गुरुवार, 15 नवंबर 2007

अंग्रेजी भाषा या आत्‍महत्‍या कौन सा विकल्‍प चुनेगें आप?


अगर मैं आपसे पूछूं कि आप कितनी भाषाओं का ज्ञान रखते हैं तो आप भले ही कितनी भाषाओं का नाम क्‍यों ना ले लें परन्‍तु कदाचित आपने अगर अंग्रेजी का नाम नहीं लिया तो समझिये कि आपका ज्ञान अधूरा और व्‍यर्थ है।यह ना समझियेगा कि यह विचार मेरे हैं।यह वह कड़वा सत्‍य है जिसे शायद बी टेक द्वितीय वर्ष का वह छात्र नहीं सहन कर पाया और अंग्रेजी ना जानने अपराध उसे आत्‍महत्‍या के अपराध से कहीं बड़ा जान पड़ा।पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के जौनपुर निवासी उस छात्र के इस मेधावी छात्र के इंजीनियर बनने के ख्‍वाब को अंग्रेजी भाषा की अज्ञानता ने चकनाचूर करके रख दिया।ऐसा ही कुछ इलाहाबाद के एक बैंककर्मी रामबाबू पाल के साथ हुआ।उन्होने भी अपने सुसाइड नोट में यही लिखा कि अंग्रेजी ना जानने के कारण उनके स‍हकर्मी उनका उपहास करते थे।जिस कारण वह हीन भावना से ग्रस्‍त थे।तो क्‍या यह मान लिया जाये कि अंग्रजी भाषा का अज्ञानता का अंतिम विकल्‍प केवल आत्‍महत्‍या है।क्‍या किसी भाषा को ना जानने की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
कभी हमने सोचा कि ऐसा क्‍यों हुआ। आजादी की लड़ाई के समय महात्‍मा गांधी ने जिस हिन्‍दी को कभी सारे देश को एक सूत्र मे पिरोने का धागा समझा था वही हिन्‍दी आज अपने ही देश मे परायो सा अनुभव कर रही है।गांधी मानना था कि देश में शिक्षा का माध्‍यम हिन्‍दी होना चाहिये।परन्‍तु देश ने समय के साथ इसे भुला दिया।शायद इसका एक कारण यह भी था कि सारी नयी तकनीकी पुस्‍तकों को हिन्‍दी में उपलब्‍ध कराना पड़ता।जिसके लिये धन की जितनी आवयश्‍कता थी उससे ज्‍यादा जरूरत थी संकल्‍प शक्ति की।पर इसी संकल्‍प शक्ति की कमी ने नई पीढी के कई योग्‍य नौजवानों के लिये उन्‍नित के रास्‍ते बंद कर दिये।
60 से 70 के दशक मे जो लोग अंग्रेजी हटाओ का नारा दे रहे थे , धीरे-धीरे उन्‍हें यह बात समझ में आ गयी कि अंग्रेजी के बिना उनका गुजारा भी असंभव है।परिणाम यह हुआ कि शहर से लेकर गांवों तक अंग्रेजी माध्‍यम के स्‍कूलों के जाल से बिछ गये।नतीजा हिन्‍दी माध्‍यम के स्‍कूल और उसके छात्रों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ा।
अगर गौर किया जाये कि यदि हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था भारतीय भाषाओं मे आधुनिक ज्ञान की पुस्‍तकें उपलब्‍ध करा सकती तो,देश के कई योग्‍य व्‍यक्ति केवल इसलिये आत्‍महत्‍या नहीं करते कि वे अंग्रेजी नहीं जानते।

14 टिप्‍पणियां:

आलोक ने कहा…

दीप्ति जी पूर्ण विराम के बाद एक खाली स्थान छोड़ें तो अच्छा रहेगा।
आपने जो बात कही है उससे हम सब लोग कभी न कभी जूझ चुके हैं। यह हमारे ऊपर ही है कि ऐसा माहौल बनाएँ ताकि अंग्रेज़ी न जानने से इतनी अधिक व्यथा का सामना न करना पड़े।

अनुनाद सिंह ने कहा…

हिन्दी पिछड़ी नहीं है, यह भारत-विरोधी और लोकतंत्र-विरोधी राजनीति का शिकार हुई है। हाँ, कुछ हद तक हिन्दी की दुर्दशा के लिये हिन्दी भाषियों की आत्महीनता, स्वाभिमानहीनता, आर्थिक पिछड़ापन और संकल्पशक्ति की कमी भी जिम्मेदार है।

लेकिन अब फिर से धीरे-धीरे हिन्दी के लिये शुभ माहौल बनता नजर आने लगा है।


आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वागत है। ऐसे ही विचारोत्तेजक लेख लिखते रहिये।

अजय कुमार झा ने कहा…

dipti jee,
aap jaanti hain jab mere samne yahi sawaal aaya tha to maine kya jawab diyaa tha main angreji ki izzat karta hoon magar hindi se beintaha pyaar kartaa hoon, aaj kal bbc hindi ke radio shrotaon ne bhi yahi sawal uthaya hua hai.

aap media ki chhatraa hain kyaa aapki lekhnee kabhi kisi anya madhayam ke liye bhi chalti hai.

दीप्ति गरजोला ने कहा…

पूर्ण विराम की सही जानकारी के लिये धन्‍यवाद आलोक जी। मैं आगे से इस बात का ध्‍यान रखूंगी। सही कहा आपने माहौल तो हमें ही बनाना होगा।

दीप्ति गरजोला ने कहा…

To,
jhotltanma
jee main media ki student hoon,par main samjhi nahi ki aap kya kahna chahte hain.koi anya madhyam se kya tatpraya hai aapka?

विकास परिहार ने कहा…

दीप्ति जी आपका ब्लॉग पढा। आपका ब्लोग़ पढ कर अच्चा लगा। चलिए मुझे यह जान कर खुशी हुई कि अब कम से कम कुछ लोग तो ज़मीन से जुडे मुद्दों पर लिख रहे हैं अन्यथा मुझे तो यह लगता था कि अन्य संचार माध्यमों की तरह चिट्ठे जगत मे भी लोग धरातली मुद्दों को छोड़ कर ऐसे विषयों पर लिख रहे हैं जिनसे उन्हें प्रसिद्धि प्राप्त हो।
और हाँ इस बात से मैं सहमत नहीं हूं कि हिंदी अभी पिछ्ड़ी हुई है क्यों कि अंग्रेज़ी हमारे कार्यालयों मे प्रचलित हो सकती है परंतु हमारे विचार आज भी हिन्दी में ही जन्म लेते हैं। हमारे ज़हन से हिन्दी को कोई ताकत अपदस्थ नहीं कर सकती।

बेनामी ने कहा…

दीप्ति जी ,सबसे पहले ,आपको इतनी शानदार और जमीनी पोस्ट लिखने के लिए बधाई स्वीकार करें !!!!
पता नही कैसे आपका चिटठा आंखो से बचा रहा !!!
दीप्ति जी , मैं भी जौनपुर का रहने वाला हूँ ,ये जान के बहुत दुःख हुआ कि , एक छात्र इंग्लिश कि वज़ह से आत्म हत्या कर लिया ....लेकिन ऐसा करना उपाय नही है ,कायरता है ....मैं भी जब अपनी इंजीनियरिंग के फर्स्ट ईअर में था तो मुझे भी इंग्लिश ठीक से नही आती थी ,बहुत जयादा ही इन्फेरिओरिटी फील होती थी ,लेकिन हमने बहुत मेहनत किया ,और सिर्फ २-३ हफ्ते के अन्दर मैं काफी अच्छी इंग्लिश बोल और लिख सकता था ।

RICHA RAI ने कहा…

दीप्ति जी !!

यथोचित .....

आपको जैसा उचित लगे आपको मेरा वही संबोधन स्वीकार्य हो . आपका यह आलेख अच्छा है और सच कहूँ तोः कहीं न कहीं ह्रदय को झंकृत करता है . पर मेरा व्यक्तिगत मंतव्य यह है की अंग्रेजी भाषा से आज आप भाग नहीं सकते , कोई भी नहीं भाग सकता . आप अपनी ब्लॉग्गिंग के लिए कंप्यूटर का प्रयोग सुचारू रूप से करती हैं , पर आप खुद जानती हैं की बिना अंग्रेजी ज्ञान के ये सब करना आपके लिए कितना दुरूह होता . . तात्पर्य यह की अंग्रेजी भाषा आज इस कदर हमारे भीतर सन्निहित हो गयी है की उसका निराकरण संभव नहीं है. उस आत्मघाती जौनपुर के छात्र के संदर्भ में मैं यही कहूँगा की वो एक अत्यंत ही कायरतापूर्ण कदम था . अनजान चीजों को आत्मसात करना प्रखर प्राचीन भारतीय परंपरा रही है और उस छात्र ने इसका निरादर किया है .


मैं हिंदी के विरोध में नहीं हूँ . बेइंतहा प्यार है मुझे हिंदी से .. पर परिवर्तन भी जरुरी है . आप अब अचानक ही एक नयी परिपाटी शुरू नहीं कर सकते . बहुत कुछ बदलना होगा . अंग्रेजी में लिखी सारी पुस्तके बदलनी होगी, सारे कार्यालयी दस्तावेज बदलने होगे ... जो की अत्यंत ही दुरूह है. और भी बहुत कुछ .... .

अतः मैं उन सभी से अनुरोध करूँगा की अंग्रेजी के ज्ञान को अपनी गुलामी या मजबूरी न समझ कर ,, अपने विकास हेतु इसकी अनिवार्यता को समझे.

एक बार फिर इतना सुन्दर लिखने के लिए आपको साधुवाद !!

आपका प्रसंशक

सुरेन्द्र सुमन

बेनामी ने कहा…

देखिये लेखिका महोदया,

में कहूँगा इस प्रकार के "लेखक" / "विचारक" कहलाने वाले थोथे लोगो की बातो पर ना जाएं ... ये आप से अनुरोध करूँगा... इन बेहूदा बात्तो पर ध्यान न दें. ... ऐसे लोगो के विचारो के कारन हम पहले भी गुलाम हुए थे..... आज भी अनिल अम्बानी जैसे "जैचंद" भाई का साथ छोर्ड कर बिल गेट्स की ओअर हो गए हैं... .

"उन्नेसस्सरी ग्लोरिफिकाशन ऑफ़ इंग्लिश" ये सब ये फुहर विचारक देश में फैलाते हैं... और सोचते है के अब "पुलित्ज़र पुरुस्कार" मिलेगा...

आप कृपा करके ये "विचार" यहाँ नही पोस्ट करें.
आप का सुंदर ब्लॉग बुर्रा लगता है .....

कौन कहता है के गूगल नीड्स इंग्लिश और कोम्पुतेर्स नीद इंग्लिश.
ये फिजूल की बातें फैलाने वाले निरे मूर्ख हैं. कोई इन से पूछे के एउरोप के देशो में कौन सी अंग्रेज़ी प्रयोग की जाती है...? फ्रेंच और जर्मन और इटालियन सब अंग्रेज़ी से नफरत करते हैं. उन का सब काम सिर्फ़ उन की भाषा से होता है. इन "गोरी चमरी के भक्तो" के कारन हम गुलाम बने और २०० साल तक बने रहे.... गाँधी जैसे भी भगत सिंग की मौत पे नही बोले... वो भी दीवाने थे और "बैरिस्टर" कहलाना पसंद करते थे. ..... खैर वो बातें फिर कभी...

गूगल और याहू भारती लोगो की कंपनी हैं और सब प्रोग्रम्मिंग हिन्दी या हिंगलिश भाषा से सम्भव है... वरना आप ये देवनागरी मी नही लिख पढ़ रहे होते.
कोम्पुतेर्स की भी भाषा सिर्फ़ एक और शून्य पर आधारित है. अंग्रेजी पर नही... वाह रे सुरिंदर (हू)

आत्महत्या का कोई और भी कारन रह सकता है हम और आप सी बी ई नही हैं ... और यदि आत्महत्या की भी गई ... ये कोई हल नही है... जो इंसान संघर्ष नही कर सकता जीवन में... उस को यहाँ संसार में जीने का भी अधिकार नही है... क्यों एक कायर को रोया जाए...?
"परम दुर्लभ मानव देह..." इस को जो नाष्ट करे उस को इश्वर भी क्षमा नही करता....

बस, यूं कहूँगा के अंग्रेज़ी को पूजना पाप है .... कोई अनिवार्यता नही है ... प्रकृति में कोई ऐसी वस्तु विशेष नही हे' जिस के बगैर प्रकृति चल नही सकती ... अंग्रेज़ी की क्या बिसात है ...

बस, भारत के लोग समझते हैं के अंग्रेज़ी के जाने बगैर विदुवन नही कहलायेंगे ... "साहब" नही समझे जायेंगे .... इस कारन ही "आये कैन टाक इन इंग्लिश... आये कैन वाक इन इंग्लिश ..." की प्रणाली चली .... (थैंक्स अमिताभ जी... )

आज भी अमेरिका की सभ्यता से हमारा जनसमूह पुरा प्रभावित है ..... फिल्मो में होलीवुड की नक़ल और फिर अमेरिका के काले गुलामों की आवाजें हमारे संगीत में बेशर्मी से घुसाई जा रही हैं... और गर्व महसूस किया जता है .... रोते हैं तानसेन भी इन "नेओकालू" गवइयो को सुन कर...

ससुरे भैये आते हैं गावं से अमेरिका ... सब से पहले कालू "ब्रादर" की नक़ल करते हैं...

बेनामी ने कहा…

देखिये लेखिका महोदया,

में कहूँगा इस प्रकार के "लेखक" / "विचारक" कहलाने वाले थोथे लोगो की बातो पर ना जाएं ... ये आप से अनुरोध करूँगा... इन बेहूदा बात्तो पर ध्यान न दें. ... ऐसे लोगो के विचारो के कारन हम पहले भी गुलाम हुए थे..... आज भी अनिल अम्बानी जैसे "जैचंद" भाई का साथ छोर्ड कर बिल गेट्स की ओअर हो गए हैं... .

"उन्नेसस्सरी ग्लोरिफिकाशन ऑफ़ इंग्लिश" ये सब ये फुहर विचारक देश में फैलाते हैं... और सोचते है के अब "पुलित्ज़र पुरुस्कार" मिलेगा...

आप कृपा करके ये "विचार" यहाँ नही पोस्ट करें.
आप का सुंदर ब्लॉग बुर्रा लगता है .....

कौन कहता है के गूगल नीड्स इंग्लिश और कोम्पुतेर्स नीद इंग्लिश.
ये फिजूल की बातें फैलाने वाले निरे मूर्ख हैं. कोई इन से पूछे के एउरोप के देशो में कौन सी अंग्रेज़ी प्रयोग की जाती है...? फ्रेंच और जर्मन और इटालियन सब अंग्रेज़ी से नफरत करते हैं. उन का सब काम सिर्फ़ उन की भाषा से होता है. इन "गोरी चमरी के भक्तो" के कारन हम गुलाम बने और २०० साल तक बने रहे.... गाँधी जैसे भी भगत सिंग की मौत पे नही बोले... वो भी दीवाने थे और "बैरिस्टर" कहलाना पसंद करते थे. ..... खैर वो बातें फिर कभी...

गूगल और याहू भारती लोगो की कंपनी हैं और सब प्रोग्रम्मिंग हिन्दी या हिंगलिश भाषा से सम्भव है... वरना आप ये देवनागरी मी नही लिख पढ़ रहे होते.
कोम्पुतेर्स की भी भाषा सिर्फ़ एक और शून्य पर आधारित है. अंग्रेजी पर नही... वाह रे सुरिंदर (हू)

आत्महत्या का कोई और भी कारन रह सकता है हम और आप सी बी ई नही हैं ... और यदि आत्महत्या की भी गई ... ये कोई हल नही है... जो इंसान संघर्ष नही कर सकता जीवन में... उस को यहाँ संसार में जीने का भी अधिकार नही है... क्यों एक कायर को रोया जाए...?
"परम दुर्लभ मानव देह..." इस को जो नाष्ट करे उस को इश्वर भी क्षमा नही करता....

बस, यूं कहूँगा के अंग्रेज़ी को पूजना पाप है .... कोई अनिवार्यता नही है ... प्रकृति में कोई ऐसी वस्तु विशेष नही हे' जिस के बगैर प्रकृति चल नही सकती ... अंग्रेज़ी की क्या बिसात है ...

बस, भारत के लोग समझते हैं के अंग्रेज़ी के जाने बगैर विदुवन नही कहलायेंगे ... "साहब" नही समझे जायेंगे .... इस कारन ही "आये कैन टाक इन इंग्लिश... आये कैन वाक इन इंग्लिश ..." की प्रणाली चली .... (थैंक्स अमिताभ जी... )

आज भी अमेरिका की सभ्यता से हमारा जनसमूह पुरा प्रभावित है ..... फिल्मो में होलीवुड की नक़ल और फिर अमेरिका के काले गुलामों की आवाजें हमारे संगीत में बेशर्मी से घुसाई जा रही हैं... और गर्व महसूस किया जता है .... रोते हैं तानसेन भी इन "नेओकालू" गवइयो को सुन कर...

ससुरे भैये आते हैं गावं से अमेरिका ... सब से पहले कालू "ब्रादर" की नक़ल करते हैं...

बेनामी ने कहा…

स्वामी जी,

अति सुंदर लिखा आपने ... क्या विचार हैं आप के .... वाह महान भारत की महान संतान ....

जयचंद खबीस मुसलमानों को न्योत के लाया था हिन्दुअत्न को लुटने को अपने भाई के खिलाफ .... ये अम्बानी का छोरा एम् एन सी वाले "बिल" को लाया है ...

हे राम...! फिर से ईस्ट (वेस्ट) इंडिया कंपनी कब्ज़ा करेगी भारत पर ... धीरे धीरे ... सारी के सारी जनता ऊट पटांग हो गई है....

कहाँ हो गोविन्द ... ? बहुत बांसुरी बजा ली ...
शिव सोया है .... तांडव कौन करेगा ... ?

बेनामी ने कहा…

अरे सुग्रीव चाचा,

ये छोरी बहुत मैंने भाये है ... इस की कुंडली मंगवा लो ना ... मेरे लिए ... प्लीज़ ...

(इस की खातिर में अंग्रेज़ी भी सीख लूँगा और अकेला राम जी का सेतु भी बना दूंगा .....)

बेनामी ने कहा…

अबे भइया क्यों अपना बी. पी. बढ़ा रहे हो....

ध्यान से देख मूरख,
उस की मांग भरी है ... कोई तेरे से पहले धनुष तोर्ड गया ...

विश्वास नही ...? अच्छा ... गुप्ता गुप्तचर को भेजते हैं ... दिल्ली ... पता लगा के आयेगा साथ में नथू की मिठाई भी भेज देते हैं ...

बेनामी ने कहा…

इकोनोमी में भेजना...

उस का अकाउंट ओवर द्द्र्रान है ....