क्या आपने कभी दान किया है। हम में से बहुत लोगों ने किया होगा। किसी चैरिटी के नाम दान किया होगा और देते समय यह सोचा होगा कि आज हमने बहुत अच्छा काम किया है और दिल को बहुत सुकून मिला होगा। पर आपको विश्वास है कि आपका यह दान सही हाथों में पहुंचा होगा। क्या दान करके ही आप अपने कत्वर्य से मुक्त हो गये? नहीं। अगर आप सही में किसी जरूरत मंद की मदद करना चाहते हैं तो जाइये रात को और देखिये फुटपाथ पर कितने ही गरीब आपको ठंड में कम्बल और रजाई के बिना ठिठुरते हुऐ सोते मिल जाऐगें। जाइये उन्हें चुपके से कम्बल उढ़ा आइये। और बिन बताऐं वापस आ जायें। देखिये आपको कितना सुकून मिलेगा। मेरे विचार से तो वह ही सही मायनो में दान है।
कभी सोचा है आपने इन अनाथलयों के लिये इतने बड़े बड़े लोग दान करते हैं पर फिर भी वहां की स्थिति में कोई सुधार नहीं आता। कारण पैसा सही हाथों में ना पहुचंना है। अगर आप सच में अनाथ बच्चों की मदद करना चाहते हैं तो खुद जाइये और अपने हाथों से उन्हें उनकी जरूरत का सामान बांट कर आइये।
दरअसल असली बात यह है कि हम में से इतना वक्त किसी के पास नहीं है कि स्वंय जाकर किसी की जरूरतों को जाने। इसलिये चेक या रूपये देकर इतिश्री कर लेते हैं। तो अगली बार अगर आप दान करने के बारे में सोचें तो एक बार मेरी बात पर अवश्य गौर कर लीजियेगा।
शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007
गुरुवार, 13 दिसंबर 2007
लंबा जीवन यानि कि ज्यादा बुढ़ापा
अच्छा नहीं लगा ना यह जानकर कि ज्यादा जीने का मतलब बुढ़ापे को ज्यादा झेलना है। मगर यह सच है। हम में से शायद ही कोई ऐसा होगा जो कम जीना चाहता होगा। हम सभी लंबी उमर की कामना तो करते हैं पर बुढापे की कल्पना कोई नहीं करना चाहता।
हाल ही में किये गये सर्वक्षेण के अनुसार स्वास्थय जागरूकता अभियान के बदौलत आने वाले कुछ सालों में भारतीयों की आयु उतनी लंबी हो सकेगी जितनी अमेरिका के लोगों की होती है। वर्तमान में जीवन दर 64 वर्ष है। यह बात उत्साहवर्धक है कि औसत भारतीय के 75 वर्ष तक जीने की संभावना रहती है। पर हमारे देश में वृद्धों दशा देखते हुऐ यह बात उतनी ही चिन्ता जनक भी है।
हमारे समाज में वृद्धों को उतना सम्मान नहीं मिलता, जितना कि मिलना चाहिये। देश में बने ओल्ड ऐज होम हमारे लिये शर्मनाक हैं और वैसे भी यह वृद्ध आश्रम हमारी संस्कृति नहीं है। यह तो पश्चिमी देशों की रीति है। हमारे यहां बढे-बूढों की सलाह से ही घर चलाने की परम्परा है। पर अंग्रेजीकरण ने हमारी परम्पराओं को नष्ट कर दिया है।
वैसे हमारी सरकार ने वृद्धों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये कुछ उपाय किये हैं। इस वर्ष नागरिक कल्याण विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा स्वास्थय बीमा, पेंशन लाभ और कर रियाअतें द्वारा उन्हे लाभान्वित कराया जा रहा है।
पर मुख्य बात यह है कि कानून का पालन तो मजबूरी में किया जाता है। क्या अपने माता पिता का ख्याल क्या किसी कानून के कारण बाध्य होकर करेगें? उनके ऊपर तो कोई बंदिश नहीं थी जब उन्होने अपने सपनों और इच्छाओं को दबाकर आपकी इच्छाओं को पूरा किया और आपके सपनों को जिया। फिर उन्हीं माता पिता को उनके इतने त्याग के बदले क्या हम उन्हें सम्मान और स्नेह भी नहीं दे सकते? वह भी तब जब उन्हें आपकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
हाल ही में किये गये सर्वक्षेण के अनुसार स्वास्थय जागरूकता अभियान के बदौलत आने वाले कुछ सालों में भारतीयों की आयु उतनी लंबी हो सकेगी जितनी अमेरिका के लोगों की होती है। वर्तमान में जीवन दर 64 वर्ष है। यह बात उत्साहवर्धक है कि औसत भारतीय के 75 वर्ष तक जीने की संभावना रहती है। पर हमारे देश में वृद्धों दशा देखते हुऐ यह बात उतनी ही चिन्ता जनक भी है।
हमारे समाज में वृद्धों को उतना सम्मान नहीं मिलता, जितना कि मिलना चाहिये। देश में बने ओल्ड ऐज होम हमारे लिये शर्मनाक हैं और वैसे भी यह वृद्ध आश्रम हमारी संस्कृति नहीं है। यह तो पश्चिमी देशों की रीति है। हमारे यहां बढे-बूढों की सलाह से ही घर चलाने की परम्परा है। पर अंग्रेजीकरण ने हमारी परम्पराओं को नष्ट कर दिया है।
वैसे हमारी सरकार ने वृद्धों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये कुछ उपाय किये हैं। इस वर्ष नागरिक कल्याण विधेयक लोक सभा में प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा स्वास्थय बीमा, पेंशन लाभ और कर रियाअतें द्वारा उन्हे लाभान्वित कराया जा रहा है।
पर मुख्य बात यह है कि कानून का पालन तो मजबूरी में किया जाता है। क्या अपने माता पिता का ख्याल क्या किसी कानून के कारण बाध्य होकर करेगें? उनके ऊपर तो कोई बंदिश नहीं थी जब उन्होने अपने सपनों और इच्छाओं को दबाकर आपकी इच्छाओं को पूरा किया और आपके सपनों को जिया। फिर उन्हीं माता पिता को उनके इतने त्याग के बदले क्या हम उन्हें सम्मान और स्नेह भी नहीं दे सकते? वह भी तब जब उन्हें आपकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
बुधवार, 12 दिसंबर 2007
क्या हैं आप- इंडियन या भारतीय या फिर हिन्दुस्तानी
आप कहेगें तीनों में क्या अंतर है?पर अंतर है और बहुत गहरा है। क्या कभी आपने यह जानने की कोशिश की है कि अमेरिका ,जापान और फ्रांस आदि देशों का नाम हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में एक ही रहता है तो हमारा भारत क्यों अंग्रेजी में इण्डिया हो जाता है? क्यों हम उसे अंग्रेजी में भी भारत नहीं लिख या बोल पाते। सच तो यह है कि इण्डिया नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है और यह उस बड़ी साजिश की नींव थी जिसके तहत अंग्रेजों ने संस्कृति, सभ्यता, और हमारी पहचान स्वयं हमारे ही हाथों नष्ट करने की चाल चली थी और उसमें पूर्ण रूप से सफल भी रहे। हमारे पूर्वज देश को आजाद कराने में तो सफल रहे पर जाते जाते अंग्रेज भारत को इण्डिया बना गये और हमारे पतन का बीज बो गये। और दुख और शरम की बात तो यह है कि आज हमारे देश के लोग इस चाल को समझ नहीं पाये और स्वयं ही इसे खाद पानी देते रहे। जिन अंग्रजों ने हमें 200 साल गुलाम बना कर रखा, आज उन्हीं की भाषा को हम सर माथे पर रख रहे हैं और अपनी राष्ट्रीय भाषा को हीन दृष्टि से देखते हैं। हाल तो यह है कि आज हमारी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी केवल अनपढ़ों और गरीबों की भाषा बन गयी है और अंग्रेजी सभ्य और पढ़े लिखे होने का प्रमाण बन गयी है। मैं पूछती हूं कि क्या खराबी है हमारी हिन्दी में। क्यों हम इसे अपनाने में शरम महसूस करते हैं। वैसे एक बात मै और बताना चाहूंगी कि पूरे विश्व में सिर्फ भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां के लोग अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी के पीछे भाग रहे हैं। जबकि बाकी सारे देशों केवल अपनी राष्ट्रीय भाषा में सारे कार्य किये जाते हैं।
आज जो हिन्दी की अवस्था है,350 साल पहले अंग्रेजी भी इसी तरह अपने अस्तित्व को पाने के लिये तड़प रही थी। तब किसी अंग्रेज ने यह पीड़ा को महसूस किया होगा और अपनी भाषा के लिये संघर्ष किया होगा और यह उसी संघर्ष और कड़ी मेहनत का फल है कि आज अंग्रेजी को अंर्तराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिल चुका है। और अंर्तराष्ट्रीय भाषा की बात करें तो हिन्दी भाषा विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है और विश्व की लगभग 7 अरब की आबादी में डेढ़ सौ करोड़ की आबादी हमारी है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर हमारी राष्ट्रीय भाषा को अंतराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिलना चाहिये।
पर भारत में कुछ इंडियन इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं और स्वयं को भारतवासी कहलाने के बजाए इंडियन कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। वैसे हम भारतीयों का अपना कोई अस्तित्व शुरू से नहीं रहा है। जब जिसने हम पर राज किया उसने हमारा नामकरण कर दिया और हमने उसे खुशी खुशी स्वीकार भी कर लिया बिना यह जाने कि क्यों कोई बाहर वाला हमारे देश का नाम बदले वह भी बिना हमारी इच्छा जाने। अंग्रेजो ने गुलाम बनाया और देश को इण्डिया बना दिया। मुगलों ने राज किया तो बदल के भारत से बदल कर हिन्दुस्तान हो गया था। जबकि कुरान में हिन्दु का अर्थ होता है काफिर। पर हमने बिना कुछ सोचे समझे इसे भी अपना लिया।
सवाल यह है कि हमारी अपनी पहचान क्यों धूमिल होती जा रही है। क्यों हम दूसरों की दी हुई पहचान पर जीने को मजबूर हैं। क्यों हम अपनी राष्ट्रीय भाषा को अपनाने में कतरा रहे हैं। जवाब शायद एक ही है कि हमारे अंदर अपने देश के लिये देशभक्ति का जज्बा दम तोड़ चुका है जो हर देशवासी में होना चाहिये।जरूरत है उसे फिर से जाग्रत करने की ताकि हम अपने देश को और अपनी भाषा को खोया हुआ सम्मान वापस दिला सकें।
आज जो हिन्दी की अवस्था है,350 साल पहले अंग्रेजी भी इसी तरह अपने अस्तित्व को पाने के लिये तड़प रही थी। तब किसी अंग्रेज ने यह पीड़ा को महसूस किया होगा और अपनी भाषा के लिये संघर्ष किया होगा और यह उसी संघर्ष और कड़ी मेहनत का फल है कि आज अंग्रेजी को अंर्तराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिल चुका है। और अंर्तराष्ट्रीय भाषा की बात करें तो हिन्दी भाषा विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है और विश्व की लगभग 7 अरब की आबादी में डेढ़ सौ करोड़ की आबादी हमारी है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर हमारी राष्ट्रीय भाषा को अंतराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिलना चाहिये।
पर भारत में कुछ इंडियन इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं और स्वयं को भारतवासी कहलाने के बजाए इंडियन कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। वैसे हम भारतीयों का अपना कोई अस्तित्व शुरू से नहीं रहा है। जब जिसने हम पर राज किया उसने हमारा नामकरण कर दिया और हमने उसे खुशी खुशी स्वीकार भी कर लिया बिना यह जाने कि क्यों कोई बाहर वाला हमारे देश का नाम बदले वह भी बिना हमारी इच्छा जाने। अंग्रेजो ने गुलाम बनाया और देश को इण्डिया बना दिया। मुगलों ने राज किया तो बदल के भारत से बदल कर हिन्दुस्तान हो गया था। जबकि कुरान में हिन्दु का अर्थ होता है काफिर। पर हमने बिना कुछ सोचे समझे इसे भी अपना लिया।
सवाल यह है कि हमारी अपनी पहचान क्यों धूमिल होती जा रही है। क्यों हम दूसरों की दी हुई पहचान पर जीने को मजबूर हैं। क्यों हम अपनी राष्ट्रीय भाषा को अपनाने में कतरा रहे हैं। जवाब शायद एक ही है कि हमारे अंदर अपने देश के लिये देशभक्ति का जज्बा दम तोड़ चुका है जो हर देशवासी में होना चाहिये।जरूरत है उसे फिर से जाग्रत करने की ताकि हम अपने देश को और अपनी भाषा को खोया हुआ सम्मान वापस दिला सकें।
मंगलवार, 11 दिसंबर 2007
एक दिन यात्रा में,,,,,,,,,,,,,,,,,
परसों सुबह उत्तरांचल से दिल्ली के लिये जाने वाली ‘सम्पर्क क्रान्ति’ रेलगाड़ी से मैं रूद्रपुर स्टेशन से चढ़ी। शादियों के सीजन के कारण यात्रियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। मेरी आरक्षित सीट पर हमेशा की तरह कोई यात्री बैठे हुऐ थे। उठाना बुरा लगा क्योकि उनके साथ एक छोटा बच्चा भी था पर मेरी भी मजबूरी थी। 5 घण्टे का सफर खड़े होकर काटना असम्भव था। खैर जैसे तैसे सीट मिली। बैठी ही थी कि एक अधेड़ उम्र के सज्जन आये और खिड़की वाली सीट पर हक जमाने लगे, जबकि उनकी सीट मेरे बगल मे थी। वैसे मुझे कोई परेशानी नहीं थी कि वह कहीं भी बैठें क्योंकि मेरी सीट बीच में थी पर उनका इस तरह से खिड़की वाली सीट के लिये रौब दिखाना अच्छा नहीं लगा। इसलिये उन्हें समझाया कि उनकी सीट वहां नहीं है पर वह सज्जन समझने को तैयार ही नहीं थे। मैं भी कहां हार मानने वाली थी उन्हें विस्तार से समझाया तब जाकर वह महाशय मेरे बगल में चुपचाप बैठ गये और अखबार पढ़ने में लीन हो गये। खिड़की वाली सीट खाली थी क्योंकि उसमें रामपुर से किसी का आरक्षण था। तब तक उसमें मुझे बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पर वह सौभाग्य क्षणिक था क्योकि लगभग 1 घण्टे बाद ही रामपुर स्टेशन आ गया और हमारी सीट का आखिरी यात्री भी आ गया और मुझे बीच में बैठना पड़ा। तब तक पूरी रेलगाड़ी खचाखच भर चुकी थी। यहां तक कि हमारी सीट के आसपास लोग खड़े होकर यात्र्रा कर रहे थे। खडें हुऐ यात्रियों मे सें किसी एक के पास रेडियो था जिस पर भारत – पाकिस्तान के टेस्ट मैच का सीधा प्रसारण सुनाया जा रहा था। वैसे हिन्दुस्तान में क्रिकेट मैच की खासियत यह है कि यह लोगों को आपस में बात करने पर मजबूर कर देता है। लोग अजनबियों से भी मैच का स्कोर पूछने लग जाते हैं। खैर फिलहाल यहां बात हो रही है रेलगाड़ी के सफर की। मैच का प्रसारण शुरू होते ही अधिकतर लोगों के आकर्षण का केन्द्र वह छोटा का रेडियो बन गया। पर मुझे मैच मे कोई दिलचस्पी नहीं थी इसलिये मै प्रेमचन्द जी का उपन्यास पढ़ने लगी। जो कि मैं आधा पहले पढ़ चुकी थी। इसी तरह मेरी यात्रा पूर्ण हुई और दिल्ली का स्टेशन आ गया। अब यहां से घर जाने के लिये भी तो बस पकड़नी थी जो कि इस समय इतने सारे सामान के साथ थोड़ा कष्टदायी था। घर वालों ने सख्त हिदायत दी थी कि स्टेशन से आटो कर लेना पर भारतीय नारी हमेशा पैसे बचाने के ही बारे में सोचती है। इसलिये घर वालों की हिदायत को ताक पर रखकर बस में चढ़ गयी। बस थोड़ी दूर चलते ही इस तरह खचाखच भर गयी। मुझे सीट तो मिल गयी पर मेरा स्टाप आने तक बस में इतनी भीड़ हो चुकी थी कि मै उतर ही नहीं पायी। बस में पांव रखने की भी जगह भी नहीं थी।सोचती हूं कि दिल्ली में मेट्रो, बस ,आटों और कारों के होते हुऐ भी बसों में इतनी भीड़ कैसे हो जाती है। दो स्टाप आगे आने पर मैने थोडी हिम्मत जुटायी और कंडक्टर से कहा मुझे उतरना है और अपने सहयात्रियों से विनती की कि वह मेरा सामान खिड़की से मुझे पकड़ा दें। तब जाकर कहीं मै बस से उतर पायी। उतरने के बाद मुझे आटो करके घर तक आना पड़ा। इस प्रकार मेरी रोचक सफर समाप्त हुआ।
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