शनिवार, 20 अक्टूबर 2007
अभिनय की विरासत संभाले नयी पीढ़ी
कहते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है।जो कि ठीक भी है।तो लीजिये अभिनय की नयी फसल तैयार है।पर यह फसल फिल्म इण्डस्ट्री की खुद की खेती है।साफ शब्दों मे कहूं तो ये नयी पीढी फिल्म कलाकारों की वह संताने हैं जिन्हे अभिनय अपने माता-पिता से विरासत में मिला है।जिसका सबसे बड़ा लाभ इन लोगों को यह मिलता है कि इन्हे अन्य लोगों की तरह फिल्मों मे कदम रखने के लिये कड़ा संघर्ष नहीं करना पड़ता।जिसका सबसे ताजा उदाहरण है-संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘सांवरिया’।जरा सोचिये अगर रणवीर कपूर ऋषि कपूर के और सोनम अनिल कपूर की बेटी ना होती तो क्या भंसाली उनको इतनी सरलता से अपनी फिल्म के लिये चुनते।इसी तरह से ‘दिल दोस्ती ईटीसी’से आगाज करने वाले इमाद शाह अभिनेता नसीरूद्वीन शाह के सुपुत्र हैं।ऐसे ही और कई नाम फिल्मी दुनिया में कदम रखने को तैयार खड़े हैं।इस नयी पीढी को फिल्मों मे पहला कदम रखने मे कोई परेशानी नहीं होती,बल्कि फिल्मकार स्वंय पलकें बिछाकर इन्हें साइन करने को तैयार रहते हैं।पर इन सभी को एक परेशानी का सामना अवश्य करना पड़ता है।वह यह कि दर्शक इनकी तुलना इनके माता पिता से अवश्य करते हैं।जिसके चलते नयी पीढी स्वयं को एक अलग पहचान बनाने में बहुत संघर्ष करना पड़ता है।इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है अभिषेक बच्चन।जिन्हे अपने पिता की छवि से बाहर आने मे 7 साल लग गये।आज अगर उनकी खुद की एक अलग पहचान है तो इसका पूरा श्रेय जाता है उनकी कड़ी मेहनत और संघर्ष को। जबकि अगर देखा जाये तो बाहर से आये कलाकारों को अपनी पहचान बनाने मे ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती है।क्योकि लोग उन्हें उनके नाम से ज्यादा उनके काम से पहचानते हैं।चलिये छोडिये फायदे –नुकसान की बातें।गौर करने वाली बात तो यह है कि इस नयी पीढ़ी मे कितना दम है।ये नयी पीढ़ी अपनी विरासत को संभालने मे कितना सफल हो पाती है इसका फैसला तो आने वाला वक्त ही बताऐगा।
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8 टिप्पणियां:
दीप्ति, फिल्म वालों के बेटे-बेटियां एक लम्बे अर्से से फिल्म इंडस्ट्री में हैं।मगर बहुत कम ही चल पाय्र हैं। देखते हैं कि 'सांवरिया' के फिल्मी किर्दारों का क्या होता है।
अभी मौसम बहुत खुश है
बारिश हो तो सोचेंगे
हमें अपने अरमानों को
किस मिट्टी में बोना है
दीप्ति, आपने जो विषय चुना है वह बहुत पेचीदा है। भारतीय सिनेमा इस समय संक्रांति काल से गुज़र रहा है। किसी को कुछ सूझ, समझ नहीं रहा है। सारे निर्माता, निर्देशक एक ही पटरी पर दौड़ रहे हैं। अच्छे प्रयास के लिए आपको ढेर सारी बधाई। आपका चिंतन धारदार है और शायद ऐसा चिंतन फिल्म बनाने से पहले हो तो क्या कहने। यह हिंदी का दुर्भाग्य है कि 'सांवरिया' को 'सावरिया' नाम दे दिया गया। मगर, आपने इसे सही लिखा है। काश, फिल्म निर्माता भी इसे 'सावरिया' के बजाय 'सांवरिया' ही नाम देते।
रियाज़
फसल कितना पका हुआ है ये तो अगले हफ्ते ही पता चलेगा लेकिन फिल्मी खानदानों से बाहर के लोग भी आए तो ये अच्छी बात होगी. शाह रुख खान, अक्षय कुमार सरीखे इसके उदाहरण हैं
विरासत का ब्राँड लम्बे समय तक नहीं चलता. अंतत: आपको अपने को साबित करना ही पड़ता है. क़ामयाबी का रास्ता थोड़ा आसान तो हो सकता है लेकिन हमेशा नहीं. रणदीप और सोनम को अपने विरसे का फ़ायदा ज़ाती तौर पर तो निश्चित ही मिलेगा लेकिन आख़िर में उनकी फ़ेसवेल्यू ही कारगर सिध्द करेगी कि वे कितना लंबा चलेंगे.संजय लीला भंसाली क़तई नये नामों को वो तवज्जो नहीं देते जो उन्होने इस नई जोड़ी को दी है.आपका नज़रिया एकदम ठीक ही नहीं निर्वेरोध है.
संजय जी से पूरी सहमति है मेरी भी !
hello.. dipti jee. aapke lekh padhe hai. vastav me ucch koti ke hai. mujhe vishvas hi nahi mera dava bhi hai ki ek din aap duniya me nam karogi. jisse bharat gourvanvit hoga. meri gud se yahi parere hai. best of luk
दीप्ति जी मैं आप से थोड़ा ही सहमत हूँ. ..अरे भई मेरे हिसाब से हम पत्रकारों को हमेशा मामले के नकारात्मक पहलू को उजागर करने का काम नही करना चाहिए ! चलो ये माना ये पीढ़ी फिल्म कलाकारों की वह संताने हैं जिन्हे अभिनय अपने माता-पिता से विरासत में मिला है ये कोई पहली बार नही हो रहा है लेकिन सफल वही हुआ है जिसमे योग्यता थी।
वाह क्या लिखती हो आप?
बिंदास....
ज़बरदस्त..
और क्या बोलू,,,
आप के विचार उत्तम हैं!
आप के कलम मे बहुत ताकत है
बंद मत करना इसको ..
लगी रहो ..हमलोग साथ हैं...
प्रेम प्रकाश
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