मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

जोधा अकबर - इतिहास का एक अनछुआ पहलू

सबसे पहले तो मैं क्षमा प्रार्थी हूं कि इतने दिनों से ब्‍लाग की दुनिया से दूर रही। इतने दिनों से अपनी लेखनी पर विराम लगा कर मैं स्‍वयं को बहुत बंधा हुआ महसूस कर रही थी। पर कुछ निजी कारणों से मैं अपने ब्‍लाग को कुछ नया नहीं दे पा रही थी। इसी बीच आशुतोष गोवारिकर की बहुप्रतीक्षित फिल्‍म ‘जोधा-अकबर’ देखने का मौका मिला। काफी दिनों बाद किसी फिल्‍म में मुझे अपने इतिहास को करीब से जानने का मौका मिला। फिल्‍म को देखने के बाद महसूस किया कि हमारे भारत का इतिहास कितना गहरा है। मन किया फिर से अपने इतिहास के पन्‍नों को टटोल कर देखा जाये।
य‍ह फिल्‍म रिलीज से पहले से ही अपनी लागत और कहानी को लेकर चर्चा का विषय रही। परन्‍तु फिल्‍म को देखकर इसमें आयी लागत का अनुमान लगाना सरल है। पर सबसे मुख्‍य और आवश्‍यक वस्‍तु फिल्‍म की कहानी रही। सबसे पहले तो मैँ आशुतोष की हिम्‍मत की सराहना करना चाहूंगी क्‍योंकि भारत जैसे ब‍हुसामप्रदायिक देश में किसी ऐतिहासिक विषय पर फिल्‍म बनाना एक जोखिम भरा काम है। क्‍योंकि फिल्‍म की विषय वस्‍तु के साथ अगर जरा भी छेड़छाड़ हुई तो कुछ विशेष लोग जिन्‍होने समाज में धर्म और जाति का ठेका ले रखा है, सड़कों पर उतरकर विरोध प्रर्दशन करने में जरा भी देर नहीं लगाते।
परन्‍तु इतनी सावधानियों को बरतने के बावजूद भी राजस्‍थान के लोगों ने अकबर जोधा के रिश्‍ते को लेकर भ्रम पैदा किया। वहां के लोगों के अनुसार जोधा अकबर की पत्‍नी नहीं बहू थी। इस कारण उन्‍‍हें इस फिल्‍म से आपत्ति थी। पर सोचनीय बात यह है कि क्‍या आशुतोष ने इतनी बड़ी फिल्‍म का निर्माण करने से पहले इतनी जरूरी बात का ध्‍यान नहीं रखा होगा।

खैर, यह तो होना ही था। कोई भी बड़ी फिल्‍म बिना विवादों के घेरे से नहीं बच सकती। परन्‍तु यहां पर यह बताना भी बहुत जरूरी है कि फिल्‍म के जुड़े हर व्‍यक्ति ने अपना काम पूरी ईमानदारी से निभाया है। जोधा और अकबर के पहनाऐ गये आभूषणों और वेष भूषा का भी खासा ध्‍यान रखा गया है।
फिल्‍म का दूसरा मुख्‍य आर्कषण का केन्‍द्र इसका संगीत है। जो कि आजकल के भड़कीले और शोर शराबे वाले संगीत से बिल्‍कुल अलग है। इसके गीत शान्‍त और सकून देने वाले हैं। फिल्‍म का एक गाना ‘ख्‍वाजा मेरे ख्‍वाजा’ तो मजहब की दीवारों से ऊपर है और सकून भरा है।

इस फिल्‍म से जुड़ी हर बात प्रशंसा के काबिल है। इस फिल्‍म को देखकर अपने इतिहास के कई पहलुओं से रूबरू होने का मौका मिला। हम तो यही उम्‍मीद करते हैं कि हमारे बालीवुड के निर्देशक इस तरह की विषय वस्‍तु पर फिल्‍म बनाते रहें, ताकि आगे आने वाली पीढ़ी समय दर समय अपने सुनहरे इतिहास से मुखातिब हो सके।

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

काश वो दिन फिर से लौट आयें।

सबसे पहले तो आप सभी को मकर संक्राति की बहुत-बहुत शुभकामनाऐं।
आज घर की बहुत याद आ रही है। लगभग दो माह होने को आ रहे हैं घर गये हुऐ, और त्‍यौहार में घर की कसक और भी तेज हो जाती है। हमारे उत्‍तरांचल में मकर संक्राति का पर्व उत्‍तरायणी के नाम से मनाया जा‍ता है। घर में मां के हाथ के घुघुते और बड़ों की खुशबू यहां परदेस तक मैं महसूस कर पाती हूं।

हमारे भारत में एक बात बहुत अच्‍छी है कि यहां लगभग हर माह कोई ना कोई त्‍यौहार अवश्‍य पड़ जाता है, जिस कारण लोग एक दूसरे के लिये समय निकाल पाते हैं। पर आजकल के त्‍यौहारों में वह ताजगी और अपनत्‍व की वह महक ही नहीं रही, जो मुझे अपने बचपन में देखने को मिलती थी। जब मैं छोटी थी तो देखती थी कि हर छोटे बडे त्‍यौहार को हम सब आस पास के लोग मिलकर मनाते थे। लोहड़ी के लिये सब घरों से चंदा इकटृठा किया जाता था, होली के मौके पर सब लोग एक दूसरे के घर जाकर गुझिया बनाने में मदद करते थे। और अगले दिन होली में अलग अलग टोलियां बनती थीं , उसमें होली खेलने का मजा ही कुछ और होता था।

मुझे इस महानगर में रहते हुऐ इतना समय हो गया है और इस दौरान मुझे एक ही बात महसूस हुई , वह यह कि मेरे छोटे से शहर के लोगों में जो अपनेपन की भावना देखने को मिलती है, वह इन महानगरों की बड़ी इमारतों में रहने वाले लोगों में कहीं ढूंढने से भी नहीं मिलती। यहां के लोग सिर्फ अपनी जिदंगी जीने से मतलब रखते हैं। पड़ोसी के सुख- दुख से उन्‍हें कोई लेना देना नहीं होता।

आज मन कर रहा है कि काश वो बचपन के दिन फिर से लौट आयें। काश वो मां के हाथ की मिठाइयों की खुशबू सबके दिलों मे बस जाये, क्‍योंकि उस खुशबू में प्‍यार की महक भी शामिल है। पर मैं जानती हूं कि ये जरा मुश्‍किल है।
मुझे डर है सिर्फ एक बात का कि यह शहर कहीं मुझे भी अपनी चपेट में ना ले ले।

शनिवार, 12 जनवरी 2008

लक्ष्‍मी सिर्फ धनवानों की ही अमानत क्‍यों?

मुकेश अंबानी ने अपनी पत्‍नी को ढ़ाई सौ करोड़ का विमान तोहफे में दिया। अगर यह सच है तो मेरे देश की गिनती गरीब देशों मे क्‍यों की जाती है? क्‍योंकि जिस देश में पति अपनी पत्‍नी को ढ़ाई सौ करोड़ का विमान तोहफे में दे सकता है ,वह देश गरीब कैसे हो सकता है? पर यही तो विडंबना है मेरे देश की कि मेरा देश अभी भी गरीबों का देश बना हुआ है। अभी भी देश में सर्दी की रातों में ठंड से ठिठुरकर कर मरने वालों की लम्‍बी गिनती है। गर्मी की दोपहरों में अभी भी गरीब लू से जलने को मजबूर है। अभी भी कई बार गरीब का बच्‍चा रात को भूखा सोने को मजबूर है। पर सच तो यह है कि इन छोटी-छोटी बातों से मुकेश अंबानी जैसे बड़े आदमी का क्‍या वास्‍ता?
ठीक है मैं यह नहीं कहती कि उन्‍हें अमीर होने का कोई हक नहीं है और यह भी नहीं कहती कि सारे देश भर के गरीबों की समस्‍याओं का भार उन्‍हें अपने ऊपर ले लेना चाहिये, परन्‍तु यदि इसी रकम का कोई अस्‍पताल या कोई अन्‍य ऐसी जगह का निर्माण कराते जिस से गरीबों का कुछ भला हो जाये और उसे अपनी पत्‍नी को तोहफे के रूप में सौंप देते तो उन हजारों लाखों गरीबों का आशीष भी उन्‍हें प्राप्‍त होता और गरीबों तबके के कुछ लोगों की कुछ समस्‍याओं का समाधान मिल जाता।
इसी तरह से अमिताभ बच्‍चन जैसे कुछ लोग भी हमारे देश में है जो उन मंदिरों में लाखों रूपये का चढ़ाते हैं जिनके दानपात्र पहले से ही भरे हुऐ हैं। यदि यही रकम वह अगर किन्‍हीं जरूरतमंदों की मदद के लिये खर्च कर देते तो ईश्‍वर क्‍या उनसे कुपित हो जाते।


चलिये ये सब उदाहरण उन धनवानों के थे जिन्‍होनें स्‍वयं के पैसे का दुरूपयोग किया है , परन्‍तु इस देश में तो जनता यानि कि सरकारी पैसे के दुरूपयोग करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। इसका सबसे अच्‍छा उदाहरण तो राजस्‍थान की मुख्‍यमंत्री हैं जो सौ करोड़ तो विमान खरीदने में पहले ही खर्च कर चुकी हैं और अभी 15 करोड़ रूपये हवाई पटृटी बनाऐ जाने में खर्चे जा रहे हैं। और हास्‍यपद् बात तो यह है कि यह सब खर्चा उस राज्‍य में किया जा रहा है जहां लोग सालों से भुखमरी का शिकार हैं। जब राज्‍य का मुख्‍यमंत्री ने ही अपनी जनता से आंखे फेर ली हों तो आम आदमी अपनी समस्‍याओं की और किससे गुहार लगाऐगा?

यह एक ऐसा प्रश्‍न है जिसका जवाब पाना देश के भविष्‍य और प्रगति के लिये बहुत जरूरी है। नहीं तो इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में गरीब की समस्‍या का तो पता नहीं पर शायद गरीब अवश्‍य समाप्‍त हो जाऐगा।