शनिवार, 3 नवंबर 2007

भेदभाव रोकने के नाम पर बढ़ता भेदभाव


अल्‍पसंख्‍यक परिवार के घर में डकैती,दलित महिला के साथ बलात्‍कार,पिछड़े वर्ग के छात्र के साथ मार-पीट।इस तरह की कई घटनाऐं हम लोग आये दिन अखबारों आदि में पढ़ते रहते हैं।ये घटनाऐं निश्चित रूप से समाज के लिये शर्मनाक हैं पर इन घटनाओं को किसी वर्ग विशेष से जोड़कर लिखा जाना उससे भी अधिक शर्मनाक है।क्‍योंकि सर्वप्रथम तो ये हादसे समाज के किसी भी वर्ग के साथ घटित हो सकते हैं क्‍योंकि इस तरह के कुकर्म करने वालों का कोई धर्म या मजहब नहीं होता है और दूसरा यह कि इन हादसों को किसी विशेष वर्ग जोड़ना उन्‍हें स्‍वयं ही समाज से अलग दर्शाता है।इस तरह किसी घटना के साथ ‘दलित’ शब्‍द जोड़ना पीडित के घावों पर नमक का काम करता है और समाज के अन्‍य वर्गों के प्रति उनके मन में कड़वाहट भर देता है।
कोई आपको इसलिये नौकरी देता है क्‍योकि आप दलित,अल्‍पसंख्‍यक या मुसलमान हैं वहीं दूसरी ओर कोई आपको इसी लिये नौकरी पर नहीं रखता क्‍योंकि आप अल्‍पसंख्‍यक हैं।ये कैसा गणित हुआ भला कि यदि बलात्‍कार यदि किसी दलित लड़की के साथ हुआ तो आन्‍दोलन हो गया,यह घटना पहले पन्‍ने की खबर बन गयी और यदि किसी सामान्‍य जाति की लड़की के साथ हुआ तो रोजमर्रा की खबरों में शामिल हो गयी।क्‍या दोनों की पीड़ा में अंतर है?दोनों ही समान दौर से गुजर रही हैं।उनकी पीड़ा को कोई तीसरा नहीं समझ सकता है।पर इस तरह की घटनाओं को आग देकर अपने स्‍वार्थ की रोटी सेकनें वाले कुछ स्‍वघोषित बुद्धिजीवी वर्ग की कमी नहीं है इस दुनिया में।जो कि स्‍वयं को धर्म का ठेकेदार की उपाधि देते हैं।यही वह लोग हैं जो कि समाज को हमेशा से दो भागों मे बॉट‍‍ते आये हैं।क्‍योकि इन्‍ही सब से इन‍की रोजी रोटी का जुगाड़ होता है।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।यह गाथा तो हम वर्षों से गाते आ रहे हैं परन्‍तु इसी धर्म‍निरपेक्षता जैसे सुन्‍दर शब्‍द ने समाज को दो भागों में विभाजित कर दिया है।‍हमारा देश का संविधान कहता है कि देश के सभी नागरिक एक समान हैं पर दूसरी ओर समाज में हादसों को वर्ग विशेष से जोड़ दिया जाता है।किसी जाति विशेष को हादसे के साथ बार –बार उनकी जाति याद दिलाया जाना उन्‍हें यह एहसास दिलाता है कि उनके साथ यह हादसा उनकी जाति के कारण हुआ और यह भी कि वह औरों से अलग हैं।
दूसरा बड़ा मुदृदा जो भारत के धर्मनिरपेक्षता गाथा की धज्जियॉ उड़ा रहा है वह है-आरक्षण की मांग।यह एक ऐसी चिंगारी है जो किसी भी समाज मे साम्‍प्रादायिकता फैलाने के लिये काफी है।यदि देश के सभी नागरिक समान हैं तो नौकरी पाने के लिये जाति प्रमाण-पत्र की आवश्‍यकता क्‍यों पड़ती है? किसी भी पद के लिये योग्‍य व्‍यक्ति का चुनाव उसकी शिक्षा के आधार पर होना चाहिये ना कि उसकी जाति के आधार पर।वैसे आरक्षण एक बड़ा मुदृदा है जिसके लिये अलग से चर्चा की आवश्‍यकता है।फिलहाल तो केवल यही कहा जा सकता है कि समाज में हुऐ किसी भी हादसे को किसी विशेष जाति से जोड़कर ना प्रस्‍तुत किया जाये क्‍योंकि ये भेदभाव को समाप्‍त करने के बजाए उसे बढ़ावा देते हैं और समाज में जातिवाद की खाई को दिनों दिन गहरा कर रहे हैं।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

‘अच्‍छा तो हम चलते हैं’

गाने की पंक्तियां तो बहुत पुराने गाने की हैं पर आजकल के प्रेमियों पर सटीक बैठती हैं।इस बदलते समाज ने प्रेम की परिभाषा को भी बदल के रख दिया है।आजकल प्रेम की उम्र लम्‍बी नहीं होती है। जब तक विचार मिले,तब तक ठीक है पर जहां विचारों में जरा भी मतभेद हुआ वहीं से प्रेमी एक दूसरे को कहते हैं-अच्‍छा तो हम चलते हैं।और ‘फिर कब मिलोगे’ वाली पंक्तियों की आवश्‍यकता यहां कभी नहीं पड़ती क्‍योंकि जल्‍द ही उन्‍हें कोई और मिल जाता है।
ये प्रेम की नयी व्‍याख्‍या है जो प्रेमियों ने अपनी सहूलियत के लिये स्‍वयं निर्मित की है।पर इन दोनों परिभाषाओं में वही अंतर है जो कागज के फूलों और असली फूलों में होता है।प्रेम की भीनी उस सुगन्‍ध का जो कभी प्रेमियों के ह्दय सें आती थी।
आजकल की भागती –दौड़ती जिन्‍दगी में प्रेम भी केवल टाइम-पास का जरिया बन गया है।युवा प्रेमी मिलते हैं साथ घूमते हैं खाते-पीते हैं पर विवाह का इरादा न‍हीं रखते हैं।और ना ही एक-दूसरे की जिन्‍दगी में हस्‍तक्षेप करते हैं।इनमें से कई लोग ऐसे भी हैं जो कि बॉयफ्रेन्‍ड या गर्लफ्रेन्‍ड केवल इसलिये बनाते हैं क्‍योकिं ये आजकल का फैशन है और उनके स्‍मार्ट होने का प्रमाण है।100 मे से 70 लड़कियां प्रेम को केवल समय बिताने का जरिया मानती हैं और अपने माता-पिता की पसन्‍द से शादी करना पसन्‍द करती हैं।दूसरी तरफ ज्‍यादातर लड़कों की सोच भी यही है।
विशेष रूप से कालेज,स्‍कूल आदि में आजकल प्रेम की इसी नयी परिभाषा को जिसे अंग्रेजी में ‘वन नाइट स्‍टैन्‍ड लव’ भी कहा जाता है को तव्‍वजो दे रहे हैं।कारण है कि जब हमारी पूरी संस्‍‍कृति पश्चिमी सभ्‍यता में रंगती जा रही है तो भला प्रेम इसके रंग में सराबोर होने से कैसे बच पाऐगा।पर अंत में केवल यही कहना चाहूंगी कि इस तरह के प्रेम में अंत में अकेलेपन और मानसिक कुंठा के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा।और ना ही इस तरह का रिवाज चिरस्‍थाई होगा।

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

नया पीढ़ी का नया भारत

खून नया है,जोश भी और विचार भी नये हैं।अगर वो डिस्‍को में शाम गुजारते हैं तो मंदिर जाना भी नहीं भूलते।अगर वो वैलेन्‍टाइन डे को पूरे जोश-खरोश के साथ मनाते हैं तो नवरात्रि में भी उनका उत्‍साह देखते ही बनता है।अगर इण्‍टरनेट पर चैटिंग करने का शौक रखते हैं तो अपनी पढ़ाई के लिये भी उसी नेट का प्रयोग करना बखूबी जानते हैं।अगर वो टी वी पर म्‍यूजिक चैनल और र्स्‍पोटस चैनल के दीवाने हैं तो न्‍यूज चैनल भी उनके लिये उतना ही महत्‍वपूर्ण है।

इनसे मिलिये ये हैं-भारत की नयी पीढ़ी।जो जोश के साथ होश संभालना भी बखूबी जानती है।वैसे देखा जाये तो आज का युवा अपेक्षाकृत ज्‍यादा जिम्‍मेदार है।वह अपने दोस्‍तो के साथ घूमने भी जाता है,फिल्‍में भी देखता है ,पर अपने लक्ष्‍य को लेकर भी उतना ही सजग है।वह जानता है कि उसे जिन्‍दगी में क्‍या करना है और वहां तक पहुंचने का रास्‍ता भी जानता है।
वह जितना आदर अपने माता पिता को देता है ,उतना ही सम्‍मान अपने देश का भी करता है।वह देश की राजनीति की भी समझ रखता है और अपने मत का प्रयोग करना भी जानता है।वह केवल अपने अधिकारो की जानकारी नहीं रखता बल्कि अपने र्कत्‍वयों का पालन करना भी जानता है।
वह देश के प्रति अपनी जिम्‍मेदारियों से अच्‍छी तरह वाकिफ है।वह अपने देश के लिये बहुत कुछ करना चाहता है।और वह कर भी रहा है।वह अपने देश के संविधान की इज्जत करता है और उन भरोसा भी करता है।पर युवा वर्ग अपने देश की सरकार से कुछ मुद्दों पर भरोसा चा‍हता है।जैसे-
-नौकरी या रोजगार का भरोसा
-लड़कियों के सड़क पर निर्भय होकर निकलने का भरोसा
-साम्‍प्रदायिकता के समाप्‍त होने का भरोसा
और सबसे बड़ी बात यह है कि वह चाहते हैं कि देश की पुरानी पीढी उन पर भरोसा करे।और शायद यह जरूरी भी है।क्‍योंकि आज की युवा पीढ़ी देश की तरक्‍‍‍की को उस मुकाम पर पहुंचा सकती है जहां आज विश्‍व के कई विकसित देश खड़े हैं।बशर्ते देश का अनुभवी वर्ग उनके साथ कंधा मिलाकर खड़ा हो।

बुधवार, 31 अक्तूबर 2007

दुनिया का सबसे अमीर आदमी एक गरीब देश से

बड़ी असमंजस में हूं कि ये हर्ष का विषय है या विषाद का।दुनिया का सबसे अमीर व्‍यक्ति हमारे देश से है और फिर भी हमारे देश का किसान गरीबी और भूख से लाचार होकर आत्‍महत्‍या करने को मजबूर है।खबरों के अनुसार परसों अचानक शेयरों के भाव बढ़ने से मुकेश अंबानी इस दुनिया के सबसे अमीर व्‍यक्ति बन गये।इस मामले में उन्‍होनें बिल गेट्स और वारेन बफेट को भी मात दे दी।पर बावजूद इसके देश की स्थिति और हालात आज भी जस के तस हैं।आज भी हमारे यहां बड़ी संख्‍या में लोग गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं।ऐसे गांवो की भी कोई कमी नहीं जहां लोगों ने आज तक बिजली का मुंह तक नहीं देखा है।कहा जाता है कि सारी दुनिया में सबसे ज्‍यादा अंग्रेजी भारत में बोली जाती है तो ऐसे देश में साक्षरता की दर इतनी कम क्‍यों है?देश का किसान कर्ज से दबकर आत्‍महत्‍या करने को इतना मजबूर क्‍यों है?इन सब सवालों का केवल एक ही जवाब है कि हमारे देश में अमीर आदमी और अमीर तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है।अमीर जोंक की तरह आम जनता का रक्‍त चूसकर अपनी रईसी का घड़ा भरता जा रहा है।उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं कि देश का आम आदमी किस तरह जूझ रहा है। अगर बिल गेट्स की बात करें तो उनमें अगर धन कमाने की काबिलियत है तो धन दान करने और जरूरतमन्‍दों के लिये कार्य करने की काबिलियत भी है।उन्‍होने स्‍वास्‍थ्‍य और शिक्षा जैसी संस्‍थाओं को 13 अरब डालर की आर्थिक सहायता भी की है।और यदि वारेन बफेट की बात करें जो कि दुनिया के सबसे बड़े निवेशक भी हैं,उनकी कम्‍पनी हैथवे इन्‍वेस्‍टमेन्‍ट के एक करोड़ के शेयर दान किये गये है जिनकी कीमत 30 अरब डालर आंकी गयी है।पर इस मामले मे मुकेश अंबानी का खाता बिल्‍कुल खाली है।जहां बिल गेट्स और वारेन बफेट जैसे लोग सबको एक साथ लेकर चलने मे यकीन रखते हैं वहीं हमारे देश का उच्‍च वर्ग केवल अपनी तिजोरी भरने में यकीन करता है।नतीजा गरीब तबका आज भी फुटपाथ पर सोने को मजबूर है और अमीरों के महल जैसे घर खाली पड़े रहते हैं।आम जनता लोकल बसों में भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करती है और उच्‍च वर्ग के हर सदस्‍य का अपना निजी वाहन है।अगर यही सिलसिला जारी र‍हा तो देश से गरीबी नहीं बल्कि गरीब ही मिट जाऐगें।