शुक्रवार, 27 जून 2008

धनवान हो तो आराम से अपराध करो,,,,





क्‍या कहें हमारे देश का कानून ही कुछ ऐसा है कि जुर्म करने वाला अगर पैसे वाला है तो वह सारी जिन्‍दगी केस लड़ता जाता है, और सजा से बचा रहता है। अभी हाल ही की ही बात है। संजय दत्‍त पर चल रहे मुंबई बमकांड पर पहले तो 14 साल बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। इतने समय मे से संजय दत्‍त ने कुछ समय ही जेल के अंदर बिताया। बाकी समय वह जमानत पर आजाद घूमते रहे, और आराम से अपनी फिल्‍म भी करते रहे। पर 14 साल बाद नतीजा आने के बाद भी क्‍या हुआ। संजू बाबा ने फिर से कोर्ट मे अपील कर दी। और आराम से जमानत पर सारी दुनिया मे घूम रहे हैं। इस से ज्‍यादा देश के कानून की बेइज्‍जती और क्‍या होगी।

मतलब साफ है कि अगर पैसा है तो आप बड़ा से बड़ा जुर्म करके भी साफ बचे रह सकते हैं। जिन्‍दगी भर केस लड़ते रहिये और एक आम आदमी की तरह अपनी जिन्‍दगी जियें। मानती हूं कि जुर्म की सजा सबके लिये बराबर होती है और यह बात कोई मायने नहीं रखती कि वह जुर्म करने वाला अमीर है या गरीब, पर जरा गौर से सोचा जाये कि यदि संजय की जगह कोई गरीब आदमी पर यह आरोप लगा होता और उसे सजा हुई होती तो क्‍या वह संजय दत्‍त की तरह फिर से अपील कर पाता। शायद नही,,,,कभी नहीं उसे अब जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया होता, जोकि सही भी है। क्‍योकि अगर कोई अपराध हुआ है तो उसकी सजा भी होनी चा‍हिये। पर यही सजा संजय दत्‍त को भी होनी चाहिये।

इसमे गलती पैसे वालो की नही है बल्कि देश का कानून बनाने वालो की है। और मेरा ये मानना है कि वक्‍त और हालात को देखते हुऐ देश के कानून में बदलाव होने अतिआवश्‍यक हो जाते हैं। अगर आखिर मे अपराधी को फैसला सुप्रीम कोर्ट ने ही सुनाना है तो बाकी न्‍यायालायो की आवश्‍यकता ही क्‍या है ? सबसे पहले तो किसी केस को शुरू होने मे ही सालो लग जाते हैं। उसके बाद उसका फैसला आने मे सालो का वक्‍त लग जाता है । आदमी की आधी से ज्‍यादा जिदंगी तो ऐसे ही निकल जाती है। और जब सालो बाद भी अगर फैसला उसके हक मे नही आता है तो वह सुप्रीम कोर्ट मे अपील कर देता है। और जमानत पर रिहा हो जाता है। पर यह सब आम आदमी के लिये आसान नही है। ये बात मे उन लोगों के बारे मे बता रही हूं जो कि यह समझते है कि पैसे से कुछ भी खरीदा जा सकता है। देश का कानून भी,,,,,,,,,,,,,और मेरे हिसाब से उनकी ये सोच बहुत हद तक सही भी है।

शुक्रवार, 20 जून 2008

गुर्जर आंदोलन एक फायदे अनेक

हमारे देश के नेताओं के दिमाग की तुलना अगर चाचा चौधरी से की जाये, तो चाचा चौधरी का कम्‍प्‍यूटर से भी तेज चलने वाला दिमाग भी छोटा पड़ जायेगा। आने वाले विधान सभा चुनावों में अपनी कुर्सी की मजबूती बनाये रखने के लिये जो दांव वसुंधरा राजे सरकार ने खेला, उसकी दाद तो देनी ही पड़ेगी।

अगर देखा जाये तो पिछले कुछ दिनों से चल रहे गुर्जर आंदोलन से निजात तो मिल गयी है पर यह कहना गलत होगा कि इस मसले का स्‍थायी हल निकाल गया है। क्‍योकि दोनो ही पक्ष इस मामले का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं। बैंसला जाति के लोग अभी सरकार की तारीफों के पुल बांधते हुऐ यही कह रहे हैं कि राजिस्‍थान सरकार ने उन्‍हें उम्‍मीद से बढकर दिया है।यह लोग अच्‍छी तरह से जानते थे कि यह मामला इतना बड़ा नहीं है। राजिस्‍थान सरकार इस मामले को ज्‍यादा तवज्‍जो ना देते हुऐ उन्‍हे देर सबेर एस टी का दर्जा दे ही देती। तो फिर क्‍या कारण था कि इस बात को एक बड़े आंदोलन का रूप देकर इतने व्‍यापक रूप से सारे देश में प्रचारित किया गया ? और फिर गुर्जरों को विशेष दर्जा देते हुऐ उन्‍हे 5 फीसदी आरक्षण तो दिया ही गया, परन्‍तु उसके साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णो को भी 14 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की गयी।

पूरा मामला बिल्‍कुल आइने की तरह साफ है कि राजे सरकार यह जानती है कि सिर्फ गुर्जरों को खुश रखना ही काफी नही है। अगर उन्‍हें आने वाले चुनावों में अपना पक्ष मजबूत बनाऐ रखना है तो उन्‍हें बाकी जातियों का भी ख्‍याल रखना पड़ेगा। भारतीय जनता पार्टी यह जानती है कि कुछ गुर्जरो को खुश रखने के एवज मे वह अपने परम्‍रागत सवर्ण वोटों को नही गंवा सकते। इसलिये उन्‍होने उच्‍च जातियों को भी नाराज ना करने की अच्‍छी चाल चली।

लेकिन मामला तो इसके आगे आकर अटक जाता है। क्‍योकि गुर्जरों और आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने से यह कोटा 68% से ऊपर चला जाता है, जो‍कि सुप्रीम कोर्ट की तय सीमा से बाहर है। जाहिर सी बात है यह मामला अब यहां से जाकर कोर्ट मे अटक जाऐगा। यहां पर एक कहावत याद आ रही है कि ‘आसमान से गिरे और खजूर पर अटके’।

रविवार, 15 जून 2008

हर जगह बस आरूषि ही आरूषि‍

सुबह-सुबह अखबार का पहला पन्‍ना खोलकर देखा तो आरूषि, टी वी में न्‍यूज चैनल पर देखा तो आरूषि। आरूषि हत्‍याकांड को पूरा एक माह बीत चुका है। पर मीडिया ने इस घटना को इतनी ज्‍यादा तवज्‍जो दे रखी है कि टीवी चैनल हो या अखबार, हर जग‍ह आरूषि हत्‍याकांड की खबर छायी हुई है। और हैरानी की बात यह है कि इतनी ज्‍यादा तवज्‍जो मिलने के बाद भी पुलिस को अभी तक इस हत्‍याकांड में कोई सफलता नहीं मिल पायी है। मैं यह नहीं कहती कि किसी की बिना कारण हत्‍या हो जाना कोई गैरजरूरी बात है ,परन्‍तु यह खबर इतनी बड़ी भी नही है कि एक महीने तक अखबारों और न्‍यूज चैनलों की सुर्खी बनी रहे।

इसी माह में राजिस्‍थान के गुर्जरों के आंदोलन में कई लोग मारे गये। परन्‍तु इस खबर को केवल कुछ शब्‍दों में समेट कर लिख दिया गया या केवल जानकारी के तौर पर टीवी पर दिखा दिया गया। उन मृत लोगों के परिजनो का क्‍या हुआ, या घायलों की हालत के बारे में कोई सुर्खी नहीं बनी।
सच तो यह है कि मीडिया को खबरों की अहमियत से ज्‍यादा मतलब इस बात से है कि किस खबर से उनके चैनल की टी आर पी ज्‍यादा बढ़ेगी। इस से पहले भी इस तरह की कई घटनाओं को मीडिया वाले अपने चैनल की की बड़ी खबर बनाकर पेश कर चुके हैं। और एक समय के बाद बिना किसी नतीजे की जानकारी दिये खबरें अचानक से गायब हो जाती हैं। क्‍योकिं न्‍यूज चैनल को एक नयी खबर मिल जाती है , जिसे वह अगले कुछ दिनों तक अपने चैनल पर हैडलाइन बनाकर पेश करते रहते हैं।‍ निठारी कांड, किडनी कांड और भी ना जाने ऐसे कितनी खबरें है जो कुछ दिन तक तो टी वी चैनलों और अखबारों की सुर्खियां बनी रहीं , पर आज उन केसों का क्‍या हुआ, इस बारे ना कोई जानना चाहता है और ना कोई चैनल बताना। कुछ दिन इंतजार कीजिये, आरूषि की घटना से बडी खबर मिलते ही आरूषि की खबर ऐसे गायब हो जायेगी जैसे कुछ हुआ ही ना हो।