सोमवार, 22 सितंबर 2008

बस कैसे भी चैनल की टीआरपी बढ़ जाऐ........

बात अभी कुछ दिनों पहले की ही है। जब ‘वाइस ऑफ इण्‍डिया’ के विजेता रहे इश्मित की अचानक मौत हो गयी थी। सारे देश भर के चैनलों का जमावाड़ा इश्मित के घर के बाहर लग गया था। हर चैनल उसके परिजनों की तस्‍वीरें लेने की होड़ मे था। दुखी और सदमे की हालत में इश्मित के मा‍ता-पिता का रो-रोकर बुरा हाल था, और यही दृश्‍य हर कैमरामैन अपने कैमरे में कैद करना चाह रहा था। मैं खुद उस समय अपने चैनल के अंदर थी। हमारे आउटपुट के लोग चिल्‍ला- चिल्‍ला के फोन पर उन्‍हें रोते-बिलखते परिजनों के ऊपर कैमरा फोकस करने को कह रहे थे।

थोड़ी ही देर में जब इश्मित का शव उसके घर लाया गया तो उसके फुटेज हमारे पास आये तो मेरे एक सीनियर ने शॉट्स को देखते ही कैमरामैन की तारीफ करते हुऐ बोला ‘बहुत अच्‍छे शॉट्स आये हैं,इ‍श्मित का क्‍लोजअप शॉट है चेहरा साफ दिख रहा है, इन्‍हे जल्‍दी से एडिट कर दो’। मैं हैरान थी कि क्‍या मीडिया इतना भावहीन हो गया है, उसमें क्‍या नाममात्र की भी मानवता नहीं बची है। अगर यही घटना उसके किसी अपने के साथ हुई होती तो भी क्‍या वह इसी तरह से बोलता?

ये तो केवल एक घटना थी जिसे मैनें उदारहण के देने के लिऐ बताया वरना ऐसी घटनाऐं तो रोज मीडिया के अंदर देखने को मिलती हैं। किसी खवरें केवल इसी उद्देश्‍य से दिखायी जाती हैं कि चैनल की टीआरपी बढायी जा सके। इलैक्‍ट्रो‍निक मीडिया का स्‍तर क्‍या इतने नीचे गिर चुका है कि खबरें केवल मसाले की तरह इस्‍तेमाल होने लगी हैं। चैनल सिर्फ पैसा कमाने का जरिया बन चुके हैं और सस्‍ती लोकप्रियता पाने का एकमात्र जरिया है।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

यादों के झरोखे से नैनीताल

मेरा कॉलेज एक काफी ऊंची चोटी पर था। जहां से सारा नैनीताल एक नजर मे समा जाता था। मेरा हॉस्‍टल कॉलेज के थोड़ा सा ही नीचे था। जहां मैं अपने तीनों रूमपार्टनर के साथ मैं से हम हो जाती थी। 10 से लेकर 4 बजे तक का तो समय कॉलेज में और उसके बाद का समय माल रोड पर बीतता था। मल्‍लीताल से तल्‍लीताल तक की उस मालरोड को हम कब नाप जाते थे, पता ही नहीं चलता था। मालरोड पर बैठने के लिऐ बैन्‍च लगी हुई हैं, पर उसमें भी कोई-कोई जगह हमारे बैठने के लिऐ खास होती थी। उन बैन्‍चों पर बैठकर हम अपने आने वाले भविष्‍य के सपने देखते थे। दो साल में हमने नैनीताल की एक-एक जगह देख डाली थी। नैना पीक, जू, टिफिन टाप, क्‍लिपस, राजभवन, हनुमानगढी, लैन्‍डस्एण्‍ड, लवरस्पॉइन्‍ट और भी ना जाने क्‍या-क्‍या………।
हमारा ग्रुप बहुत शैतानों की टोली था। वहां आने वाले टूरिस्‍टों को परेशान करने में हमें पता नहीं क्‍यों बहुत मजा आता था। आज सोचती हूं तो हंसी आती है कि कैसे कर पाते थे हम यह सब? वहां के नंदा देवी के मेले का अपना ही अलग सौन्‍दर्य होता है। जब नंदा-सुनंदा की झांकी निकलती थी तो सारा नैनीताल एक अलग ही रंग मे सराबोर हो जाता था।
नैनीताल में हर साल शरदोत्‍सव आयोजित होता है। जहां काजी नामी-गिरामी लोग शिरकत करने आते हैं। उसको देखने के लिऐ हमें क्‍या-क्‍या पापड़ बेलने पड़ते थे ये सिर्फ हम जानते हैं। दरअसल शरदोत्‍सव रात को 8-9 बजे से शुरू होता था। हमारा हॉस्‍टल वहां से काफी दूरी पर था ,और हॉस्‍टल में देर रात तक बाहर रहने की इजाजत नहीं थी।

नैताताल में मेरी पहली सर्दी थी और उन दिनों मेरे सेमेस्‍टर के पेपर चल रहे थे, हम तीनों रूमपार्टनर अपने-अपने बैड में रजाइयों मे दुबके हुऐ नोट्स रट रहे थे। अचानक………मेरी नजर खिड़की की ओर गयी, देखा तो रूई के फाहों सी बर्फ पानी की बूंदों की तरह मगर आहिस्‍ता-आहिस्‍ता गिर रही थी। ये मेरी जिन्‍दगी की पहली बर्फवारी थी। थोड़ी ही देर में सारा नैनीताल सफेद बर्फ की चादर से ढ़क गया था।

ऐसे ही ना जाने कितने पल हैं जो मेरी यादों के पिटारे में सहेज कर रखे हैं। अभी भी जब दिल्‍ली की भागती जिन्‍दगी से मेरा मन ऊब जाता है तो लगता है नैनीताल की शांत वादियां मुझे बुला रहीं हैं। मेरी जिन्‍दगी के दो साल नैनीताल की यादों से जुड़े हैं। बहुत खूबसूरत बहुत यादगार, अ‍प्रतिम सौन्‍दर्य से सराबोर,,,,,,,,,नैनीताल।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

ये प्रलय की के कदमों की आहट है,,,,,

इनकी पदचाप किसी को सुनाई नहीं दे रही है…………ये प्रलय की पदचाप है जो धीरे धीरे हमारी ओर आ रही है। हमें लगता है कि प्रलय शायद एक दिन आऐगी और सब कुछ खत्‍म हो जाऐगा। पर ऐसा जरूरी नहीं है। अगर आप ध्‍यान दें तो आपको महसूस होगा कि पिछले कुछ वर्षों मे सारी दुनिया मे ऐसी घटनाऐं घटी हैं कि जिसमें तबाही ही तबाही हुई है। याद कीजिये वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर का हादसा, ईराक और अमेरिका का युद्ध, गोधरा कांड और भी बहुत सारे हादसे। और हाल के कुछ दिनों की बात करें तो नैना देवी हादसा, बिहार मे आयी बाढ़ विनाश का ही तो संकेत है।

पिछले कुछ दिनों मे बैंगलोर, अहमदाबाद और राजधानी दिल्‍ली में हुऐ लगातार बम‍ विस्‍फोटों ने तो सारे देश को क्‍या सारी दुनिया को हिला कर रख दिया है। एक ओर ओर तो हम परमाणु परीक्षण समझौते के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर देश की सुरक्षा की अनदेखी की जा रही है। अगर हम सोचें कि ये परमाणु समझौते हमारे लिये क्‍यो महत्‍वपूर्ण है,,,,,देश की तरक्‍की और उन्‍नति के लिये ना। पर हर आम आदमी अपनी प्रगति से पहले अपनी जान की सुरक्षा चाहता है। जिसकी सरकार अनदेखी कर रही है। पाटिल का बयान आता है कि हमें विस्‍फोटों की जानकारी पहले से थी पर जगह और दिन नही पता था। तो क्‍या उनकी जिम्‍मेदारी यह नहीं बनती थी कि राजधानी में सुरक्षा व्‍यवस्‍था को मजबूत कर दिया जाऐ, चौकसी और कड़ी कर दी जाऐ। और भीड़-भाड़ वाले इलाकों मे क्‍लोज सर्किट कैमरे लगाऐ जायें।

ऐसे लोगों के हाथों मे सुरक्षा व्‍यवस्‍था देकर हम कैसे अपने घरों चैन की नींद सो सकते हैं?
ये तो शुरूआत है। अभी तो हमें बहुत से हादसों और विनाशकारी घटनाओं से रू‍बरू होना है……………….

बुधवार, 6 अगस्त 2008

मेट्रो और एसी बसें भी नहीं रोक पायीं दिल्‍ली का ट्रैफिक जाम,,,,,,,,,

दिल्‍ली सरकार की बेइंतहा कोशिशें भी दिल्‍ली के ट्रैफिक जाम की समस्‍या का हल नहीं ढूंढ पा रही हैं। जब महानगर में मेट्रो की शुरूआत की गयी थी तो लोगों के अंदर बड़ी उम्‍मीद जागी थी कि शायद अब ट्रैफिक जाम बीते दिनों की बात हो जाऐगी। पर ये ख्‍वाब दिल्‍ली वालों के लिऐ ख्‍वाब ही रह गया। क्‍योकि मेट्रो का आरामदायक सफर भी शहर के लोगों की समस्‍या का सुलझाने मे असमर्थ रहा। मेट्रो मे तो भीड़ हुई ही परन्‍तु साथ ही सड़क पर गाडियों की तादाद भी ज्‍यों की त्‍यों ही रही।

फिर कुछ माह पहले दिल्‍ली सरकार ने एसी बसों को बड़ी उम्‍मीद के साथ दिल्‍ली की सड़कों पर उतारा, कि शायद अब कुछ राहत मिले। पर नतीजा वही का वही। बड़े-बड़े जाम और उसमें कुछ इंच आगे बढ़ने की जद्दोजहद करते लोग।
मुझे सबसे ज्‍यादा हैरानी इस बात की हुई कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें आसमान छूने को तैयार हो गयी पर सड़कों पर गाडियों की संख्‍या मे कमी दिखाई दी हो। शायद पूरी दिल्‍ली में एक भी गाडी वाला व्‍यक्ति ऐसा नही होगा जिसने अपनी गाडी पेट्रोल की बढी हुई कीमतों के कारण घर पर खड़ी कर दी हो। इस से तो यही होता है कि दिल्‍ली वालों का केवल दिल ही बडा नहीं है बल्कि जेब भी बहुत बडी है। अगर एक घर मे चार लोग हैं तो क्‍या ये जरूरी है कि चारों के पास अपनी एक एक कार होनी चाहिये। अगर एक घर में एक ही गाडी उपयोग मे लाई जाऐ तो ट्रैफिक की समस्‍या के साथ साथ पेट्रोल की किल्‍लत से भी मुक्ति मिल जाऐगी। परन्‍तु अगर लोगों का रवैया इसी प्रकार का रहा तो सरकार चाहे जितने भी उपाय कर ले, इस ट्रैफिक जाम की समस्‍या से छुटकारा पाना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जाऐगा।

शुक्रवार, 27 जून 2008

धनवान हो तो आराम से अपराध करो,,,,





क्‍या कहें हमारे देश का कानून ही कुछ ऐसा है कि जुर्म करने वाला अगर पैसे वाला है तो वह सारी जिन्‍दगी केस लड़ता जाता है, और सजा से बचा रहता है। अभी हाल ही की ही बात है। संजय दत्‍त पर चल रहे मुंबई बमकांड पर पहले तो 14 साल बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। इतने समय मे से संजय दत्‍त ने कुछ समय ही जेल के अंदर बिताया। बाकी समय वह जमानत पर आजाद घूमते रहे, और आराम से अपनी फिल्‍म भी करते रहे। पर 14 साल बाद नतीजा आने के बाद भी क्‍या हुआ। संजू बाबा ने फिर से कोर्ट मे अपील कर दी। और आराम से जमानत पर सारी दुनिया मे घूम रहे हैं। इस से ज्‍यादा देश के कानून की बेइज्‍जती और क्‍या होगी।

मतलब साफ है कि अगर पैसा है तो आप बड़ा से बड़ा जुर्म करके भी साफ बचे रह सकते हैं। जिन्‍दगी भर केस लड़ते रहिये और एक आम आदमी की तरह अपनी जिन्‍दगी जियें। मानती हूं कि जुर्म की सजा सबके लिये बराबर होती है और यह बात कोई मायने नहीं रखती कि वह जुर्म करने वाला अमीर है या गरीब, पर जरा गौर से सोचा जाये कि यदि संजय की जगह कोई गरीब आदमी पर यह आरोप लगा होता और उसे सजा हुई होती तो क्‍या वह संजय दत्‍त की तरह फिर से अपील कर पाता। शायद नही,,,,कभी नहीं उसे अब जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया होता, जोकि सही भी है। क्‍योकि अगर कोई अपराध हुआ है तो उसकी सजा भी होनी चा‍हिये। पर यही सजा संजय दत्‍त को भी होनी चाहिये।

इसमे गलती पैसे वालो की नही है बल्कि देश का कानून बनाने वालो की है। और मेरा ये मानना है कि वक्‍त और हालात को देखते हुऐ देश के कानून में बदलाव होने अतिआवश्‍यक हो जाते हैं। अगर आखिर मे अपराधी को फैसला सुप्रीम कोर्ट ने ही सुनाना है तो बाकी न्‍यायालायो की आवश्‍यकता ही क्‍या है ? सबसे पहले तो किसी केस को शुरू होने मे ही सालो लग जाते हैं। उसके बाद उसका फैसला आने मे सालो का वक्‍त लग जाता है । आदमी की आधी से ज्‍यादा जिदंगी तो ऐसे ही निकल जाती है। और जब सालो बाद भी अगर फैसला उसके हक मे नही आता है तो वह सुप्रीम कोर्ट मे अपील कर देता है। और जमानत पर रिहा हो जाता है। पर यह सब आम आदमी के लिये आसान नही है। ये बात मे उन लोगों के बारे मे बता रही हूं जो कि यह समझते है कि पैसे से कुछ भी खरीदा जा सकता है। देश का कानून भी,,,,,,,,,,,,,और मेरे हिसाब से उनकी ये सोच बहुत हद तक सही भी है।

शुक्रवार, 20 जून 2008

गुर्जर आंदोलन एक फायदे अनेक

हमारे देश के नेताओं के दिमाग की तुलना अगर चाचा चौधरी से की जाये, तो चाचा चौधरी का कम्‍प्‍यूटर से भी तेज चलने वाला दिमाग भी छोटा पड़ जायेगा। आने वाले विधान सभा चुनावों में अपनी कुर्सी की मजबूती बनाये रखने के लिये जो दांव वसुंधरा राजे सरकार ने खेला, उसकी दाद तो देनी ही पड़ेगी।

अगर देखा जाये तो पिछले कुछ दिनों से चल रहे गुर्जर आंदोलन से निजात तो मिल गयी है पर यह कहना गलत होगा कि इस मसले का स्‍थायी हल निकाल गया है। क्‍योकि दोनो ही पक्ष इस मामले का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं। बैंसला जाति के लोग अभी सरकार की तारीफों के पुल बांधते हुऐ यही कह रहे हैं कि राजिस्‍थान सरकार ने उन्‍हें उम्‍मीद से बढकर दिया है।यह लोग अच्‍छी तरह से जानते थे कि यह मामला इतना बड़ा नहीं है। राजिस्‍थान सरकार इस मामले को ज्‍यादा तवज्‍जो ना देते हुऐ उन्‍हे देर सबेर एस टी का दर्जा दे ही देती। तो फिर क्‍या कारण था कि इस बात को एक बड़े आंदोलन का रूप देकर इतने व्‍यापक रूप से सारे देश में प्रचारित किया गया ? और फिर गुर्जरों को विशेष दर्जा देते हुऐ उन्‍हे 5 फीसदी आरक्षण तो दिया ही गया, परन्‍तु उसके साथ ही आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णो को भी 14 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की गयी।

पूरा मामला बिल्‍कुल आइने की तरह साफ है कि राजे सरकार यह जानती है कि सिर्फ गुर्जरों को खुश रखना ही काफी नही है। अगर उन्‍हें आने वाले चुनावों में अपना पक्ष मजबूत बनाऐ रखना है तो उन्‍हें बाकी जातियों का भी ख्‍याल रखना पड़ेगा। भारतीय जनता पार्टी यह जानती है कि कुछ गुर्जरो को खुश रखने के एवज मे वह अपने परम्‍रागत सवर्ण वोटों को नही गंवा सकते। इसलिये उन्‍होने उच्‍च जातियों को भी नाराज ना करने की अच्‍छी चाल चली।

लेकिन मामला तो इसके आगे आकर अटक जाता है। क्‍योकि गुर्जरों और आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने से यह कोटा 68% से ऊपर चला जाता है, जो‍कि सुप्रीम कोर्ट की तय सीमा से बाहर है। जाहिर सी बात है यह मामला अब यहां से जाकर कोर्ट मे अटक जाऐगा। यहां पर एक कहावत याद आ रही है कि ‘आसमान से गिरे और खजूर पर अटके’।

रविवार, 15 जून 2008

हर जगह बस आरूषि ही आरूषि‍

सुबह-सुबह अखबार का पहला पन्‍ना खोलकर देखा तो आरूषि, टी वी में न्‍यूज चैनल पर देखा तो आरूषि। आरूषि हत्‍याकांड को पूरा एक माह बीत चुका है। पर मीडिया ने इस घटना को इतनी ज्‍यादा तवज्‍जो दे रखी है कि टीवी चैनल हो या अखबार, हर जग‍ह आरूषि हत्‍याकांड की खबर छायी हुई है। और हैरानी की बात यह है कि इतनी ज्‍यादा तवज्‍जो मिलने के बाद भी पुलिस को अभी तक इस हत्‍याकांड में कोई सफलता नहीं मिल पायी है। मैं यह नहीं कहती कि किसी की बिना कारण हत्‍या हो जाना कोई गैरजरूरी बात है ,परन्‍तु यह खबर इतनी बड़ी भी नही है कि एक महीने तक अखबारों और न्‍यूज चैनलों की सुर्खी बनी रहे।

इसी माह में राजिस्‍थान के गुर्जरों के आंदोलन में कई लोग मारे गये। परन्‍तु इस खबर को केवल कुछ शब्‍दों में समेट कर लिख दिया गया या केवल जानकारी के तौर पर टीवी पर दिखा दिया गया। उन मृत लोगों के परिजनो का क्‍या हुआ, या घायलों की हालत के बारे में कोई सुर्खी नहीं बनी।
सच तो यह है कि मीडिया को खबरों की अहमियत से ज्‍यादा मतलब इस बात से है कि किस खबर से उनके चैनल की टी आर पी ज्‍यादा बढ़ेगी। इस से पहले भी इस तरह की कई घटनाओं को मीडिया वाले अपने चैनल की की बड़ी खबर बनाकर पेश कर चुके हैं। और एक समय के बाद बिना किसी नतीजे की जानकारी दिये खबरें अचानक से गायब हो जाती हैं। क्‍योकिं न्‍यूज चैनल को एक नयी खबर मिल जाती है , जिसे वह अगले कुछ दिनों तक अपने चैनल पर हैडलाइन बनाकर पेश करते रहते हैं।‍ निठारी कांड, किडनी कांड और भी ना जाने ऐसे कितनी खबरें है जो कुछ दिन तक तो टी वी चैनलों और अखबारों की सुर्खियां बनी रहीं , पर आज उन केसों का क्‍या हुआ, इस बारे ना कोई जानना चाहता है और ना कोई चैनल बताना। कुछ दिन इंतजार कीजिये, आरूषि की घटना से बडी खबर मिलते ही आरूषि की खबर ऐसे गायब हो जायेगी जैसे कुछ हुआ ही ना हो।

शुक्रवार, 23 मई 2008

खुल चुके हैं आतंकवाद के स्‍कूल- नयी फसल की पौध को सींचने की तैयारी

आज तक आपने मेडिकल, इंजीनियरिंग ,फैशन डियाजनिंग के स्‍कूल तो जरूर देखे और सुने होगें ,पर अब पाकिस्‍तान मे एक नया स्‍कूल खुल चुका है- जहां आतंक और तबाही मचाने की की शिक्षा दी जाती है। इस स्‍कूल मे बचपन को बारूद के ढ़ेर पर बिठाने की तैयारी की जाती है।
खबर है कि अलकायदा से जुडे आतंकवादियों ने पाकिस्‍तान के पास एक हिंसाग्रस्‍त इलाके में एक सरकारी स्‍कूल को स्‍यूसाइड बांबरों की एक एकडमी में तब्‍दील कर दिया है।

इस इलाके में तालिबान कंमाडर बैतुल्‍लाह मसूद का राज चलता है। और यह स्‍कूल एक फैक्‍ट्री की तरह था, जहां बच्‍चों को आत्‍मघाती हमलों के लिये तैयार किया जाता था। जांचकर्ताओं को ऐसे फुटेज मिले हैं जिसमें नकाब पहने एक टीचर नजर आ रहा है, और सामने माथे पर कुरान की आयतें लिखे पट्टे बांधे बच्‍चे बैठे हैं। यहां करीबन 50 बच्‍चे ऐसे पकड़े ,जिन्‍हे आत्‍मघाती हमलो के लिये तैयार किया जा रहा था। इनमें से कुछ बच्‍चे ऐसे थे जिन्‍हे यहां अगवा कर के लाया गया था।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि अभी कुछ रोज पहले ही पाकिस्‍तान ने भारत के साथ मिलकर आतंकवाद को खत्‍म करने पर सहमति प्रकट की है। परन्‍तु वहीं दूसरी ओर वहां इस तरह के ट्रेंनिग कैम्‍प के चलने की जानकारी मिलती है। तो इसका क्‍या अर्थ लगाया जाऐ। इस तरह के वादे और सहमतियां आंतकवाद को रोकने के लिऐ नाकाफी हैं। इसलिये पाकिस्‍तान को चाहिये कि वह सबसे पहले अपने देश में इस तरह के संगठनों पर लगाम कसे। और अगर वह इस कार्य में सफल होता है तो आतंकवाद की आधी समस्‍या तो स्‍वंय ही समाप्‍त हो जाऐगी।

गुरुवार, 22 मई 2008

नया कानून- माफी दो, माफी लो……………. सरबजीत दो, अफजल लो।

गृहमंत्री शिवराज पाटिल का यह बयान चौंकाने वाला है कि अगर हम पाकिस्‍तान से सरबजीत के लिये माफी की मांग करते हैं तो भारत में अफजल गुरू के लिये कैसे फांसी सजा तय कर सकते हैं?
ये दोनो ही मामले बिल्‍कुल अलग-अलग हैं, जिनकी तुलना करके गृहमंत्री स्‍वयं एक नये विवाद को तूल देने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा बयान देकर वह राष्‍ट्र विरोधी तत्‍वों तक एक गलत संदेश पंहुचा रहे हैं।
ऐसा बयान देकर गृ‍हमंत्री कानून की अ‍‍हमियत को भी कम कर रहे हैं। अगर हम आपस में ही एक दूसरे के लिये सजा और माफी तय कर लेगें तो देश में संविधान और कानून बनाने की आवश्‍यकता ही क्‍या है? और किसी भी जुर्मों की आपस में तुलना करना बिल्‍कुल गलत है क्‍योकिं हर देश के नियम कायदे और कानून अलग होते हैं। शिवराज पाटिल का यह बयान सुनकर मुझे वह घटना याद आ गयी जब आंतकवादियों ने हमारा पूरा हवाईजहाज हाईजैक कर लिया था और बदले मे हिन्‍दुस्‍तान की जेल मे बंद अपने साथियों की रिहाई की मांग की थी। आज भी स्थिति कुछ ऐसी ही दिखाई दे रही है कि अगर तुम हमें माफी दोगे तो ही हम तुम्‍हें माफ करेगें। जरा सोचिये कि भारत की न्‍याय पालिका ने अगर अफजल को माफ कर दिया तो भारतीय संसद जो कि एक मंदिर की तरह है, की प्रतिष्‍ठा को कितनी ठेस पहुंचेगी। और साथ ही आतंकवादियों के हौसले और भी बुलंद हो जाऐगें। अगली बार वह हिन्‍दुस्‍तान के खिलाफ अपनी योजना बनाते समय एक बार भी नहीं सोचेगें। क्‍योंकि उनके लिये एक सरबजीत फिर से मिल जायेगा। अगर यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब भारत और पाकिस्‍तान में आपस मे माफी के बदले माफी और सजा के बदले का नया कानून लागू हो जाऐगा।

मंगलवार, 6 मई 2008

मंहगाई की मार और आई पी एल का चढ़ता बुखार

इस समय मंहगाई और क्रिकेट दोनों का ग्राफ हमारे देश में दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। जहां एक ओर मंहगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ के रख दी है वहीं दूसरी ओर आईपीएल का बुखार 104C से भी पार होने को बेकरार हो रहा है।

आप सोच रहे होगें कि मैं आईपीएल और मंहगाई की तुलना क्‍यों कर रही हूं। पर जिस तरह से एक ओर मेरे देश में क्रिकेट के नाम पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर एक आम आदमी इस बात से झूझ रहा है कि बाजार में अगर इस तरह से समान की कीमतें बढ़ती रहीं तो वह अगले महीने का राशन का खर्चा कैसे चला पाऐगा।

ये कहां का न्‍याय है कि जिस देश का आम आदमी मंहगाई से ग्रस्‍त हो उसी देश मे क्रिकेट खेलने वालों पर बिना सोचे समझे पैसे की बरसात की जा रही है।

दरअसल कुछ लोग अच्‍छी तरह से जानते हैं कि भारत मे लोग क्रिकेट के जनूनी हैं। यहां क्रिकेटरों को भगवान की तरह पूजा जाता है। तो ऐसे देश में इस खेल से पैसा बनाना कितना आसान है। यहां क्रिकेट को लोग अपनी भावनाओं से जोड़ कर देखते हैं और कुछ व्‍यापारी अपनी व्‍यापार कुशलता का फायदा उठा कर लोगों की भावनाओं को भी बेचने से नहीं चूकते। आईपीएल मे खेलने वाले हर खिलाड़ी पर लाखों करोड़ो की बोली लगी। कहां से आया इतना पैसा ? और अगर देश में इतना पैसा है तो क्‍यो हम मंहगाई बढ़ने का रोना रो रहे हैं।

क्रिकेट भी अब केवल खेल नहीं रह गया है। ये पैसा कमाने का सबसे सरल जरिया बन गया है। कभी मैच फिक्‍सिंग से और कभी खिलाडियों के चयन से। क्रिकेट की लो‍कप्रियता को जितना भुनाया जा सकता है,भुनाया जा रहा है।

मंगलवार, 1 अप्रैल 2008

बाल-मजदूरी का मूक गवाह बनता इंडिया गेट

रविवार की शाम मित्रों के साथ इंडिया गेट जाने का कार्यक्रम बना। सो शाम को इंडिया गेट के सामने बस से उतरकर हम तीनों ने इंडिया गेट की राह ली। रविवार यानि कि छुट्टी का दिन होने से यहां काफी भीड़-भाड़ का माहौल था। लोग अपने- अपने परिवारों के साथ इस मनोरम स्‍थल का आनन्‍द उठाने आये थे। पर उसी के साथ यहां कूड़े के ढ़ेर उन तमाम लोगों की अपने इस देश की राष्‍ट्रीय धरोहर के प्रति स्‍नेह को भी दर्शा रहे थे। ये गन्‍दगी इस बात का सबूत थी कि दिल्‍ली वाले इंडिया गेट को केवल एक पर्यटन स्‍थल मानते हैं।

पर जिस घटना ने मुझे झकझोर के रख दिया, वह साफ-सफाई की बात से भी ऊपर थी। हम तीनों भी थोड़ी देर वहां मैदान मे कुछ पल बिताने के लिये बैठे। हमारे बैठने के पांच या दस मिनट बाद ही वहां अचानक से एक 5-6 वर्षीय बालक एक तश्‍तरी लेकर खड़ा हो गया। हमारी तरफ देखकर बोला, चाय या कांफी लेगें आप? हमारे पूछने पर उसने बताया कि वह वहीं सामने एक चाय के ठेले पर काम करता है। और ऐसे ही ग्राहकों से आर्डर लेता और पहुंचाता है। हमने पूछा कि यह दुकान उसके पिता की है? तो उसने बताया कि वह यहां ध्‍याड़ी पर काम करता है।

यह देखकर हम लोग सन्‍न रह गये कि जहां दिल्‍ली मे सरकार बाल मजदूरी को रोकने के लिये तरह- तरह के कानून बना रही है, वही दूसरी ओर रा‍ष्‍ट्रपति भवन के ठीक सामने देश के कानून व्‍यवस्‍था की धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। और वह भी इंडिया गेट पर, जहां चौबीसों घण्‍टे कड़ी चौकसी रहती है।

हमसे आर्डर के लिये पूछने वाला वह बच्‍चा अकेला नही था। उसके जैसे वहां अनगिनत और बच्‍चे मौजूद थे। जो किसी ना किसी दुकान पर काम कर रहे थे। हमारे ज्‍यादातर सवालों वह बच्‍चा मौन साधा रहा। बहुत संभव है कि इसके लिये उसके मालिक ने सख्‍ती से मना किया हो।

क्‍या हमारी कानून व्‍यवस्‍था क्‍या इतनी अन्‍धी और लाचार हो गयी है कि उसे अपने ही सामने बाल श्रम कर रहे बच्‍चे नहीं दिख पा रहे हैं। वहां दिन रात घूमती पुलिस को क्‍या यह नहीं पता है कि हमारे देश मे बाल श्रम गैरकानूनी है? या फिर ऐसा तो नहीं कि हमारे देश के रक्षक भी इसमें शामिल हैं और ये सब कानून केवल दिखावे के लिये बनाऐ गये हैं। सच्‍चाई चाहे जो भी हो परन्‍तु अगर दिल्‍ली सरकार ऐसे ही अपनी आंखों देखी मक्‍खी निगलती रही तो देश की कानून व्‍यवस्‍था पर से आम जनता का भरोसा उठ जायेगा।A

रविवार, 30 मार्च 2008

मुंबई सिर्फ मुंबई वालों की जागीर ?

बचपन में एक बहुत महशूर पंक्ति सुनी थी कि मुंबई सपनों का शहर है। यहां लोग अपने सपनों को हकीकत में बदलने आते हैं। पर पिछले कुछ समय से इस शहर ने उत्‍तर भारतीय राज्‍यों के लोगों के साथ जो र्दुव्‍यवहार किया है, उसे देखते हुऐ तो यह लगता है कि अब गैर मुंबईवासियों के लिये सिर्फ डरावने सपनों का शहर बनकर रह गया है।

पिछले कुछ समय से महाराष्‍ट्र में उत्‍तर भारतीयों पर हमलों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। बीते शनिवार को ही सेंट्रल मुंबई में कुछ लोगों ने पांच टैक्सियों पर हमला करके उन्‍हें शतिग्रस्‍त कर दिया। बताया जा रहा है कि कुछ मोटर साइकिल सवारों ने पहले टैक्‍सी मालिकों से पूछा कि वे कहां से ताल्‍लुक रखते हैं। उनके यह बताये जाने पर कि वे उत्‍तर भारत से ताल्‍लुक रखते हैं उनकी टैक्सियों पर हमला करके उन्‍हें चकनाचूर कर दिया गया।
मुझे समझ नहीं आता कि अचानक से मुंबई क्षेत्रवाद क्‍यों करने लगी? इतने सालों से बाहर से लोग यहां आकर अपनी रोजी-रोटी का उपाय कर रहे हैं। पर अचानक से मुंबईवालों का ऐसा क्‍यों लगने लगा कि मुंबई सिर्फ उनकी जागीर है। क्‍या मुंबई को इस मुकाम तक पहुंचाने मे सिर्फ उनका का ही एकमात्र योगदान है?

सबसे महत्‍वपूर्ण बात तो यह है कि कोई भी व्‍यक्ति अगर अपना घर छोड़कर मीलों दूर रोजी-रोटी का साधन ढ़ूंढने आता है तो उसके पीछे उसकी मर्जी से ज्‍यादा मजबूरी होती है। ताकि हजारों मील दूर बैठा उनका परिवार चैन की रोटी खा सके। क्‍या उनके मन में अपने परिवार से मिलने की कसक नहीं उठती होगी। एक तो परिवार से दूरी का गम और उस पर दूसरे राज्‍य में भी परायों सा व्‍यवहार। मुंबई इतनी कठोर कैसे हो सकती है? बल्कि उसे तो चाहिये कि वह दूसरे राज्‍यों से आने वाले लोगों को अपनेपन का अहसास दिलाये ताकि उन्‍हें कभी अपने घरों से दूर होने का एहसास ना हो। अगर सारे राज्‍य दूसरे राज्‍यों से आये लोगों को अपना दुश्‍मन समझकर उनके साथ र्दुव्‍यवहार करने लगे तो देश की अखण्‍डता चूर-चूर हो जायेगी। और इसके जिम्‍मेदार होगें हम स्‍वयं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

कृषि प्रधान देश में असहाय कृषक



अगर किताबों और आंकड़ों की बात करें तो भारत की पहचानं कृषि प्रधान देश के रूप में की जाती है। परन्‍तु अगर कृषि प्रधान देश के किसान सरकार की उपेक्षा के शिकार और ऋणग्रस्‍त होकर आत्‍महत्‍या करने पर मजबूर हो रहे हों तो यह उस देश के लिये बड़ा ही शर्मनाक और शोचनीय विषय है।
उससे भी ज्‍यादा सोचने का मुद्दा यह है कि वह किसान तो मौत को गले लगाकर मुक्ति पा लेते हैं परन्‍तु उनके पीछे उस परिवार की स्‍थिति क्‍या होती होगी ,इस बात का अंदाजा लगाना ही बहुत कठिन है। जिस परिवार का मुखिया उन्‍हें कर्ज तले दबा छोड़ गया हो, जिनके पास गरीबी और अभाव ही उनकी पूंजी और पुश्‍तैनी विरासत रह गयी हो। उस परिवार के बारे में शायद ही कोई सोचता होगा।

हमारे देश में समपन्‍नता और विपन्‍नता के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। एक ओर है घोर दुर्गति और वहीं दूसरी ओर है आराम देह जिन्‍दगी। हांलाकि इस बार के बजट में सरकार ने आर्थिक पैकेज देकर किसानों को इस संकट से उबारने की जो घोषणा की है, वह प्रंशसनीय है। परन्‍तु इस बात का भी एक दुखद पक्ष यह है कि सरकार ने किसानों के लिये ऋणमाफी की जो घोषणा की है वह सिर्फ उन बड़े किसानों के लिये फायदेमंद है जिन्‍होने बैंक से ऋण लिया है। परन्‍तु आत्‍म‍हत्‍या करने वाले किसानों मे उन किसानों की संख्‍या अधिक है जिन्‍होने साहूकारों से ऊंची दरों पर कर्जा लिया है और अब चुकाने में असमर्थ हैं। उनके लिये सर‍कार की ऋणमाफी की योजना अर्थहीन है, ज‍बकि उन्‍हें ही सबसे अधिक सहायता की आवयश्‍कता है।

सरकार को चाहिये कि वह ऐसे किसानों को बैंक से बिना ब्याज के या फिर कम दर पर ऋण उपलब्‍ध कराये ताकि वे साहूकारों का कर्जा चुका पाऐं। जहां सरकार 60 हजार करोड़ का नुकसान उठा रही है वहीं थोड़े और नुकसान का जिम्‍मा लिया जा सकता है। अन्‍यथा सरकार के कर्जमाफी के पश्‍चात भी ये आत्‍महत्‍याओं का सिलसिला नहीं रूकेगा। और ना ही उनके परिवार की दुर्गति होने से कोई रोक पाऐगा।

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

जोधा अकबर - इतिहास का एक अनछुआ पहलू

सबसे पहले तो मैं क्षमा प्रार्थी हूं कि इतने दिनों से ब्‍लाग की दुनिया से दूर रही। इतने दिनों से अपनी लेखनी पर विराम लगा कर मैं स्‍वयं को बहुत बंधा हुआ महसूस कर रही थी। पर कुछ निजी कारणों से मैं अपने ब्‍लाग को कुछ नया नहीं दे पा रही थी। इसी बीच आशुतोष गोवारिकर की बहुप्रतीक्षित फिल्‍म ‘जोधा-अकबर’ देखने का मौका मिला। काफी दिनों बाद किसी फिल्‍म में मुझे अपने इतिहास को करीब से जानने का मौका मिला। फिल्‍म को देखने के बाद महसूस किया कि हमारे भारत का इतिहास कितना गहरा है। मन किया फिर से अपने इतिहास के पन्‍नों को टटोल कर देखा जाये।
य‍ह फिल्‍म रिलीज से पहले से ही अपनी लागत और कहानी को लेकर चर्चा का विषय रही। परन्‍तु फिल्‍म को देखकर इसमें आयी लागत का अनुमान लगाना सरल है। पर सबसे मुख्‍य और आवश्‍यक वस्‍तु फिल्‍म की कहानी रही। सबसे पहले तो मैँ आशुतोष की हिम्‍मत की सराहना करना चाहूंगी क्‍योंकि भारत जैसे ब‍हुसामप्रदायिक देश में किसी ऐतिहासिक विषय पर फिल्‍म बनाना एक जोखिम भरा काम है। क्‍योंकि फिल्‍म की विषय वस्‍तु के साथ अगर जरा भी छेड़छाड़ हुई तो कुछ विशेष लोग जिन्‍होने समाज में धर्म और जाति का ठेका ले रखा है, सड़कों पर उतरकर विरोध प्रर्दशन करने में जरा भी देर नहीं लगाते।
परन्‍तु इतनी सावधानियों को बरतने के बावजूद भी राजस्‍थान के लोगों ने अकबर जोधा के रिश्‍ते को लेकर भ्रम पैदा किया। वहां के लोगों के अनुसार जोधा अकबर की पत्‍नी नहीं बहू थी। इस कारण उन्‍‍हें इस फिल्‍म से आपत्ति थी। पर सोचनीय बात यह है कि क्‍या आशुतोष ने इतनी बड़ी फिल्‍म का निर्माण करने से पहले इतनी जरूरी बात का ध्‍यान नहीं रखा होगा।

खैर, यह तो होना ही था। कोई भी बड़ी फिल्‍म बिना विवादों के घेरे से नहीं बच सकती। परन्‍तु यहां पर यह बताना भी बहुत जरूरी है कि फिल्‍म के जुड़े हर व्‍यक्ति ने अपना काम पूरी ईमानदारी से निभाया है। जोधा और अकबर के पहनाऐ गये आभूषणों और वेष भूषा का भी खासा ध्‍यान रखा गया है।
फिल्‍म का दूसरा मुख्‍य आर्कषण का केन्‍द्र इसका संगीत है। जो कि आजकल के भड़कीले और शोर शराबे वाले संगीत से बिल्‍कुल अलग है। इसके गीत शान्‍त और सकून देने वाले हैं। फिल्‍म का एक गाना ‘ख्‍वाजा मेरे ख्‍वाजा’ तो मजहब की दीवारों से ऊपर है और सकून भरा है।

इस फिल्‍म से जुड़ी हर बात प्रशंसा के काबिल है। इस फिल्‍म को देखकर अपने इतिहास के कई पहलुओं से रूबरू होने का मौका मिला। हम तो यही उम्‍मीद करते हैं कि हमारे बालीवुड के निर्देशक इस तरह की विषय वस्‍तु पर फिल्‍म बनाते रहें, ताकि आगे आने वाली पीढ़ी समय दर समय अपने सुनहरे इतिहास से मुखातिब हो सके।

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

काश वो दिन फिर से लौट आयें।

सबसे पहले तो आप सभी को मकर संक्राति की बहुत-बहुत शुभकामनाऐं।
आज घर की बहुत याद आ रही है। लगभग दो माह होने को आ रहे हैं घर गये हुऐ, और त्‍यौहार में घर की कसक और भी तेज हो जाती है। हमारे उत्‍तरांचल में मकर संक्राति का पर्व उत्‍तरायणी के नाम से मनाया जा‍ता है। घर में मां के हाथ के घुघुते और बड़ों की खुशबू यहां परदेस तक मैं महसूस कर पाती हूं।

हमारे भारत में एक बात बहुत अच्‍छी है कि यहां लगभग हर माह कोई ना कोई त्‍यौहार अवश्‍य पड़ जाता है, जिस कारण लोग एक दूसरे के लिये समय निकाल पाते हैं। पर आजकल के त्‍यौहारों में वह ताजगी और अपनत्‍व की वह महक ही नहीं रही, जो मुझे अपने बचपन में देखने को मिलती थी। जब मैं छोटी थी तो देखती थी कि हर छोटे बडे त्‍यौहार को हम सब आस पास के लोग मिलकर मनाते थे। लोहड़ी के लिये सब घरों से चंदा इकटृठा किया जाता था, होली के मौके पर सब लोग एक दूसरे के घर जाकर गुझिया बनाने में मदद करते थे। और अगले दिन होली में अलग अलग टोलियां बनती थीं , उसमें होली खेलने का मजा ही कुछ और होता था।

मुझे इस महानगर में रहते हुऐ इतना समय हो गया है और इस दौरान मुझे एक ही बात महसूस हुई , वह यह कि मेरे छोटे से शहर के लोगों में जो अपनेपन की भावना देखने को मिलती है, वह इन महानगरों की बड़ी इमारतों में रहने वाले लोगों में कहीं ढूंढने से भी नहीं मिलती। यहां के लोग सिर्फ अपनी जिदंगी जीने से मतलब रखते हैं। पड़ोसी के सुख- दुख से उन्‍हें कोई लेना देना नहीं होता।

आज मन कर रहा है कि काश वो बचपन के दिन फिर से लौट आयें। काश वो मां के हाथ की मिठाइयों की खुशबू सबके दिलों मे बस जाये, क्‍योंकि उस खुशबू में प्‍यार की महक भी शामिल है। पर मैं जानती हूं कि ये जरा मुश्‍किल है।
मुझे डर है सिर्फ एक बात का कि यह शहर कहीं मुझे भी अपनी चपेट में ना ले ले।

शनिवार, 12 जनवरी 2008

लक्ष्‍मी सिर्फ धनवानों की ही अमानत क्‍यों?

मुकेश अंबानी ने अपनी पत्‍नी को ढ़ाई सौ करोड़ का विमान तोहफे में दिया। अगर यह सच है तो मेरे देश की गिनती गरीब देशों मे क्‍यों की जाती है? क्‍योंकि जिस देश में पति अपनी पत्‍नी को ढ़ाई सौ करोड़ का विमान तोहफे में दे सकता है ,वह देश गरीब कैसे हो सकता है? पर यही तो विडंबना है मेरे देश की कि मेरा देश अभी भी गरीबों का देश बना हुआ है। अभी भी देश में सर्दी की रातों में ठंड से ठिठुरकर कर मरने वालों की लम्‍बी गिनती है। गर्मी की दोपहरों में अभी भी गरीब लू से जलने को मजबूर है। अभी भी कई बार गरीब का बच्‍चा रात को भूखा सोने को मजबूर है। पर सच तो यह है कि इन छोटी-छोटी बातों से मुकेश अंबानी जैसे बड़े आदमी का क्‍या वास्‍ता?
ठीक है मैं यह नहीं कहती कि उन्‍हें अमीर होने का कोई हक नहीं है और यह भी नहीं कहती कि सारे देश भर के गरीबों की समस्‍याओं का भार उन्‍हें अपने ऊपर ले लेना चाहिये, परन्‍तु यदि इसी रकम का कोई अस्‍पताल या कोई अन्‍य ऐसी जगह का निर्माण कराते जिस से गरीबों का कुछ भला हो जाये और उसे अपनी पत्‍नी को तोहफे के रूप में सौंप देते तो उन हजारों लाखों गरीबों का आशीष भी उन्‍हें प्राप्‍त होता और गरीबों तबके के कुछ लोगों की कुछ समस्‍याओं का समाधान मिल जाता।
इसी तरह से अमिताभ बच्‍चन जैसे कुछ लोग भी हमारे देश में है जो उन मंदिरों में लाखों रूपये का चढ़ाते हैं जिनके दानपात्र पहले से ही भरे हुऐ हैं। यदि यही रकम वह अगर किन्‍हीं जरूरतमंदों की मदद के लिये खर्च कर देते तो ईश्‍वर क्‍या उनसे कुपित हो जाते।


चलिये ये सब उदाहरण उन धनवानों के थे जिन्‍होनें स्‍वयं के पैसे का दुरूपयोग किया है , परन्‍तु इस देश में तो जनता यानि कि सरकारी पैसे के दुरूपयोग करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। इसका सबसे अच्‍छा उदाहरण तो राजस्‍थान की मुख्‍यमंत्री हैं जो सौ करोड़ तो विमान खरीदने में पहले ही खर्च कर चुकी हैं और अभी 15 करोड़ रूपये हवाई पटृटी बनाऐ जाने में खर्चे जा रहे हैं। और हास्‍यपद् बात तो यह है कि यह सब खर्चा उस राज्‍य में किया जा रहा है जहां लोग सालों से भुखमरी का शिकार हैं। जब राज्‍य का मुख्‍यमंत्री ने ही अपनी जनता से आंखे फेर ली हों तो आम आदमी अपनी समस्‍याओं की और किससे गुहार लगाऐगा?

यह एक ऐसा प्रश्‍न है जिसका जवाब पाना देश के भविष्‍य और प्रगति के लिये बहुत जरूरी है। नहीं तो इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में गरीब की समस्‍या का तो पता नहीं पर शायद गरीब अवश्‍य समाप्‍त हो जाऐगा।

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

कुडियों का है जमाना...

आज की कुडियों की बात ही अलग है. नये पीढ़ी की आत्‍मविश्‍वास से भरी हुई। ऐसे-ऐसे काम, जिन पर कल तक `मेन ओनली` का टैग लटक रहा था, उसे उन्होंने उतारकर साइड कर दिया है. और जिन पेशों के बारे में उनकी नानी-दादी या मां ने सोचा भी नहीं होगा, वे उनमें ना केवल पूर्ण रूप से उतर चुकी है बल्कि सफल भी हैं।
नाम- सलोनी, उम्र-27 वर्ष, काम-ट्रेनिंग देना. ट्रेनिंग देना... यह कैसा काम हुआ. चौंकिये मत, सलोनी सच में स्कूली बच्चों को ट्रेनिंग देती है, जूडो-कराटे की. फाइटिंग-शाइटिंग तो लड़कों का काम होता है. लेकिन आजकल लड़कियां प्लेन उड़ाने से लेकर कार तक दौड़ा लेती हैं, फिर जूडो-कराटे तो छोटी सी बात है. सलोनी का मानना है, अब स्कूल टीचर और सरकारी नौकरी के दिन लद चुके हैं. हर लड़की कुछ नया करना चाहती है. इसलिये मैने जो सीखा, उसे ही अपना कैरियर बना लिया. स्कूल में रहते हुए मैने अपनी सेफ्टी के लिये जूडो-कराटे का दो महीने का कोर्स किया था और फिर इसमें मन लगा तो इसे जारी भी कर लिया.
जमाना चांद पर कदम रखने का आ गया और हमारी दादी-नानी इसी बात को लेकर सोच में पड़ी रहती हैं कि हमारी पोती किन-किन कामों को करने लगी है. इसमें न सिर्फ लड़की ने बल्कि उसके माता-पिता ने भी बड़ी हिम्मत दिखाई है. कहीं मां की जिद तो कहीं पिता का सहयोग लड़की के कैरियर की ऊंची उड़ान के लिये पर्याप्त रहा. ग्लैमर वर्ल्ड की तो लड़कियों पर नजर शुरु से ही रही, लेकिन आज रिटेल बिजनेस भी उन्हें सराहनीय आंखों से देख रहा है। आज बड़ी-बड़ी कम्पनियों की सीईओ से लेकर बोर्ड आफ डायरेक्टर्स में महिलाएं है तो फिर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट में काम करना कोई बहुत बड़ी बात तो नहीं है.`
जमाना वाकई कुड़ियों का हैं. पांचतारा होटल्स में शेफ की जगह जहां लड़कियों ने पाई है, वहीं होटल मैनेजर की भूमिका में लड़कियां दिखाई देने लगी हैं. अगर कोर्सेस की बात करें तो होटल मैनेजमेंट जैसे कई कोर्स आज प्रायवेट और गर्वमेंट अप्रूव्ड इंस्टीट्यूट में तेजी से चल रहे हैं, जहां क्या लड़के और क्या लड़कियां, दोनों इकट्ठे कोर्स कर रहे हैं।
न सिर्फ होटल मैनेजमेंट, बिजनेस मैनेजमेंट या फिर टीचिंग में लड़कियों ने धाक जमाई है, इंजीनियरिंग के क्षेत्र में भी उन्होंने कमाल दिखाया है।
लड़कियां तो बेधड़क एक से बढकर एक काम करने लगी हैं, लेकिन कभी-कभी ही सही, अभी भी पुरुष अपनी ईर्ष्या को यह कहकर कि तुमसे यह काम नहीं होने वाला, दिखा ही देते हैं। लेकिन सच तो यह है कि बार में बार टेंडर का काम करने से लेकर बड़े-बड़े लोगों को सिक्यूरिटी देने का और घर सजाने से लेकर घर बनाने तक का काम आज लड़कियां बखूबी कर रही हैं। काम के इन नए आयामों के साथ लड़कियों की बल्ले-बल्ले हो रही है। आज की कुडियां जब यह कहती है कि गर्ल्‍स द बेस्‍ट जान लो,,,,,,, तो यकीन ना करने की कोई गुंजाइश नही रहती।

बुधवार, 2 जनवरी 2008

और बेनजीर सचमुच चली गयी…….

मुझे तो अब तक यकीन ही नहीं हो रहा है कि बेनजीर भुटृटो अब हम लोगों के बीच नहीं है। उनकी हत्‍या ने सारी दुनिया को जड़ कर दिया है। यह दिल को दहला देने वाली घटना इस बात का भी सबूत है कि पाकिस्‍तान में आंतकवाद अपनी जड़ें किस हद तक गहरी कर चुका है। अलकायदा ने बेनजीर की हत्‍या की जिम्‍मेदारी लेकर इस संदेह को भी समाप्‍त कर दिया है कि बेनजीर की हत्‍या का जिम्‍मेदार कौन है?

वैसे अगर देखा जाये तो बेनजीर भुटृटो की जान पर खतरे के संकेत उसी समय मिल चुके थे जब बरसों बाद बाहर रहने के बाद दो महीने पहले ही वतन लौटी बेनजीर पर कराची में उनके स्‍वागत के लिये उमड़ी भीड़ को निशाना बनाकर आत्‍मघाती विस्‍फोट किये गये थे, जिसमें वह तो किसी तरह बच गयी थी पर करीबन डेढ़ सौ लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। उन्‍हें जान से मारने की धमकियां तो पाकिस्‍तान लौटने से पहले ही मिल रही थीं कि यदि वह पाकिस्‍तान लौटीं तो अंजाम अच्‍छा नहीं होगा और उन पर हुऐ पहले ही हमले ने यह भी जता दिया कि वह धमकियां यर्थाथ के कितने नजदीक थीं। उन पर हुऐ हमले के मदृदेनजर उनकी सुरक्षा को भी बढा दिया गया था। परन्‍तु फिर भी आंतक वादी अपने मकसद मे कामयाब हुऐ। आश्‍चर्य की बात तो यह है कि उन पर यह हमला रावल पिडीं मे हुआ जिसे सेना का गढ़ माना जाता है। आंतकवादियों की इसी हिम्‍मत से पता चलता है कि पाकिस्‍तान में आंतकवाद किस हद तक अपनी जड़ें जमा चुका है।
बेनजीर भुटृटो को सियासत विरासत में मिली हुई जागीर की तरह थी जिसे उन्‍होनें अपने पिता की वजह से ग्रहण तो बेमन से किया था परन्‍तु एक बार इस समन्‍दर में उतरने के बाद वह सबसे तेज तैराक साबित हुईं। पाकिस्‍तान जहां पुरूषों का देश की राजनीति में एकछत्र राज्‍य था, वहां उन्‍होने 19 साल पहले प्रधानमंत्री पद की शपथ ले‍कर पाकिस्‍तान की राजनीति में अपना नाम ऐतहासिक और सुनहरे पन्‍नों में दर्ज करा लिया। इतिहास के पन्‍नों में ऐसा पहली बार हुआ था कि मुस्लिम देश की कमान एक महिला प्रधानमंत्री के हाथों मे आयी थी। इसी कारण वह सारी दुनिया के लिये भी आधुनिकता का प्रतीक बन गयी थीं। वह हमेशा से ही पाकिस्‍तान को एक सेकुलर और आधुनिक मुल्‍क बनाना चाहती थीं। बेनजीर की यही चाहत कटृटरपंथियों की आंखों में खटकती थीं।
अब सवाल यह उठता है कि बेनजीर के बाद पीपुल्‍स पार्टी के नये अध्‍यक्ष बने उनके बेटे बिलावल मे वह जज्‍बा देखने को मिलेगा जो बेनजीर में था या फिर पाकिस्‍तान में लोकतंत्र का सपना सिर्फ सपना बनकर ही रह जाऐगा।