजारो एकड के प्लांटेंशन हरे भरे होते हुए भी काम के नहीं हैं, जर्मप्लाजा की गिक्री व चोरों के द्वारा जर्मप्लाजा के रोपणी को चुरा लिये जाने के कारण नई प्रजाति का विकास संभव नहीं है । पूरे देश में जेट्रोफा के उत्पादन के लिए सरकार द्वारा बडे गडे दावे किये गये हैं पर वे फलित होते प्रतीत नहीं होते, ऐसे में मक्का व गन्ना से यदि कुछ बन पाये तो ही हमें बायोफ्यूल नजर आ पायेगा । वैसे आपके इस पोस्ट के संबंध में ब्लागर भाई दर्द हिन्दुस्तानी (डॉ.पंकज अवधिया, प्रसिद्ध वनस्पतिशास्त्री) के कमेंट का इंतजार करें वो ही सहीं जानकारी दे पायेंगें ।
'आरंभ' छत्तीसगढ से आगाज
लेख बढ़िया है!
इस बारे में विस्तृत जानकारी के लिए पंकज अवधिया जी से संपर्क करें!!
बायो गॅस एक अच्छा वेकल्पिक इंधन है और गाँवों में कई जगह इसका काफी प्रयोग भी किया गया है ।किसानों के लिये यह खास उपयोगी है क्यूंकि इसके लिये लगने वाला कच्चा माल तो खेती से निकल ही आता है ।
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