अच्छा नहीं लगा ना यह जानकर कि ज्यादा जीने का मतलब बुढ़ापे को ज्यादा झेलना है। मगर यह सच है। हम में से शायद ही कोई ऐसा होगा जो कम जीना चाहता होगा। हम सभी लंबी उमर की कामना तो करते हैं पर बुढापे की कल्पना कोई नहीं करना चाहता।
हाल ही में किये गये सर्वक्षेण के अनुसार स्वास्थय जागरूकता अभियान के बदौलत आने वाले कुछ सालों में भारतीयों की आयु उतनी लंबी हो सकेगी जितनी अमेरिका के लोगों की होती है। वर्तमान में जीवन दर 64 वर्ष है। यह बात उत्साहवर्धक है कि औसत भारतीय के 75 वर्ष तक जीने की संभावना रहती है। पर हमारे देश में वृद्धों दशा देखते हुऐ यह बात उतनी ही चिन्ता जनक भी है।
हमारे समाज में वृद्धों को उतना सम्मान नहीं मिलता, जितना कि मिलना चाहिये। देश में बने ओल्ड ऐज होम हमारे लिये शर्मनाक हैं और वैसे भी यह वृद्ध आश्रम हमारी संस्कृति नहीं है। यह तो पश्चिमी देशों की रीति है। हमारे यहां बढे-बूढों की सलाह से ही घर चलाने की परम्परा है। पर अंग्रेजीकरण ने हमारी परम्पराओं को नष्ट कर दिया है।
वैसे हमारी सरकार ने वृद्धों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये कुछ उपाय किये हैं। इस वर्ष नागरिक कल्याण विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा स्वास्थय बीमा, पेंशन लाभ और कर रियाअतें द्वारा उन्हे लाभान्वित कराया जा रहा है।
पर मुख्य बात यह है कि कानून का पालन तो मजबूरी में किया जाता है। क्या अपने माता पिता का ख्याल क्या किसी कानून के कारण बाध्य होकर करेगें? उनके ऊपर तो कोई बंदिश नहीं थी जब उन्होने अपने सपनों और इच्छाओं को दबाकर आपकी इच्छाओं को पूरा किया और आपके सपनों को जिया। फिर उन्हीं माता पिता को उनके इतने त्याग के बदले क्या हम उन्हें सम्मान और स्नेह भी नहीं दे सकते? वह भी तब जब उन्हें आपकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
गुरुवार, 13 दिसंबर 2007
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4 टिप्पणियां:
दीप्ति जी , आपने एक महत्वपूर्ण विषय पर अच्छा लेख लिखा है । इस पर और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है । आवश्यक नहीं कि सब माता पिता अपने बच्चों के साथ रहना पसन्द करें । कुछ ऐसे भी होंगे जो अपने हमउम्र लोगों के साथ किसी बहुत ही सुविधाजनक आवास में रहना चाहें , जहाँ वे अपनी उम्र व पीढ़ी के लोगों के साथ खेलें, बातचीत करें, हँसी मजाक करें और जीवन के अन्तिम वर्षों में भी प्रसन्न चित्त रहें ।
परन्तु यह सच है कि लम्बी आयु जहाँ समाज की प्रगति दर्शाती है वहीं बहुत सी समस्याएँ भी लाती है ।
घुघूती बासूती
मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं। जब हम बच्चे थे तो हमारा मन भी करता था कि हम अपने उम्र के बच्चों के साथ रहें। पर केवल कुछ देर तक। फिर उसके बाद हमे मम्मी की याद आने लगती थी।उसी तरह यह सही है कि बडी उम्र के लोग कुछ देर के लिये भले ही अपनी उमर के लोगों के साथ हंसना बोलना चाहें पर आखिर में अपने बच्चे और नाती पोतों के पास जाने को मन तड़प जाता है।वो भी चाहते है कि घर में उनकी राय को महत्व दिया जाये जो कि जरूरी भी होता है।
deepti jee,
subh sneh. achha hai aap wapas aa gaye hain naa sirf aa gaye hain balki dobara se yahan sakriya ho gayee hain . blog jagat par gambhir lekhan mein aapkaa naam bhee shaamil ho jayegaa aisee mujhe umeed hai.
jahan tak is lekh kee baat hai to kam se kam mujhe to yahee lagtaa hai ki hum wahee kaate hain jo boyaa hotaa hai. yani jo sanskaar jo charitra badon se bachhon ko milte hain uskaa asar to dikhegaa hee. aur rahee baat budhape yaa jawaani kee to dekhne kaa nazariyaa kaisaa hai is baat par nirbhar kartaa hai sab kuch. aap hee bataaiye kya umra dhalne ke saath aapkee ye likhne padhne kee aadaat badal jaayegee.
khair mujhe is baat ki khushi hotee hai ki aap blog par bhee puree imaandaari se mehnat kar rahee hain. ek baat aur age se blog par tasveer naa dalaa karen khulne mein dikkat hotee hai.yun aapkaa blog bahut prabhavsaali dikhtaa hai. ek baat aur mujhe tippniyon mein font badalnaa nahin aataa isliye ye naa sochein ki main english mein tippniyan deta hoon
aapkaa
jholtanma
dhanaywad jholtnama jee
achcha laga aapke vichar jaankar.sahi kaha aapne ki jo hum sikhange wahi kal ko humare bachche seekhar hume wapis karenge
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