अभी कुछ समय पहले एक फिल्म आयी थी ‘चक दे’।जिसमे शाहरूख खान ने एक कोच की भूमिका अदा करते हुऐ भारतीय महिला हाकी टीम को सुप्तावस्था से जगाते हुऐ वर्ल्ड कप तक दिला दिया था।इस फिल्म से पहले तक भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शायद इस बात से भी अनभिज्ञ था कि हाकी हमारे देश का राष्ट्रीय खेल है।परन्तु इस फिल्म की सफलता ने हाकी को सारे देश मे लोकप्रिय बना दिया।जिस तरह से अचानक बाजार मे हाकी स्टिक की मांग बढी है उसे देखते हुऐ भारतीय सिनेमा का समाज के भीतर दखलअंदाजी का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
वैसे इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि सिनेमा सदैव से ही समाज का दर्पण रहा है।कुछ दशक पहले की बात करें तो 1975 मे आयी राजकपूर की ‘बाबी’ ने उस समय के युवाओं को एक नयी राह दिखायी थी।आपातकालीन के दमन का दौर था।‘बाबी’ जैसी कच्ची उम्र की प्रेम कथा से भले उस दौर का कोई सीधा सम्बन्ध् नहीं था,लेकिन बंदिशों मे जकड़े समाज के विद्रोह का संदेश तो यह फिल्म दे ही रही थी।युवाओं ने यह जरूर स्वीकार किया कि कम से कम प्रेम की आजादी तो दो।यह प्रभाव कितना सही था और कितना गलत,यह एक अलग चर्चा का विषय है।पर क्या ऐसा नहीं लगता कि कहीं ना कहीं उस दौर मे मूक रह इमरजेन्सी स्वीकार कर रही पीढी के प्रति नवयुवा पीढी के विरोध का संकेत था।
भारतीय सिनेमा के इतने लम्बे सफर मे हर दौर मे कुछ फिल्में ऐसी अवश्य बनती रहीं जिनका उददेश्य मनोरंजन ना होकर बल्कि समाज की कुरीतियों के प्रति अपना विरोध प्रकट करना था।पर इस तरह की फिल्मों के व्यावसायिक रूप से सफल होने की आशा कम ही होती थी।परन्तु आज का फिल्मकार फिल्म के ना चलने का रिस्क नही उठाना चाहता।वह मनोरंजन के साथ अपना संदेश दर्शकों तक पहुंचाने मे यकीन रखता है।मनोरंजन के साथ अपनी बात रखने का फार्मूला काफी हद तक सफल भी रहा है।‘लगे रहो मुन्ना भाई’ और ‘रंग दे बसन्ती’और हाल मे आयी ‘चक दे’ इसके बेहतरीन उदाहरण हैं।मुन्नाभाई की गांधी गिरी ने तो लोगों को विरोध का नया रास्ता तक दिखा दिया।‘चक दे’ का जादू तो ऐसा चला कि फिल्म रिलीज के कुछ समय बाद ही भारतीय हाकी टीम एशिया कप जीत लायी।टीम के जीतने का पूरा श्रेय तो फिल्म को नहीं दिया जा सकता परन्तु यह कहना भी गलत ना होगा कि टीम को जीत के जज्बे को बढावा देने में कहीं ना कहीं इस फिल्म का प्रभाव अवश्य रहा होगा।
परन्तु उससे भी बड़ा सच यह है कि यदि फिल्मों का प्रभाव समाज पर इतना असरदार होता तो आज हमारा देश विश्व का सबसे खुशहाल देश होता।समाज में चोरी,बलात्कार की एक भी घटना ना होती।अभी कुछ समय पहले रवि चोपड़ा ने विधवा विवाह जैसे संवेदनशील मुद्दे पर एक फिल्म बनाई थी ‘बाबुल’।पर अभी भी हमारे समाज में ‘विधवा विवाह’ की क्या स्थिति है इसकी व्याख्या यहां करना शायद मूर्खता ही होगी।किसी भी फिल्म या कहानी का प्रभाव फिल्म रिलीज होने के कुछ समय तक ही रहता है।लोग फिल्म के साथ हंसते हैं रोते हैं और कुछ समय तक प्रभावित भी रहते हैं परन्तु समय के साथ सब भूल भी जाते हैं।
जिनके पीछे समाज चल दे,ऐसी फिल्मों की आज भी दरकार है।
वैसे इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि सिनेमा सदैव से ही समाज का दर्पण रहा है।कुछ दशक पहले की बात करें तो 1975 मे आयी राजकपूर की ‘बाबी’ ने उस समय के युवाओं को एक नयी राह दिखायी थी।आपातकालीन के दमन का दौर था।‘बाबी’ जैसी कच्ची उम्र की प्रेम कथा से भले उस दौर का कोई सीधा सम्बन्ध् नहीं था,लेकिन बंदिशों मे जकड़े समाज के विद्रोह का संदेश तो यह फिल्म दे ही रही थी।युवाओं ने यह जरूर स्वीकार किया कि कम से कम प्रेम की आजादी तो दो।यह प्रभाव कितना सही था और कितना गलत,यह एक अलग चर्चा का विषय है।पर क्या ऐसा नहीं लगता कि कहीं ना कहीं उस दौर मे मूक रह इमरजेन्सी स्वीकार कर रही पीढी के प्रति नवयुवा पीढी के विरोध का संकेत था।
भारतीय सिनेमा के इतने लम्बे सफर मे हर दौर मे कुछ फिल्में ऐसी अवश्य बनती रहीं जिनका उददेश्य मनोरंजन ना होकर बल्कि समाज की कुरीतियों के प्रति अपना विरोध प्रकट करना था।पर इस तरह की फिल्मों के व्यावसायिक रूप से सफल होने की आशा कम ही होती थी।परन्तु आज का फिल्मकार फिल्म के ना चलने का रिस्क नही उठाना चाहता।वह मनोरंजन के साथ अपना संदेश दर्शकों तक पहुंचाने मे यकीन रखता है।मनोरंजन के साथ अपनी बात रखने का फार्मूला काफी हद तक सफल भी रहा है।‘लगे रहो मुन्ना भाई’ और ‘रंग दे बसन्ती’और हाल मे आयी ‘चक दे’ इसके बेहतरीन उदाहरण हैं।मुन्नाभाई की गांधी गिरी ने तो लोगों को विरोध का नया रास्ता तक दिखा दिया।‘चक दे’ का जादू तो ऐसा चला कि फिल्म रिलीज के कुछ समय बाद ही भारतीय हाकी टीम एशिया कप जीत लायी।टीम के जीतने का पूरा श्रेय तो फिल्म को नहीं दिया जा सकता परन्तु यह कहना भी गलत ना होगा कि टीम को जीत के जज्बे को बढावा देने में कहीं ना कहीं इस फिल्म का प्रभाव अवश्य रहा होगा।
परन्तु उससे भी बड़ा सच यह है कि यदि फिल्मों का प्रभाव समाज पर इतना असरदार होता तो आज हमारा देश विश्व का सबसे खुशहाल देश होता।समाज में चोरी,बलात्कार की एक भी घटना ना होती।अभी कुछ समय पहले रवि चोपड़ा ने विधवा विवाह जैसे संवेदनशील मुद्दे पर एक फिल्म बनाई थी ‘बाबुल’।पर अभी भी हमारे समाज में ‘विधवा विवाह’ की क्या स्थिति है इसकी व्याख्या यहां करना शायद मूर्खता ही होगी।किसी भी फिल्म या कहानी का प्रभाव फिल्म रिलीज होने के कुछ समय तक ही रहता है।लोग फिल्म के साथ हंसते हैं रोते हैं और कुछ समय तक प्रभावित भी रहते हैं परन्तु समय के साथ सब भूल भी जाते हैं।
जिनके पीछे समाज चल दे,ऐसी फिल्मों की आज भी दरकार है।
7 टिप्पणियां:
अच्छा सारगर्भित लेख, निश्चित रूप से आपके लेखनी में धार है और आप गम्भीर मुद्दों पर अच्छा लिखती है। ऐसे ही लेख ही समाज में जरूरत है।
प्रमेन्द्र प्रताप सिंह
http://pramendra.blogspot.com
दीप्ति जी.. आप का ब्लोग देख कर अच्छा लगा.. स्वागत है..लेकिन आप ने लिखा है कि दर्पण. कभी झूठ नही बोलता.. मै तो कहूंगा.. दर्पण हमेशा झूठ बोलता है..बिलकुल उल्टा बोलता है..कभी भी इसका विश्वास मत करना। सीधे को उल्टा और उल्टे को सीधा बताता है..आजमा के देख लो.. बाएं को दायां और दाएं को बायां बताता है..हमेशा
और परछाईं.. वह भी कभी कभी साथ छोड़ देती है..खासकर तब जब आपको उसकी सर्वाधिक जरूरत होती है.. अंधेरों में...
दीप्ति आपने वाकई एक शानदार प्रयास किया है। सिनेमा और फिल्मों पर आलोचनात्मक तो बहुत पढ़ने को मिलता है लेकिन समीक्षात्मक बहुत कम। आपने सही कहा समाज को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाली फिल्मों की वाकई बेहद जरूरत है। प्रयास जारी रखें और कोशिश करें कि ऐसे आर्टिकल्स समाचार पत्रों में भी प्रकाशित करायें। क्योंकि ९५ फीसदी जनता आज भी नेट और ब्लॉग की दुनिया से दूर है।
रियाज़
बहुत बढ़िया आलेख, बधाई.
दीप्ती ; आपने फिल्मों के अच्छे पहलू को रेखांकित किया है . यह भी सही है की फ़िल्म के दुष्परिणाम भी समाज को ही भुगतना पड़ते हैं क्योंकि फिल्मकार भी समाज का ही हिस्सा होते हैं.हम कह सकते हैं कि समाज में ही घट रहे अच्छे-बुरे का प्रतिबिम्ब होता है सिनेमा. तफ़सील से अपनी बात व्यक्त करने के लिये साधुवाद.पहली बार आपको पढ़ा अच्छा लगा.
ब्लागिंग की दुनिया में स्वागत है। अच्छा प्रयास है। कोशिश करें कि लेख में रोचकता बनी रहे।
बहुत खुब. स्वागत है आपका ब्लॉगरी की दुनिया में.
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